लेखक को जादूगर कहिए

नेटफ्लिक्स पर तेलुगू फ़िल्म आई है – ‘श्याम सिंघा रॉय’। पुनर्जन्म की कहानी है। यानी दो टाइम ज़ोन हैं, दो देश ( लोकेल) भी।

एक युवा फ़िल्म निर्देशक बनना चाहता है, शार्ट फ़िल्म बनाता है, जिससे उसे फीचर फ़िल्म बनाने का अवसर मिलता है। फ़िल्म सफल होती है, हिंदी रीमेक की घोषणा होने वाली है, तभी उस पर कॉपीराइट केस कर दिया जाता है कि उसकी लिखी, बनाई फ़िल्म हूबहू नकल है, 50 साल पुरानी कहानी की। निर्देशक सौ फीसदी मौलिक होने का दावा करता है। यही वह सूत्र है कि रहस्य खुलता है कि वह उस लेखक का पुनर्जन्म है। यही कहानी है – ‘श्याम सिंघा रॉय’ की।

अनजाने में निर्देशक ने एक कथार्सिस दिया है जो लेखक के रूप में मुझे पसंद आया कि गुजरे ज़माने के लेखक का वाजिब, तार्किक रूपांतरण अब फ़िल्म निर्देशक ही है।

लेखक महापंडित राहुल सांकृत्यायन

यूँ लेखक की कथा को इतनी रुमानियत से पर्दे पर उतारने का काम निर्देशक राहुल सांकृत्यायन ने किया है। हिंदी जगत के लिए वैसे भी ‘राहुल सांकृत्यायन’ नाम एक बड़े लेखक, इतिहासकार और चिंतक का है, तो यह भी उस कथार्सिस का इतर रूपाकार है, अपने आप में मैटाफ़र है जिसके बारे में शायद उन्हें पता न हो! जिनका हिंदी साहित्य से ज्यादा रिश्ता नहीं है, उन्हें बताना ज़रूरी लग रहा है कि हिंदी लेखक राहुल सांकृत्यायन यात्रा संस्मरण लेखक के रूप में ख्यात तो हैं ही, बीसवीं सदी के भारत के विलक्षण विद्वान थे। मैं उन्हें दिलचस्प किरदार इसलिए मानता हूँ कि मुझे उनके जैसा ऐसा दूसरा किरदार नहीं मिलता जिसने अपने जीवन को बदलाव और प्रश्नों के लिए इतना मुक्त रखा, विरलतम गतिमान व्यक्तित्व! वरना एक हिन्दू सनातनी ब्राह्मण के घर में जन्मा व्यक्ति पहले आर्य समाजी, फिर बौद्ध होने के बाद जीवन के आखिर में समाजवादी और नास्तिक हो जाए! उनके किरदार में निहित अकूत अध्ययन, वृहद लेखन और सतत यात्रा की ऐसी त्रिवेणी मुझे अन्यत्र नहीं मिलती! एक जीवन में इतने विविधतापूर्ण जीवन जीने वाले दुर्लभ जीव थे राहुल जी!  और वे 1963 में दुनिया से चले गये थे, यह भी ठीक वही वक़्त था जब फ़िल्मी किरदार श्याम सिंघा रॉय की सक्रियता की कल्पना गयी है! ऐसे विलक्षण व्यक्तित्व के नामराशि इस तेलुगू फिल्म निर्देशक को अलग और प्यार भरी निगाह से देख रहा हूँ।

जंगा सत्यदेव

फ़िल्म की पटकथा को राहुल सांकृत्यायन ने फ़िल्म की कहानी के लेखक जंगा सत्यदेव के साथ मिलकर लिखा है, तो ‘श्याम सिंघा रॉय’ को इस 54 वर्षीय लेखक का सुंदर सिनेमाई डेब्यू कहा जा सकता है। उनका रचा गया किरदार यानी परदे पर दिखाया गया लेखक नास्तिक है, कलम से समाज बदलना चाहता है, देवदासी प्रथा के खिलाफ खड़ा होता है, चाहे इसका तात्कालिक हेतु प्रेम ही हो! कितना सुंदर किरदार रचा गया है! तेलुगू अभिनेता नानी ने खूबसूरती से निभाया है। लेखक की प्रेमिका देवदासी के रूप में साई पल्लवी को देखना एक जादुई अनुभव से गुजरना है, इस भूमिका के लिए पहले रश्मिका मंदाना निर्देशक की पसंद थी, पर फ़िल्म देखते हुए लगता है कि यह किरदार साई के लिए ही था।

फिल्म की कहानी में निर्देशक की प्रेमिका के रूप में कृति शेट्ठी कम समय पर्दे पर रही हैं, पर वे सुखद उपस्थिति हैं। कहानी में संघर्षशील निर्देशक आंध्रप्रदेश में है, तो फ्लेशबैक में पुनर्जन्म की कथा का लेखक इंटीरियर बंगाल में, चाहे वह आधा तेलुगू मूल का है। राहुल सांकृत्यायन और सत्यदेव ने फ़िल्म की कहानी को सत्यकथा जैसी प्रभावोत्पादकता दी है। मिकी जे. मेयर ने संगीत रचा है, वे फ़िल्म की लय में आपको थिरकने के लिए, हंसने-रोने, गुस्सा करने के प्रभाव समुचित रूप से रचते हैं। हिंदी और खासकर दक्षिण भारतीय सिनेमा के जाने-माने डीओपी सानू जॉन वर्गीज फ़िल्म के सिनेमैटोग्राफर है। उन्होंने दृश्यों को भावभूमि से संयोजित करते हुए नयनाभिराम दृश्यावली रच दी है।

पुनर्जन्म को विज्ञान तो लगभग नहीं ही मानता है, मनोविज्ञान और धर्म इसे मानते हैं, दर्शनशास्त्र के कुछ गलियारों में इसे गाहेबगाहे स्वीकार किया जाता है। भारत में जनमानस में तर्कातीत पुनर्जन्म में विश्वास की जड़ें मिलती हैं, अक्सर लोग कहते हैं – ‘मानो या न मानो, पुनर्जन्म तो होता ही है’ और फिर व्यक्ति अपने आसपास या सुना-सुनाया किस्सा सुनाने लगते हैं। यूँ पश्चिम में इस विषय में लोगों ने शोध किये हैं जिनमें इयान स्टीवेंसन का नाम प्रमुख है जिन्होंने 5 हज़ार केस स्टडीज की हैं, उनमें 1935 का शांति देवी उर्फ लुगदी देवी केस भी है, जिसमें पुनर्जन्म होने की बात का समर्थन महात्मा गांधी ने भी किया था, इस प्रसंग को ‘श्याम सिंघा रॉय’ में मुकदमे में भी संदर्भ बनाया गया है। मेरी सलाह है कि इसकी बुनियादी तफसीलों के लिए आप गूगल कर लीजिए!

पश्चिम में पुनर्जन्म को लेकर एक अमेरिकन किताब ‘मैनी लाइव्ज, मैनी मास्टर्स‘ (1988) बहुत  पढ़ी जाने वाली किताब है। इसके लेखक हैं – ब्रियान वैस (उच्चारण कुछ और भी हो सकता है)। जो एक साइकोथेरेपिस्ट डॉक्टर के रूप में अपनी महिला मरीज के पास्ट लाइफ अनुभवों पर आधारित है। किताब उस महिला के कई जन्मों की कथा सम्मोहन विधि से उद्घाटित होने का दावा करती है।

आपका पुनर्जन्म में विश्वास हो या न हो, फ़िल्म में हुनर है कि यह आपको बहा ले जाती है अपने साथ। पिछली सदी में 60-70 के दशक के कोलकाता की गलियों में अपने समय की गूंज कहानी में सुनाई ही नहीं, दिखाई भी देती है। उस समय के रूढ़िवादी बड़े भाई के रूप में बंगाली अभिनेता जिशु सेनगुप्ता को देखना मेरे लिए तो अतिरिक्त सुखकारी था ही, कहानी को विशिष्ट प्रामाणिकता भी देता है। संवादों में थोड़ी और ज्यादा बंगालियत होती तो प्रामाणिकता की मिठास का आस्वाद बढ़ जाता! शायद ज्यादा बंगाली संवादों से परहेज़ इसलिए रखा गया हो कि निर्देशक ने अपना टार्गेट दर्शक वर्ग केवल तेलुगू ही रखा हो!

बंगाली सिनेमा में कुछ समय पहले फ़िल्म आयी थी – ‘एक जे छीलो राजा’, वह पुनर्जन्म की एक सत्य घटना पर आधारित थी, और दूसरी बार इस विषय पर बांग्ला में फ़िल्म बनी है। श्रीजित मुखर्जी ने यह फ़िल्म बनाई है, बंगाली परिवेश में पुनर्जन्म की कथा आपको आकर्षित करती है तो इसे भी देख लीजिए।

लेखक अपनी कहानियों को मृत्यु होने पर भी अपने साथ अगले जन्म में ले जाता है, यह फ़िल्म तो कम से कम स्थापित कर ही देती है, आपको यक़ीन आए, या न आए!

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