प्रेम इबादत या फ़ितूर, इक दफ़ा सोचिए ज़रूर !

अमेज़ॉन प्राइम पर आई शकुन बत्रा की नई फिल्म ‘गहराइयाँ’ रिश्तों की गहराइयाँ नापती है, उनके ऐसे आयामों को खोलती हैं जो हिंदी सिनेमा प्रायः खोलने में हिचकिचाता है। फ़िल्म के लेखकों ने प्रायः उथले किरदार रचे हैं, किरदारों में गहराई केवल नसीरुद्दीन शाह के किरदार में है, उन्होंने उसे वह रंग भी दिया है जो केवल वही निभा सकते थे।

‘गहराइयाँ’ के कहन ( स्टोरीटेलिंग) में कई स्तर यानी लेयर्स हैं, इस फ़िल्म को हिंदी सिनेमा में कहानी और मूल्यों में परिवर्तन (पैराडाइम शिफ्ट) के लिए याद किया जाएगा, फ़िल्म स्कूलों में पटकथा लेखन के विद्यार्थियों के लिए तो यह सुंदर समकालीन रैफरेंस बनने ही वाली है।

हम जीवन को सांचों में देखते हैं, रिश्तों को भी। जीवन की सबसे खास बात यह है कि सांचे तोड़ता है, रिश्तों के नए रूप-स्वरूप खुलते हैं, हम सांचों में जीते हुए सांचों से इतर कुछ भी देखना-सुनना पसंद नहीं करते, पचा नहीं पाते! जीवन ऐसा सीप है, जिसमें मोती मिल भी सकते हैं, नहीं भी मिल सकते हैं।

याद पड़ता है कि कभी अस्तित्ववादी दार्शनिक अल्बेयर काम्यू ने ऐसा कुछ लिखा था कि जिंदगी अपने आँचल में क्या समेटे हुए है, यह जानने के लिए जीवन को जीना ही पड़ेगा। यही ख़याल ही मुझे ‘गहराइयाँ’ का कथार्सिस लगता है।

मानवविज्ञानी लेवि स्ट्रॉस ने गोत्र छोड़कर विवाह करने की परंपरा पर दिलचस्प बात कही है कि यह विवाह स्त्री-पुरुष के बीच नहीं है, यह एक्सचेंज है, स्त्री को दिया गया है, यह सामाजिक व्यवस्था है। यानी लेवि महोदय का निष्कर्ष हमारी वैवाहिक परम्परा को इंडिविजुअल्स का बॉन्ड मानने से खारिज करता है। उनकी इस बात के कई पहलू हैं, जिन्हें ठंडे दिमाग से सोचा जाना चाहिए। कोई 60 साल पहले आयी उनकी किताब ‘एलिमेंट्री स्ट्रक्चर ऑफ किनशिप’ विचार की दुनिया में ‘फ्राइडे सक्सेस’ की तरह नहीं आयी थी, उसकी अहमियत सर्वकालिक है, आज भी है, रहेगी।

सिबलिंगशिप को कहानियों में कैसे एक्सप्लोर किया जा सकता है, शकुन बतरा इसकी नई रेसिपी ले आते हैं, यह काम उन्होंने कपूर एन्ड संस में भी किया था।

तो शकुन का ताजा शाहकार ‘गहराइयां’ पहली नज़र में दो बहनों की कहानी है जो कजिन्स हैं… उनके जीवन, प्रेम, करियर के बीच जो हिंदी सिनेमा के लिहाज से अनदेखा, अनजाना सा ग्रे ज़ोन खुलता है, भावनाओं की गहराइयों और ऊंचाइयों को ज़ेरेबहस लाता है। लेखकों, निर्देशक के लिए यह आसान नहीं है, साधारण तो कतई नहीं। दिखता साधारण है तो यह कहानी कहने की सुघड़ कला है।

फ़िल्म भारत में प्रेम, शादी, पेरेंटिंग को भी प्रश्नांकित करती है, दरअसल ये किसी भूगोल विशेष के विशेष नहीं, पूरी दुनिया के हैं, नई दुनिया के लिए और भी महत्वपूर्ण है। क्रांतिकारी मन्मथनाथ गुप्त की किताब ‘स्त्री-पुरुष सम्बन्धों का रोमांचकारी इतिहास’ भी इस विषय में आपकी दिलचस्पी और नज़रिए में इजाफा करेगी।

फ़िल्म में दीपिका पादुकोण के किरदार को मुख्य धुरी या प्रटेगनिस्ट माना जा सकता है, जिस तरह के धूसर किरदार में उन्हें सोचा गया है, उसे निभाते हुए वे एक नई दीपिका बनकर उभरती हैं तो अभिनेत्री के रूप में नया पहाड़ फतह करती लगती हैं। सिद्धांत चतुर्वेदी ने दीपिका के किरदार के इस धूसरत्व को वाजिब उड़ान देने में मदद की है, यानी वे फ़िल्म के ज़रूरी कैटलिस्ट बन जाते हैं।

स्त्री-पुरुष सम्बन्धों की रहस्यात्मकता पर बहुत लिखा, कहा गया है, कहा जाता रहेगा। यह अपेक्षाओं, वास्तविकताओं और उनके द्वंद्व का ही सारा विमर्श हैं। मुझे हिंदी में दखल प्रकाशन से छपी एक किताब याद आती है – ‘प्राचीन भारत में मातृसत्ता और यौनिकता’, जिसे नामचीन लेखिका लवली गोस्वामी ने लिखा है। इसमें एक जगह वे लोकप्रिय धारणा के विरुद्ध अपनी एक स्थापना देती है – ‘पुरुष के लिए शारीरिक और मानसिक प्रेम की अवस्थाएं सम्मिलन के बाद एवं पहले एक सी होती हैं, परंतु स्त्री के लिए यह जैव रासायनिक दृष्टि से अलग हो जाती है। धारिणी बनती स्त्री अपनी भूमिका के अनुरूप मानसिकता में परिवर्तन पाती है और इस प्रकार उसकी स्वतंत्रता नष्ट हो जाती है।’ यह उस लोकप्रिय धारणा को सवालिया नज़र से देखता है कि पुरुष सम्मिलन के बाद बदल जाता है, उसका आकर्षण या प्रेम वह नहीं रहता।

हैवलॉक एलिस मेडिकल स्कूलों में पढ़ाए जाने वाले विश्व प्रसिद्ध यौन मनोवैज्ञानिक हैं, दूसरे शब्दों में, उनकी किताब को अपने अनुशासन में बाइबिल का दर्जा हासिल है, वे मानते हैं कि प्रेम प्रायः मानसिक प्रक्रिया है, दैहिक बाद में। मानसिक जुड़ाव या अडोरेशन जब बिखरने लगता है, तो दैहिक जुड़ाव यथानुसार गति को प्राप्त होता है। भावात्मक कोमलता, सहजता, उदारता, परस्पर आदर के भाव को वे ट्रिगर मानते हैं, जो तदनुसार कोमलतम, सुंदरतम प्रेम में रूपांतरित होता है।

मेरी नज़र में प्रेम अंधों का हाथी है, वैसे ‘अंधों का हाथी’ नामक उपमा भारतीय दर्शन की ख्यात उपमा है, मैंने बस इसे प्रेम से जोड़ने की गुस्ताखी की है। यह इसलिए कि प्रेम के रूप में जिसको जो समझ आता है, अच्छा लगता है, जैसी कामना होती है, वैसा प्रेम का रूप मान लेता/ लेती है। ऐसा मान लेने में कोई समस्या या बुराई नहीं है, समस्या तब शुरू होती है, जब अपने सांचे को ही ठीक मानने लगते हैं, बाकी देखने-सुनने-समझने, होने मात्र को ही खारिज करने लगते हैं। यह ठीक वैसी ही समस्या है, जैसी अपने धर्म को अकेला सही मानने में है। प्रेम में कोई कबीर साहब  कह गए थे कि प्रेम की गली संकरी है, जिसमें दो नहीं समाते, पर, दरअसल यह तीसरे की बात है, प्रेम तो दो का भी एक हो जाना है। प्रेम का गणित ही अबूझ है। प्रेम को स्वभाविकता का पुष्प कहें तो संयम – अनुशासन का विरोधाभास कैसे विश्लेषित करें? यह भी एक गुत्थी है। देह पहले या मन? देह पहले नहीं तो पुरुष या स्त्री किसी तीसरे लिंग या लिंग विहीन के प्रति आकर्षित क्यों नहीं होते/ प्रेम क्यों नहीं करते! क्या देह या सेक्स से इतर सामान्य अर्थों का प्रेम सम्भव ही नहीं है? प्रेम के ऐसे ही प्रश्नों पर विज्ञान और मनोविज्ञान इसके लिए कई बार आमने-सामने के युद्ध में खड़े दिखाई देते हैं।

फ़िल्म ‘गहराइयां’ में कौसर मुनीर के लिखे गीत याद रह जाने वाले हैं। उन्हें इत्मीनान से सुनिए। आंखें बंद करके, जेहन खोलकर सुनिए। फ़िल्म के कथार्सिस को गहराई को महसूस करने की कुंजी उन्हीं गीतों में निहित है। हिंदी सिनेमा में स्त्री गीतकार विरले ही होती हैं, ऐसे में कौसर की कलम और संजीदगी को सौ तोपों की सलामी भी कम ही है। व्यक्तिगत तौर पर मैं ‘सुनो ना संगेमरमर की ये मीनारें’ से उनका फैन हो गया था। ये सुखद संयोग रहा कि फिर एक फ़िल्म में हम दोनों सह-गीतकार रहे। पेशेवराना रक़ाबत के बावजूद कहता हूँ कि उनकी फिल्मी शायरी में अलग ही नज़ाकत और ख़याल की गहराइयों से आगे दार्शनिक ऊंचाई मिलती है।

फ़िल्म के स्मॉल टाउन कनेक्शंस को भी देखना बनता है। दो शहर गाहेबगाहे कहानी में आए हैं : जयपुर का जिक्र आया है और नासिक को अपनी तरह से दिखाया भी है। पर दोनों ही छाया भर है। थोड़ा विस्तार होता तो कुछ और आयाम खुलते। इशारे में ही डायरेक्टर अपनी बात कह देना चाहता है, उनका चुनाव है, रचनात्मक व्यक्ति द्वारा इस चुनाव के निर्णय का आदर होना चाहिए।

फ़िल्म आपके दिमाग का दही भी कर सकती है, दही का मक्खन भी बना सकती है, शर्त यही है कि आप अपने दिमाग को नए सांचों, खयालों, जीवन स्थितियों के लिए कितनी इजाज़त देते हैं।

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