Amazon.in पर हाल ही में आई सिरीज ‘बंदिश बैडिट्स’ (Bandish Bandits) ने हमें सोचने का अवसर दिया है कि संगीत और साहित्य आदि कलाओं की दुनिया का भीतरी सच बाहरी सच और ग्लैमर से बहुत अलहदा है। उनके पीछे का अंधेरा करूणा और मानवीयता की ऐसी सिम्फनी रचता है, जिसे महसूस करने के लिए मजबूत कान और कोमल दिल चाहिए, जो उनके जीवन को बिना जज किए उसे समझ सकें…
कुदरत कुछ लोगों को ऐसे हुनर से नवाजती है कि उसके अलावा वे कुछ और कर ही नहीं सकते। इस तरह से ये कुदरत का वरदान भी है, अभिशाप भी। संगीत का हुनर भी ऐसा ही एक हुनर है। प्रकारांतर से अन्य कलाएं भी। प्रदर्शनमूलक कलाओं का संसार अपनी इन्हीं विलक्षणताओं के कारण दिलचस्प हो जाता है तो उसे जीने वाले कलावंतों की उतार-चढ़ाव वाली जीवन स्थितियां आम लोगों को रोमांचित कर सकती हैं, पर उनके पीछे का अंधेरा करूणा और मानवीयता की ऐसी सिम्फनी रचता है, जिसे महसूस करने के लिए मजबूत कान और कोमल दिल चाहिए, जो उनके जीवन को बिना जज किए उसे समझ सकें।
अमेजोन पर नई सिरीज आई है –‘बंदिश बैंडिट्स’। निर्देशन आनंद तिवारी का है। क्रिएटर का क्रेडिट आनंद तिवारी के साथ अमृतपालसिंह बिंद्रा का है। क्लासिकल गायकी के एक घराने की कहानी में प्रेम कहानी का तड़का है। जिसे पटकथा में रूचिपूर्ण कंट्रास्ट देने के लिए लड़की पॉप गायिका रखी गई है, वह भी महानगर की, अंग्रेजी में गालियां देने वाली (डेरोगेटरी टर्म्स में नहीं)। घराने के मुखिया या शीर्ष पुरुष पंडित राधेमोहन राठौड़ के किरदार में हैं- नसीरूद्दीन शाह जिन्हें सब ‘पंडिज्जी’ ही कहते हैं। फिक्शनल प्लॉट में उन्हें पूर्व रियासत की परंपरा अनुसार ‘संगीत सम्राट’ बताया गया है और अब उनका पोता राधे यानी रित्विक, उनके आर्शीवाद से अगले संगीत सम्राट की दावेदारी कर रहा है। यह एंगल भारत के अतीत, वर्तमान और भविष्य का रूपक भी माना जा सकता है। प्रेम कहानी का पुरुष पात्र नायक माने जाने की बॉलीवुडिश रवायत है तो यही पोता इस संगीत कथा का नायक है। इस सिरीज की कहानी राजस्थान यानी जोधपुर में सेट की गई है तो जगह भी कहानी में एक किरदार की ही तरह आई है, यह विजुअल लोकेल आईडेंटिटी कहानी को खूबसूरत बनाती है।
संगीत की घरानेदारी इस तरह से शायद ही कभी भारतीय सिनेमा या टीवी आदि पर आई हो। कम से कम मेरी याददाश्त में तो नहीं ही आई। मशहूर संगीत विशेषज्ञ यतींद्र मिश्र के शब्द उधार लूं तो ‘बंदिश बैंडिट्स’ के रूप में ‘सुर की बारादरी’ पर एक सुंदर कहानी कही गई है।
वैसे, 1958 की बांग्ला फिल्म ‘जलसाघर’ को कोई कैसे भूल सकता है भला। सत्यजीत रे की यह फिल्म ताराशंकर बंद्योपाध्याय की कहानी पर आधारित है जिसमें जमींदारी के पतन के दिनों में भी, भयावह आर्थिक संकटों के बीच, एक जमींदार संगीत रसरंजन का मोह नहीं त्याग पाता। इस फिल्म की खास बात है कि बेगम अख्तर, बिस्मिल्लाह खान और उस्ताद वाहिद खान जैसे दिग्गज कलाकार ऑनस्क्रीन परफॉर्म करते हुए नजर आते हैं, अपने जमाने की मशहूर क्लासिकल डांसर रोशन कुमारी फकीर मोहम्मद नाचते हुए दिखाई देती हैं। शायद यह पहली भारतीय फिल्म थी जिसमें क्लासिकल भारतीय संगीत को कहानी में इतनी शिद्दत से शामिल किया गया था।
इत्तेफाक है कि जिन दिनों में यह सिरीज आई है, पंडित जसराज दुनिया से गए हैं। हालांकि ‘बंदिश बैंडिट्स’ का कोई सीधा संबंध पंडित जसराज से नहीं है। पर भारतीय शास्त्रीय संगीत और उसकी घरानेदारी की आत्मा का धागा जुड़ता है। पंडित जसराज हरियाणा के जिस पीली मंदोरी गांव से निकले, वह उस समय आजादी के बाद दूसरे विभाजन से पहले वाले पजांब में था जो बाद में हरियाणा में आ गया, जिला पहले हिसार था, फिर फतेहाबाद, पर्सनल बात करूं तो यह मेरे ननिहाल का इलाका (डिविजन) है। मेरी पैदाइश और परवरिश उत्तरी राजस्थान के जिस इलाके में हुई, वह पीली मंदोरी से इतना पास था, कि जसराज के ताऊ ज्योतिराम के बेटे, बड़े भाई मनीराम जिन्हें वे अपना गुरू मानते थे, के साथ आया-जाया करते थे। क्योंकि गंगानगर के पास के गांव महियांवाली में मनीरामजी का ससुराल था। गंगानगर के संगीतरसिक सागर शर्मा ने मुझे मनीराम जी से जुड़े कई किस्से सुनाए जो उनके अनुभव के हिस्से हैं, वे इलाके में अस्सी के दशक में उनके कई कार्यक्रम भी आयोजित कर चुके हैं। उन्होंने बताया कि एक बार पंडित मनीराम डेरा लेकर आए, तबलावादक फतेह मोहम्मद उनसे मिलने आए, छोटे गद्दे पर बिठाया, फतेह मोहम्मद बोले, पंडिज्जी ये तो गीला है। तो मनीरामजी ने कहा कि नानकी ने मूत दिया होगा। नानकी या नन्ही यानी बेटी। जो बाद में मनीराम जी के शिष्य आसकरण शर्मा की पत्नी बनीं, आसकरण को ऑल इंडिया रेडियो में नौकरी मनीराम जी की वजह से मिली, वे रेडियो की पहली श्रेणी के कलाकारों की सलेक्शन कमेटी में थे। आसकरण ऑल इडिया रेडियो के डायरेक्टर बने। मनीरामजी के साले जयमल के दोनों बेटे राजस्थान सरकार में ड्राइवर हैं।
जिस दिन पंडित जसराज के पिता मेवाती घराने के गायक पंडित मोतीराम को हैदराबाद के निजाम मीर उस्मान अली खान द्वारा दरबारी संगीतकार का पद मिलने वाला था, उसी दिन उनकी मौत हो गई थी। और फिर जसराज पंडित मनीराम के शागिर्द हो गए। वही मनीराम जिन्हें भारतीय शास्त्रीय संगीत की दुनिया में ‘गमक का जादूगर’ कहा जाता है। यहां यह जानना दिलचस्प हो सकता है कि पंडित जसराज के दूसरे नंबर के भाई प्रताप नारायण की संतानें हैं – मशहूर बॉलीवुड संगीतकार जोड़ी ‘जतिन- ललित’, अभिनेत्रियां सुलक्षणा पंडित और विजेता पंडित।
वापिस सिरीज पर आते हैं, ‘बंदिश बैंडिट्स’ भारतीय शास्त्रीय संगीत परंपरा की घरानेदारी में हमारी दिलचस्पी तो जगाती ही है, उनके उजले- स्याह कोनों से भी मिलवाती है। ‘पंडिज्जी’ यानी पंडित राधेमोहन राठौड़ यानी नसीर का बेटा राजेंद्र कमाल का किरदार है, जो सिरीज के नायक का पिता है, इस किरदार को राजेश तैलंग ने जानदार तरीके से निभाया है, संगीत सम्राट हो जाने की प्रतिभा वाला किरदार जो प्रोफेशनली हारा हुआ है, जिंदगी की कड़वी आर्थिक और दूसरी सच्चाइयों से जूझता हुआ, प्रतिष्ठित पिता की महानता का बोझ ढोता हुआ, ज्येष्ठ पुत्र के रूप में हवेली के आर्थिक भार उठाने की जद्दोजहद में हवेली पर बैंक का लोन उठाकर म्यूजिक स्कूल खोलना चाहता है पर बिल्डर पैसा लेकर भाग जाता है, और वह अब चुकाने में असमर्थ है। मुझे इस किरदार से मुहब्बत हुई, प्रतिभा, अवसाद, दुख का सम्मिलित राग, कभी इसे निभाने वाले अभिनेता राजेश तैलंग मिले तो यकीनन गले लगा लूंगा। उनका सहज अभिनय और आंखों से अभिनय, उफ्फ!
नसीर साहब के अभिनय के लिए क्या कहूं, उनका पुराना प्रशंसक हूं। अजमेर में जब वे पढ़ रहे थे, उनके एक सहपाठी थे चंद्रकांत गोविंद राजुरकर। चंद्रकांत इंदौर के संगीतगुणीजनों के मराठी परिवार से थे, चंद्रकांत राजुरकर के पिता गोविंदराव राजुरकर संगीत के प्रोफेसर रहे, जिनकी शिष्या ग्वालियर घराने की ख्यात गायिका मालिनी राजुरकर है, फिर गोविंदराव जी के ही भतीजे वसंतराव से मालिनी जी का विवाह हुआ। चंद्रकांत राजुरकर इतिहास के प्रोफेसर बने और मुझे राजस्थान विश्वविद्यालय में अध्यापक के रूप में प्राप्त हुए। इस सीरिज में अभिनय करते हुए नसीर साहब को अपने सहपाठी चंदू यानी संगीत परिवार के चंद्रकांत की याद आई ही होगी।
सिरीज के मुख्य पात्रों रित्विक और श्रेया चौधरी का भावनात्मक रसायन सिर चढ़कर बोल रहा है। वहीं, नायक की मां यानी मोहिनी के किरदार में शीबा चढ्ढा अभिनय का स्कूल लगती हैं मुझे। वे बोलती कम हैं, पर कहती ज्यादा हैं। सिरीज में उनके निभाए इस चरित्र पर मुझे पंडित रविशंकर की प्रतिभाशाली पत्नी अन्नपूर्णा देवी के व्यक्तित्व की छाया लगती है। हो सकता है कि वही रेफरेंस भी उन्हें दिया भी गया हो। पंडिज्जी यानी नसीर की पहली पत्नी से पहले बेटे दिग्विजय राठौड़ के रूप में अतुल कुलकर्णी गरिमा, प्रतिभा, आक्रोश, महत्वाकांक्षा जैसे कई आयामों को इस किरदार में निभाते हैं तो उन पर गर्वानुभूति होती है कि ऐसे अभिनेता हमारे समकालीन हैं।
इस संगीत आधारित सिरीज का संगीत शंकर अहसान लॉय ने दिया है, समकालीन संगीतकारों में वे मेरे पसंदीदा संगीतकारों में रहे हैं, और उनमें से शंकर महादेवन की गायकी तो दैवीय वरदान सी ही है। मुझे संदेह था, इस सीरिज की संगीत रचना में इस तिकड़ी ने सच में जादूगरी की है। ये उतना ही महत्वपूर्ण है कि तानसेन पर 1943 में बनी केएल सहगल की फिल्म का संगीत खेमचंद प्रकाश ने दिया था, 1952 में बैजू बावरा बनी तो नौशाद ने। संगीतकार खेमचंद प्रकाश ने फिल्म ‘महल’ में लता मंगेशकर और ‘जिद्दी’ में किशोर कुमार को ब्रेक दिए थे। खेमचंद प्रकाश का जीवन भी दिलचस्प रहा है, सिनेसंगीत विशेषज्ञ ईशमधु तलवार बताते हैं कि उनके जीवन से प्रेरित होकर गुलशन नंदा ने उपन्यास लिखा, उस पर फिल्म बनी जिसमें मुख्य भूमिका राजेश खन्ना ने निभाई। खेमचंद भी राजस्थान के सुजानगढ के थे। वे केवल 41 साल की उम्र में महल की रिलीज से कुछ दिन पहले चल बसे थे जिसे भारतीय सिने इतिहास की मील का पत्थर फिल्म माना गया।
अमेरिकन फिल्म ‘द डोर्स’ (1991) साठ के दशक के इसी नाम के रॉकबैंड की कहानी है, जिसके लीड सिंगर जिम मॉरिसन थे। फिल्म का निर्देशन ऑलिवर स्टोन ने किया था। फिल्म लोकप्रिय गायक की जिंदगी को अनफोल्ड तो करती ही है, ऐसे व्यक्तित्वों के लिए हमारे रूख को ज्यादा मानवीय भी बनाती है।
सिडनी जे फ्यूरी निर्देशित फिल्म ‘द यंग वंस’ (1961) याद करता हूं जिसमें पॉप म्यूजिक से प्रेम करने वाले कुछ युवा एक थिएटर को गिराने के प्रयास को रोकते हैं।
1988 में फिल्म आई– ‘बर्ड’, निर्देशक थे- क्लिंट ईस्टवुड। यह फिल्म जॅज सैक्सोफोन के जादूगर चार्ली पार्कर की बायोपिक है। ड्रग और मानसिक बीमारी से जूझते पार्कर की कहानी पाश्चात्य संगीत की दुनिया से मिलवाती है।
बीबीसी के लिए कैन रसैल ने फिल्म बनाई थी– ‘सॉंग ऑफ समर’ (1968), जिसमें यॉर्कशायर के एक संगीतकार एरिक फेंबी को पता चलता है कि उसके शहर का एक संगीतकार डेलियस अब अंधा हो गया है, आंशिक लकवा हो गया है और वह कम्पोज नहीं कर सकता। एरिक उसके अधूरे कामों को पूरा करने में मदद करता है।
इस संदर्भ में, जिक्र बनता है कि पंजाबी लोक गायक अमर सिंह चमकीला की हत्या खालिस्तान आंदोलन के दिनों में केवल 28 साल की उम्र में कर दी गई थी। दो साल पहले चमकीला पर ‘मेहसामपुर’ नाम से कबीर सिंह चौधरी ने फिल्म बनाई। फिल्म बेहद कीमती है।
यहां यह भी कह देना चाहिए कि हिंदी फिल्मों के प्रसिद्ध संगीतकार रवींद्र जैन हमारे लिए जादू की तरह थे, मेरा मन है कि उन पर बायोपिक बननी चाहिए। उन्होंने मन की आंखों से कैसा संगीत रचा और कुदरत की छटा के बिंबो वाले कैसे सुंदर गीत लिखे।
बंदिश बैडिट्स ने हमें सोचने का अवसर दिया है कि संगीत और साहित्यादि कलाओं की दुनिया का भीतरी सच बाहरी सच और ग्लैमर से बहुत अलहदा है। कष्टों और अभावों के बावजूद कलाओं में जीने का सुख अपरिभाषेय, अनिर्वचनीय है। कलाकारों को मन या काबलियत के मुताबिक नाम मिलना, गरीबी, पार्टनर से अलगाव और उनका नशों की ओर उन्मुख हो जाना यह बाहर से देखने पर जज करने लायक या साधारण लग सकता है पर मानवीय त्रासदी के रूप में उन्हें झेलते, उनसे गुजरते कलाकारों की मनस्थिति को समझना और महसूस करना सामान्य से अधिक बेहतर मनुष्य होने की मांग करता है।