करोना आ गया, आ गया… यह कैसा मंजर था कि हर कोई डरा हुआ, सहमा हुआ था. अपने घरों में कैद हो गया और लॉकडाउन आ गया. एक ऐसा दौर था वो जब हर कोई अपने घरों में कैद इस आशंका में डूबा हुआ था कि पता नहीं क्या होगा! एक अजब सा सन्नाटा, एक अजब सी दहशत हमारे चारों ओर फैली थी और व्यवस्था भी असहाय महसूस कर रही थी, कि इस समस्या का निदान किस प्रकार से ढूंढा जाए. और हम सब लोग अपने घरों में काफी हफ्तों तक बंद थे. मौत का सन्नाटा पसरा हमारे चारों तरफ और हर आहट हमें डरा जाती थी. हर खबर हमें डराती थी और समय बीतता चला गया… दहशत कुछ कम हुई और हम घर से बाहर निकलने लगे कभी सावधानी से कभी असावधानी से.

 

परंतु हमारी असावधानी हमारे लिए घातक सिद्ध हो गई और करोना फैलता चला गया. लोगों को अपने बंधन में बांधने लगा. अपने खोए हुए लोगों से कैसे जुड़ पाएंगे, उनके अतीत को कैसे भुला पाएंगे!

 

असावधानी से, और वही हुआ जिसका डर था. करोना फैल गया, बुरी तरह से फैल गया और हम सब लोग धीरे-धीरे उसकी गिरफ्त में आने लगे और बहुत सारे हमारे जानने वाले लोग इसका शिकार होने लग गए और अपनी चिर निंद्रा में सो गए. यह भयानक घटनाएं हो रही थीं और आज भी हो रही हैं जिनका निदान किसी के पास नहीं है. व्यवस्था पूरी गतिशील है और जो लोग इस व्यवस्था से जुड़े हैं वे अत्यधिक प्रयत्नशील हैं और उनका हर कार्य सराहनीय है. धन्यवाद योग्य है!

 

परंतु कुछ ऐसे तत्व इस बीच में जुड़ते गए हैं जो अपने फायदे के लिए समाज की सेवा के नाम पर उनका अत्यधिक शोषण कर रहे हैं और यह ठीक नहीं है. अब देखना यह है कि हम इस परिस्थिति से कैसे जीत पाएंगे और अतीत को कैसे भुला पाएंगे. हमारा तो बस यही उद्देश्य होना चाहिए कि इस समस्या के साथ इस प्रकार जीना सीखें कि दूसरों के लिए एक सकारात्मक मिसाल बन सकें और न सकें कुछ तो कम से कम दुखद यादों का कारण न बनें!

 

इस संदर्भ में एक उभरती हुई लेखिका (Arun Khare) की कुछ पंक्तियां याद आती हैं जो मैं यहां पर प्रस्तुत करना चाहता हूं.

पितरों की ओर से…
क्यों चढ़ाते हो चन्दन की माला चित्रों पर हमारे,
गए हम कहां हैं जीवन से तुम्हारे ।

ज़रा पीछे मुड़कर देखो तो सही,
खड़े हम सदा ही साथ तुम्हारे।

यादों के सुमन जब चुनने लगोगे,
मिलेंगे सभी मनबगिया में तुम्हारे।

जीवन की जो माला तुम गूंथ रहे हो,
हर फूल में हम बसे हैं तुम्हारे।

जो पथ हमने देखा, था तुमको दिखाया,
वही साथ देंगे प्रगति में तुम्हारे।

क्यों चढ़ाते हो चन्दन की माला चित्रों पर हमारे,
गए हम कहां हैं जीवन से तुम्हारे ।