अमेजोन पर हाल ही आई वेबसिरीज ‘पाताललोक’ दिल्ली में घटित होती है, दिल्ली को दिल वालों का शहर कहा जाता है, और लुटियंस की दिल्ली को दर्प और सत्ता की क्रूरता का शहर, पुरानी दिल्ली हमारी मुहब्बत भरी हिंदुस्तानी रवायतों का शहर तो निजामुद्दीन सूफियाना सुकून का शहर। अहमदशाह अब्दाली से लेकर, निकट अतीत में दिल्ली चौरासी में सिखों पर कत्लोगारद का भी शहर है… आइए, ‘पाताललोक’ के संदर्भ में दिल्ली को इस तरह से भी देखें…
दिल्ली शहर से ज्यादा एक मुहावरा है, यूं दिल्ली वो शहर है कि उसमें कई शहर हैं, कई राजे-महाराजे-सुल्तान-बादशाह आए और उन्होंने दिल्ली में कई शहर बसाए। दिल्ली कई बार पूरी तरह से भी उजड़ी और कई बार नए सिरे से बसी है। शायद आखिरी बसावट विभाजन के बाद पाकिस्तान से आए रिफ्यूजियों की होगी। इस शहर की तासीर में है कि दिल्ली का वजूद पूरी तरह कोई खत्म नहीं कर पाया, गोया दिल्ली कोई शहर ना हो, एक फिनिक्स हो। दिल्ली शायरों, अदीबों की भी रही है, निजामुद्दीन औलिया जैसे सूफियों- फकीरों की भी। कहते हैं कि दिल्ली के लिए मीर तकी मीर ने कहा था-
‘दिल्ली जो एक शहर था आलम में इंतिख़ाब,
रहते थे मुंतख़ब ही जहाँ रोज़गार के।
उस को फ़लक ने लूट के बरबाद कर दिया
हम रहने वाले हैं उसी उजड़े दयार के।’
हम इस तरह से दिल्ली की बात अमेजोन पर हाल ही आई वेबसिरीज ‘पाताललोक’ के हवाले से कर रहे हैं। इसमें जयदीप अहलावत की मुख्य भूमिका है, जैसे यह उनको ध्यान में रखकर ही सोची गई हो। कहानी खुलते ही दिल्ली के लिए हिंदू मायथोलोजी से तीन लोक के मैटाफर का इस्तेमाल किया गया है, स्वर्गलोक, पृथ्वीलोक और पाताललोक। पाताललोक यानी कीड़ों मकोड़ों का लोक, अपराधियों का लोक। उसी पाताललोक के लिए तैनात हैं पुलिस इंस्पेक्टर हाथीराम चौधरी यानी जयदीप अहलावत। जयदीप ने अपने अभिनय से खुद के लिए भी वह मार्क बना दिया है जिसे दुबारा छूना और उससे ऊपर जाना खुद उनके लिए ही आसान नहीं होगा। इस सिरीज के निर्देशक हैं- अविनाश अरूण और प्रोसित रॉय। अमेजोन के लिए इसे अनुष्का शर्मा की कंपनी क्लीन स्लेट ने बनाया है। प्रोड्यूसर के रूप में उनका कंटेट चयन वाकई असरदार है, हटकर है।
कुछ समय पहले आई ‘दिल्ली क्राइम’ नामक वेबसिरीज शैफाली शाह की मुख्य भूमिका के साथ दिल्ली को उघाड़ रही थी, शैफाली ने इसमें क्या ही कमाल का अभिनय किया है। पाताललोक उसे आगे ले जाती है।
9 एपिसोड के पाताललोक को नीरज कबी के लिए भी देखा जाना चाहिए और उनकी पत्नी की भूमिका में स्वास्तिका मुखर्जी के लिए भी। नीरज कबी का किरदार और उसके आसपास की दुनिया समकालीन टीवी पत्रकारिता को बड़े प्रामाणिक ढंग से पर्दे पर लाते हैं। नीरज की सहायक के रूप में निहारिका दत्त का छोटा सा रोल यादगार है। यहां दिल्ली के ही बेक्ड्रॉप में, पत्रकारिता के ही संदर्भ में 1986 की फिल्म ‘न्यू दिल्ली टाइम्स‘ को याद किया जाना चाहिए। पर ये वो जमाना था जब कहानी ब्लैक एंड वाइट में ही अपनी बात कहती थी, ग्रे में नहीं। शशिकपूर, शर्मिला टैगोर, ओमपुरी की मुख्य भूमिकाओं वाली यह फिल्म राजनीतिक भ्रष्टाचार की बात करती है। फिल्म का निर्देशन रमेश शर्मा ने किया था, यह उनकी निर्देशक के तौर पर पहली फिल्म थी, फिल्म का लेखन गुलजार साहब ने किया था। फिल्म को तीन नैशनल अवॉर्ड मिले थे।
‘पाताल लोक’ को दिल्ली की भाषा के लिए भी देखना चाहिए। जैसे कहानी में शहर या जगह खुद एक किरदार होता है, हालांकि इसे हमारे यहां फिल्म बनाने वालों या लिखने वालों की ओर से कभी-कभी ही किरदार की तरह देखा जाता है, वैसे ही कहानी में पात्रों के मुंह से निकलती भाषा भी मुकम्मल किरदार होती है। पाताललोक इस लिहाज से दिल्ली की समकालीन भाषा का कतई सही सिनेमाई रूपांतरण है। अकारण तो नहीं ही है कि अनुराग कश्यप ने इस सिरीज को भारत की अब तक की सबसे अच्छी क्राइम सिरीज कहा है। भारत में क्राइम जॉनर की कल्ट फिल्म ‘सत्या‘ लिखने वाले अनुराग जब ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर‘ बनाते हैं, तो बड़ी लाइन खींच देते हैं। इसलिए पाताललोक पर उनकी बात को रिलायबल टैस्टिमोनियल की तरह लिया जाना बनता है।
दिल्ली के करप्शन की बात की जाए और उदय प्रकाश की कहानी ‘दिल्ली की दीवार’ याद ना आए, ऐसा हो नहीं सकता, जिस पर मराठी में अमोल गोले ने ‘नशीबवान’ नाम से फिल्म बनाई है। वह भी एक तरह से दिल्ली के पाताललोक का ही किस्सा है। दिल्ली की दीवार का ट्रिगर यह है कि एक सफाई कर्मचारी की झाड़ू जब खुल जाती है, फिर से बांधकर उसे मजबूती देने के लिए सब-वे की दीवार पर ठोकता है, दीवार से वह हिस्सा टूट जाता है, अंदर एक सुरंग है जिसमें दिल्ली के राजनीतिक भ्रष्टाचार का अकूत काला धन है। इस कहानी की हल्की सी छायात्मक प्रेरणा मुझे अनुराग कश्यप की हाल ही आई सुंदर फिल्म ‘चोक्ड’ में दिखाई दी थी।
बकौल गुलजार साहब, जिस दिल्ली के ‘बल्लीमारां की पोशीदा सी गलियों में’ मिर्जा गालिब पैदा हुए, इतिहास में झांकने पर, मुगलों तक छोटे-छोटे अंतरालों के बावजूद उस दिल्ली का वैभव एक राजनीतिक केंद्र के रूप में बना रहा, अंग्रेजों के काल में कलकत्ता देश की राजनीतिक राजधानी हो गया, फिर 1911 से कलकत्ते से राजधानी वापिस दिल्ली आ गई, हालांकि कल्चरल कैपिटल का रूतबा कलकत्ते यानी आधुनिक कोलकाता के नाम ही रहा। दिल्ली को दिलवालों का शहर कहा जाता है, और लुटियंस की दिल्ली को दर्प और सत्ता की क्रूरता का शहर, पुरानी दिल्ली हमारी मुहब्बत भरी हिंदुस्तानी रवायतों का शहर तो निजामुद्दीन सूफियाना सुकून का शहर। निकट अतीत में दिल्ली चौरासी में सिखों पर कत्लोगारद का भी शहर है।
फिर भी हमें आखिरकार शहरों को इनसानों की बस्तियों की तरह ही लेना सीखना होगा, ईंट पत्थर की इमारतों और सड़कों का नहीं। और जब मुहब्बतें पूरी दुनिया में, पूरी इंसानियत के लिए बेहद जरूरी हो चली हैं, पेश्तर तो इनसानों से हो, इनसानों के बहाने से शहरों से हों। नफरतें हर तरह से गैरजरूरी है, चाहे इनसानों की वजह से शहरों से ही क्यों ना हो। हां, ये हो सकता है कि किसी घटना, किसी एक शख्स या समूह की बेजा हरकतों की वजह से अगर कोई शहर हमें कम प्यारा या नफरत करने लायक लगने लगे तो हम उस शहर की गैरइनसानी चीजों इमारतों, मौसम और हवा में मोहब्बत ढूंढने और करने लग जाएं।
आखिर में फिर मीर साहब को ही याद करें-
‘दिल्ली में आज भीक भी मिलती नहीं उन्हें
था कल तलक दिमाग़ जिन्हें ताज-ओ-तख़्त का।‘