पिता को अगर हमारे बुजर्गो ने दुनिया में हमारा ‘पहला दुश्मन और अंतिम दोस्त’ करार दिया तो क्या गलत कहा‼ पिता– पुत्र के रिश्ते की लेयर्स यानी सतहों को समझने का कलात्मक कर्म है नेटफ्लिक्स पर दो अक्टूबर को रिलीज हुई फिल्म ‘सीरियस मैन’। इसके निर्देशक हैं सुधीर मिश्रा। बापू यानी महात्मा गांधी के जन्मदिन पर इसे सोचकर ही रिलीज किया गया होगा…
फिल्म ‘सीरियस मैन’ हार्पर कॉलिंस से 2010 में आए, मनु जोसफ लिखित इसी नाम के उपन्यास का सिनेमाई रूपांतरण है। मनु जोसफ ‘ओपन’ मैंगजीन के संपादक रह चुके हैं। उनके इस डेब्यू उपन्यास को पहला ‘द हिंदू लिटरेरी प्राइज’ मिला था। हार्पर कॉलिंस से ही 2012 में उनका दूसरा उपन्यास आया- ‘द इलिसिट हैप्पीनैस ऑफ अदर्स’ और तीसरा ‘मिस लैला आर्म्ड एंड डेंजरस’ फोर्थ एस्टेट से 2017 में प्रकाशित हुआ है, और अपने इन केवल तीन उपन्यासों के साथ वे भारत के पहली कतार के अंग्रेजी
उपन्यासकारों में गिने जाने लगे हैं, पश्चिम का साहित्य जगत सलमान रूश्दी, विक्रम सेठ, रोहिंटन मिस्त्री, अरविंद अडिगा, अमिताभ घोष, अमित चौधरी, अरूंधति घोष और राना दासगुप्ता आदि के बाद उन्हें भारत से अगली बड़ी उम्मीद के रूप में देख रहा है।
तो सुधीर मिश्रा निर्देशित ‘सीरियस मैन’ में मुख्य भूमिका में या पोस्टरबॉय नवाजुद्दीन सिद्दीकी हैं, उनके साथ दक्षिण भारत के मशहूर अभिनेता एम नासर कमाल के किरदार में हैं। नासर को हम ‘बाहुबली’ में एक खंडित हाथ वाले, कुटिल किरदार बीजलदेव के रूप में देख चुके हैं। ‘सीरियस मैन’ में नासर नैशनल इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च, मुम्बई के सांईटिस्ट डॉ. अरविंद आचार्य बने हैं जो एलियंस पर शोध कर रहे हैं, यानी वह ब्राह्मण बॉस जिसके दलित पीए अय्यन मणि बने हैं नवाजुद्दीन सिद्दीकी।
हालांकि फिल्म का हीरो दरअसल एक बच्चा है जिसके पिता की भूमिका में नवाज हैं, और मां ओजा मणि की भूमिका में इंदिरा तिवारी। इंदिरा तिवारी को ‘अनफेयर’ नामक शॉर्टफिल्म की वजह से काफी चर्चा मिली थी। वे ‘सीरियस मैन’ में दक्षिण भारतीय निम्न मध्यमवर्गीय महिला के किरदार को आत्मसात करके निभा ले गई हैं। वे मां और पत्नी दोनों रूपों में यादगार हैं, नवाज जैसे कद्दावर, जाने पहचाने अभिनेता के सामने कहीं कमजोर नहीं पड़तीं।
अय्यन मणि अपने 10 साल के बच्चे ‘आदि’ के लिए कहानी रचता है कि वह गणित और विज्ञान का जीनियस है। अक्षत्थ दास ने फिल्म की यह केंद्रीय भूमिका निभाई है। नेता जब ‘आदि’ में अंबेडकर की छवि आरोपित करने की चेष्टा करता है, हम भारतीय राजनीति के लिजलिजे सच से रूबरू होते हैं।
फिल्म पिता और पुत्र की रिश्ते की लेयर्स यानी सतहों को समझने का कलात्मक कर्म है। पिता को अगर हमारे बुजर्गो ने दुनिया में हमारा ‘पहला दुश्मन और अंतिम दोस्त’ करार दिया तो क्या गलत कहा‼ फिल्म के निर्देशक सुधीर मिश्रा के इसी साल दिवंगत पिता डॉ. डी.एन. मिश्रा गणितज्ञ थे, वे बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के कुलपति भी रह चुके थे। उन्हें ही फिल्म समर्पित की गई है। कहानी जिस तरह से, जिस शिद्दत से
विज्ञान और गणित की बात करती है, उस समर्पण को तार्किक आधार देती है। बात निकली है तो यकीनन दूर तलक जाएगी, तुर्की के विश्वविख्यात उपन्यासकार ओरहान पामुक ने 2002 में अपने पिता की मौत के बाद संस्मरण लिखते हुए कहा था– ‘एवरीमैन’ज डैथ बिगिंस विद द डैथ ऑफ हिज फादर’ तो वे ऐसा कतई अकारण नहीं कहते। जब ओरहान को 2006 में साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला तो वे नोबेल पुरस्कार के इतिहास के पहले लेखक बने जिसने अपने व्याख्यान को पिता के साथ अपने रिश्ते पर केंद्रित किया, शीर्षक दिया– ‘माय फादर’स सूटकेस’। इसमें उन्होंने कहा- ‘मेरे पिता ने कहा था कि जीवन एक खूबसूरत चीज है और इसका उद्देश्य खुश होना है… खुशी वही है कि आप किसी को अपनी बांहों में भरते हैं और पाते हैं कि आपने पूरी दुनिया को अपना बना लिया है। हम जीते हैं, लेकिन थोड़ी देर, हम देखते हैं, मगर बहुत कम, इसलिए कम से कम हमें सपने जरूर देखने चाहिए।’ मुझे लगता है कि ओरहान पामुक का वह व्याख्यान दुनिया के हर इनसान को पढ़ना चाहिए, रचनात्मक इनसान को तो बार- बार पढ़ना चाहिए। इसी उजाले में मैं फिल्म के इस समर्पण को देखता हूं। मेरी अकिंचन राय में हर व्यक्ति के जीवन के दो हिस्से होते हैं एक पिता के रहते, एक पिता के जाने के बाद। और, यह दूसरा हिस्सा पुनर्जन्म जैसा मानना चाहिए। तो मेरी समझ में, गोया, सुधीर मिश्रा के पिताजी के वैसे ही सूटकेस से निकली हुई फिल्म है– ‘सीरियस मैन’।
दलित बालक की कहानी कहते हुए भारतीय सामाजिक सतह के नीचे की हलचल को बिना बहुत ज्यादा लाउड हुए छुआ गया है, ये सुधीर जी जैसा जीनियस निर्देशक ही कर सकता था। क्योंकि मुम्बई में कहानी सैट है और दलित कंसर्न फिल्म का अंडर करेंट है तो मराठी दलित लेखकों की याद न आए, ऐसा हो नहीं सकता। शरण कुमार लिंबाले की आत्मकथा ‘अक्करमाशी’ जो ‘द आउटकास्ट’ नाम से अंग्रेजी में आई, पढ़ते हुए रौंगटे खड़े हो जाते हैं। वहीं, नामदेव ढसाल की कविताएं दलित पीड़ा और कॉन्सियसनैस का अपूर्व कोलाज हैं।
इनसान अपने परिवेश और आसपास के अनुभवों से ज्यादा रिलेट करता है, मुझे फिल्म देखते हुए बार-बार ‘पेपलो चमार’ नामक कविता संग्रह की याद आती रही, राजस्थानी के चर्चित युवा कवि उम्मेद गोठवाल के इस संग्रह का हिंदी अनुवाद वाणी प्रकाशन ने प्रकाशित किया है, शीर्षक कविता की पंक्तियां हैं– ‘सुन पेपला! चमार होने से अच्छा है/ कुछ भी होना, काग होना/ तोता होना/ कबूतर होना/ भले सबकी नियति में हो/ किसी का शिकार होना/ चाहे तो बलि का बकरा ही होना/ कसाई का भैंसा ही होना/ परंतु चमार/ कभी मत होना/ मौत का तय है/ एक दिन/ यूं तिल तिल रोज मरने से अच्छा है/ एक दिन समूचा मर जाना।’
वापिस फिल्म पर आएं, फिल्म इस मामले में कोई भेदभाव नहीं करती कि ब्राह्मण और दलित अपनी-अपनी तरह के फ्रॉड रचते हैं। यह समानता का अद्भुत बिंब है, यानी पक्षपाती नहीं है फिल्म। ‘सीरियस मैन’ इसलिए भी महत्वपूर्ण लग रही है कि बड़ी कहानी कहने के लिए, या बड़ी फिल्म बनाने के लिए बड़े आदमी की कहानी जरूरी नहीं, छोटा बच्चा भी काफी होता है, यह सिद्ध होता है। छोटे से घर के छोटे-छोटे किरदार मुकम्मल तरीके से आगे बढ़ते हुए कहानी का कैनवस इतना बड़ा कर देते हैं कि फिल्म भारतीय मध्यवर्ग का महाकाव्य बन जाती है। पवन वर्मा की इस बारे में एक कीमती किताब है– ‘द ग्रेट इंडियन मिडिल क्लास’, समय और फुर्सत मिले तो उसे पढ़ा जाना चाहिए, न भी पढ़ सकें तो कोई बात नहीं, सुधीर मिश्रा की दो-तीन फिल्में देख लें, काफी है।