70 के दशक में कोई स्त्री अपने युवा होते बच्चों के साथ दिल्ली के रेलवे स्टेशन पर उतरे और वीआईपी प्रतीक्षालय में रहने लगे कि इंदिरा से मिलना है, खुद को अवध के आखिरी नवाब वाजिद अली शाह की पड़पोती बताकर अपनी जायदाद का हक़ मांगे। यही कहानी का धागा है एम एक्स प्लेयर पर हाल ही आयी फ़िल्म ‘एट डाउन तूफान मेल’ का।
फ़िल्म का मार्मिक दृश्य है – अवध की ‘हर हाइनेस’ औऱ लाहौर की सरदारनी का मिलना। साझा दुख। दो स्त्रियाँ। दोनों की आंखों में दर्द की कई लकीरें। उफ़्फ़। क्या ही रच दिया है।
लाहौर के बारादरी वाले घर को याद करती स्टेशन मास्टर गुरप्रीत की बेबे…और अवध की ‘हर हाइनेस’ का यह कंट्रास्ट एक बिम्ब है, इतिहास की करवटों, बदलती सियासत के मानवीय पहलुओं का। दो अलग वर्गों की स्त्रियों की आवाज़ का पेस और टीस एक स्त्री निर्देशक ने जैसे सिनेमा के कैनवस पर उतारा है, स्त्रीत्व का भी मानचित्र बन गया है।
कुछ संवाद जेहन में चिपककर साथ रह जाते हैं, जैसे जब हड़ताली रेलकर्मी ‘हर हाइनेस’ को पाकिस्तान से मदद मांगने की सलाह देता है तो आलम आरा के जवाब ‘अवध तो यहीं है’ से एक समूची सियासत का प्रतिकार जैसे एक श्लोक में समेटकर काल के भाल पर टांक देती है फ़िल्म।
इसी तरह ‘हर हाइनेस’ आलम आरा के ही कथन ‘हमारे परदादा नवाब वाजिद अली शाह ग़ालिब को पेंशन देते थे’ में क्या ही नॉस्टेल्जिया, गौरव का गान गूंजता है जो अब केवल इतिहास में है, पर स्मृति में ऐसे है कि जीवन पर भारी है।
फ़िल्म के एक दृश्य में रेडियो पर ‘ रब्बी शेरगिल का नया गाना” की उद्घोषणा के साथ जादुई यथार्थ की तरह बजता है, उनका संगीत और आवाज़ फ़िल्म की रूह के वाजिब, पुरसुकून संदेशवाहक बन गए हैं।
मार्मिक दृश्य यह भी है कि ‘हर हाइनेस’ ने स्टेशन के प्रतीक्षालय में डेरा जमा लिया है तो स्टेशन मास्टर गुरप्रीत अपनी नौकरी के लिए चिंतित है, इस चिंता पर ‘हर हाइनेस’ कहती हैं कि नौकरी न रहे तो हमारे पास आ जाइएगा, कोई न कोई काम दे दिया जाएगा। तो गुरप्रीत का यह कहना कि दो दिन पहले राशन के लिए पैसे तो आपने मुझसे लिए हैं। सुनकर ‘हर हाइनेस’ निःशब्द आगे बढ़ जाती है, चेहरा भाव बता देता है। ध्वस्त राजतंत्र और उभरते/ प्रतिस्थापित लोकरांत्र का भेद, अर्थ और प्रभाव उस मौन में मुखर हो जाते हैं। राजतंत्र के उत्तराधिकारियों के मानवीय पक्ष और जीवन द्वंद्व का धूसर सुंदर कोलाज बन जाती है फ़िल्म।
जॉर्ज फर्नांडिस के नेतृत्व में रेल की हड़ताल फ़िल्म के समय को प्रामाणिकता देने का उपक्रम है।
आलम आरा महल के किरदार में अभिनेत्री आकृति सिंह की आंखों में बहती पीड़ा की नदी में दुनिया के मानचित्र से खोया हुआ अवध चांद की परछाई सा झिलमिलाता है। कैसे यह किरदार अपने वजूद में सांस्कृतिक विरासत तो सहेजे हुए है, पर अंग्रेजों द्वारा छीनी हुई भौतिक विरासत को हासिल करने और सहेजने की ज़िद, दोनों को सजीव करने में आकृति सिंह की ही निर्देशकीय भूमिका भी महत्त्वपूर्ण है, यह इस फ़िल्म को याद रखने की एक मुकम्मल वजह हो सकती है।
‘आप भी तो नेहरू की विरासत संभाल रही हैं’ जब आलम आरा इंदिरा गांधी से फोन पर कहती है तो कितना धीमे -धीमे एक राजनीतिक कमेंट कर दिया गया है, सोचिए तो ज़रा! इसके अर्थ, पक्ष वाकई संगीन हैं।
‘ये न होता तो कोई और ग़म होता’… जब फ़िल्म में गुरप्रीत यह कहते हैं, उफ़्फ़! क्या ही अदायगी है। इसी तरह ग़ालिब को लेकर 10 किलोमीटर और सौ साल की दूरी को महसूसने का साहसपूर्ण कोमल सौंदर्य किसी-किसी को नसीब होता है।
बंटवारे के रिफ्यूजियों के कैम्प के टैंट में स्टेशन मास्टर गुरप्रीत की बेबे द्वारा खींची गयी लकीरें जब बेटे द्वारा प्लेटफॉर्म पर अनायास पड़े मिले चॉक से लकीरें खींचकर लाहौर की हवेली को याद करने तक पहुंचती हैं, कथा का एक चक्र पूर्णाहुति को प्राप्त होता है।
सात राजधानियों के शहर में एक ‘हर हाइनेस’ अपनी राजधानी के हक़ को जताने और हासिल करने आई है, राजसी दर्प, गरिमा और विशिष्टता बोध उसके किरदार में जीवंत है।
कट टू : फैक्ट एंड रिएलिटी
विदेशी अखबारी की रपटें बताती हैं कि दिल्ली के बीच कहीं घने जंगलों में अवध की उस ‘हर हाइनेस’ ( सत्तर के दशक में स्टेशन के वेटिंग रूम में रहकर अवध की विरासत मांगने वाली विलायत) की संतानें राजकुमार अली रज़ा उर्फ सायरस और राजकुमारी सकीना असामाजिक होकर रह रहे थे, ये लोग केवल विदेशी पत्रकारों से कभी-कभी मिलते थे, आखिरी रिपोर्ट 2016 की मिली, जो न्यू यॉर्क टाइम्स के लिए एलन बेरी ने लिखी : ‘द जंगल प्रिंस ऑफ डेल्ही’। रिपोर्ट्स बताती हैं कि ‘हर हाइनेस’ स्टेशन मास्टर द्वारा नाफरमानी किये जाने पर सांप का जहर खाकर आत्महत्या कर लेने की धमकी देती थीं। पूरा प्रोटोकॉल रखती थीं। केवल ढलते चांद के वक़्त फ़ोटो खिंचवाती थीं। नेपाली सेवक घुटनों के बल झुककर उन तक आकर अपनी बात कहता था, वे अपने कपड़ों में एक पिस्टल भी छुपाकर रखती थीं।
उत्तर प्रदेश और दिल्ली की सरकारों को यह डर होना कि अवध की जनता को न पता चले कि उनकी ‘हर हाइनेस’ के साथ दिल्ली में कितना बुरा सुलूक हो रहा है, खोए अवध का मर्सिया और वाजिद अली शाह के लिए शहर के प्रेमगीत का करुण छंद है। यूपी सरकार की तरफ से प्रतिनिधि अम्नार रिज़वी को दस हज़ार रुपए देकर भेजा गया कि ‘हर हाइनेस’ लखनऊ में घर बना लें। पर ‘हर हाइनेस’ ने ठुकरा दिया और उस लिफाफे के पुर्जे हवा में उड़ा दिए, फिर रिज़वी साहब सरकार की तरफ से चार बैडरूम के घर की पेशकश भी लाए। ‘ हर हाइनेस’ केवल विदेशी पत्रकारों से इसलिए मिलती थी कि दुनिया जाने कि अवध के आखिरी नवाब साहब के वारिसों से क्या सुलूक किया जा रहा है। आखिरकार स्टेशन पर 10 साल गुजर गए, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उनकी सुनी और, पुराने शिकार लाउंज जो मालचा महल के नाम से जाना जाता था, ‘हर हाइनेस’ और उनकी संतानों के लिए देने की व्यवस्था कर दी। फिर विलायत को कभी पब्लिक में नहीं देखा गया। कहा जाता है कि हीरे- मोती पीसकर उनके ज़हर से आत्महत्या कर ली।
एलन बेरी ने दिल्ली, लखनऊ और कलकत्ते जहां आखिरी नवाब की मौत हुई, की यात्राएं की, पूछताछ की, लखनऊ में ‘हर हाइनेस’ और उनके बच्चों को घर से निकाल दिया गया था, कलकत्ते में नवाब के वारिसों ने विलायत उर्फ आलम आरा के दावों को खारिज किया, राजकुमार सायरस ने कभी इन सवालों का जवाब नहीं दिया कि उनके पिता कौन थे, उसका जन्म कहाँ हुआ था? राजकुमारी सकीना ने भी बात नहीं की, पर अपनी लिखी अप्रकाशित एक किताब एलन को दी, जो लगभग अपठनीय हस्तलिपि में थी। किताब का मकसद अपने जीवन को डॉक्यूमेंट करना था।
एलन बताती हैं कि एक दिन सायरस का फोन आया कि 7 महीने पहले सकीना की मौत हो गई, उसे मैंने खुद दफना दिया। सायरस ने एक बंदूक और गर्लफ्रेंड का इंतज़ाम करने को कहा, जो मैंने नहीं किए। और फिर एक दिन एलन को फेसबुक मैसेंजर पर अपने एक मित्र से सायरस के निधन की खबर मिली। निर्जल जंगल में असामाजिक रूप से रहते हुए, नितांत अकेलेपन में यह मौत भी एक मैटाफ़र है जिसके कई अर्थ खुल सकते हैं।
सायरस की मौत के बाद महल में मिले कागज़ात में दिलचस्प था कि इंग्लैंड के उत्तरी औद्योगिक इलाके से हाफ ब्रदर वेस्टर्न यूनियन मनी ट्रांसफर से परिवार को गुजारे के पैसे भेजता था, उसके कुछ खत भी मिले जो इस आर्थिक भार से चिंता के भी थे, और सलाह के भी कि मेरे मरने के बाद आप लोग कैसे जिएंगे, आप लोगों को कोई आर्थिक व्यवस्था करनी चाहिए। ब्रेडफर्ड, यॉर्कशायर के शाहिद जे हस्ताक्षर वाले ये ख़त दास्तान को रहस्यमयी बना देते हैं।
एलन इस रहस्य के आखिरी सिरे तक पहुंचकर दम लेती है कि विलायत का सम्बन्ध अवध के राजपरिवार से नहीं था, उसके पति लखनऊ यूनिवर्सिटी के रजिस्ट्रार रह चुके थे।
बैक टू द फ़िल्म
“हाय लखनऊ… ” बिना लखनऊ दिखाए फ़िल्म दर्शक के मन में स्थापित कर देती है कि पूछिए ही मत।
‘मेरे अवध को याद रखा जाए’… आलम आरा महल उर्फ विलायत के मुंह से कहलाती हुई फ़िल्म आज़ादी के बाद आए लोकतंत्र में इतिहास की विषय वस्तु बन गए राजे-रजवाड़ों के परिवारों के मानसिक-आर्थिक-सामाजिक हालात की बोन्साई है।
गुरप्रीत के किरदार में अभिनेता सूर्य राव पसंद आते हैं, याद रह जाते हैं।
कुल मिलाकर कहानी एक मेटाफर तो है ही, सस्पेंशन ऑफ द सस्पेंशन ऑफ डिस्बिलीफ़ भी है। एक कलाकृति के रूप में यही इसे मूल्यवान बनाता है। ‘वक़्त नवाबियत बख्शेगा’… की उम्मीद इस दास्तान का एक सतत बहता दरिया है, सतह के नीचे भी, ऊपर भी।