हाल ही अमेज़ॉन प्राइम पर आई निर्देशक डेरियस मारदेर की फ़िल्म ‘साउंड ऑफ मेटल’ सुने जाने की अहमियत बताती है, एक दिन अचानक सुने जाने की क्षमता का चले जाना फ़िल्म का वह मैटाफ़र है जो आपको भीतर तक हिला देता है…
सुना जाना समझे जाने की पहली सीढ़ी है। कई बार हम कोई मदद नहीं चाहते, बस सुना जाना चाहते हैं। सुने जाने को हमने प्राथमिकता देना छोड़ दिया है, कहने के लिए लालायित रहते हैं, कहने देने के लिए लड़ते-झगड़ते रहते हैं, सुने जाने के लिए कुछ नहीं कर पाते। सुनना दैहिक ही नहीं, भावनात्मक क्रिया भी है। विज्ञान कहता है कि सृष्टि की सब ध्वनियां सब प्राणियों को नहीं सुनाई देती हैं, यानी ध्वनि-श्रवण शक्ति सबको एक समान नहीं दी गई है। मनुष्य यानी वर्टीब्रेट्स इस मामले में ज्यादा खुशकिस्मत हैं।
हाल ही अमेज़ॉन प्राइम पर आई निर्देशक डेरियस मारदेर की फ़िल्म ‘साउंड ऑफ मेटल’ सुने जाने की अहमियत बताती है, एक दिन अचानक सुने जाने की क्षमता का चले जाना फ़िल्म का वह मैटाफ़र है जो आपको भीतर तक हिला देता है, फ़िल्म में शुरू से आखिर तक मौन बोलता है, वह साफ-साफ सुनाई देता है। मनुष्य जीवन में सुने जाने से ही कहे जाने की अस्मिता है, सौंदर्य है। और महसूस करेंगे कि इस एस्थेटिक्स से दुनिया यकीनन खूबसूरत बनती है।
इस फ़िल्म में संगीत बैंड के ड्रमर रुबेन की मुख्य भूमिका निभाने वाले रिज़ अहमद के पिता पाकिस्तान से लंदन जाकर बस गए थे, रिज़ का जन्म लंदन में ही हुआ। उनके चेहरे का हिंदुस्तानीपन महसूस होता है जो कनेक्ट करता है। रुबेन की एक प्रेमिका लू (ब्रिटिश अभिनेत्री ओलिविया कुक) है जो संगीत बैंड की लीड सिंगर है, दोनों एक वाहन घर में रहते हैं, शोज करते हैं, संगीत रचते हैं।
एक दिन रुबेन को सुनने में कमी का अहसास होता है, दोनों का ही जीवन बदल जाता है, सुनने की क्षमता वापिस हासिल करने के लिए महंगे ऑपरेशन की जद्दोजहद, साइन लेंग्वेज सीखने की कोशिश करते नायक की बेचारगी, फ्रस्ट्रेशन और गुस्से को रिज़ ने मूर्त कर दिया है। कल्पना कीजिए कि कह तो पाए पर सुन नहीं पाएं, या सुन पाएं पर कह ना पाएं दोनों ही स्थितियां कितनी विकट हो सकती हैं। तो इसमें क्या कोई हैरानी की बात है कि रिज इस भूमिका के लिए ऑस्कर में बेस्ट एक्टर के लिए नॉमिनेट होने वाले पहले मुस्लिम बने हैं। पर्सनल लाइफ में उन्होंने भारतीय मूल के माता-पिता की संतान, अमेरिकन उपन्यासकार फ़ातिमा फरहीन मिर्ज़ा से शादी की है। फ़ातिमा का पहला उपन्यास ‘ए प्लेस फ़ॉर अस’ नॉर्थ कैलिफॉर्निया में रहने वाले भारतीय मुस्लिम परिवार की कहानी कहता है, जो परम्परा और आधुनिकता के द्वंद्व से उलझता है।
रुबेन के साइन लेंग्वेज इंस्ट्रक्टर जो के रूप में अमरीकी अभिनेता पॉल रेकी ने कमाल काम किया है, उनके अभिनय की बहुत प्रशंसा हो रही है। वियतनाम युद्ध में श्रवण क्षमता खोकर बहरों के बेहतर जीवन के लिए काम करते हुए उनकी भूमिका फ़िल्म को बड़ी ऊंचाई देती है।
इस पात्र को रचने में श्रवण बाधित संगीत के जीनियस बीथोवन में निर्देशक के दिमाग में रहे होंगे। कहते हैं कि इतिहास में इस जर्मन पियानिस्ट से ज्यादा जीनियस संगीतकार नहीं हुआ। बीथोवन केवल 26 साल की उम्र में अपनी श्रवण क्षमता खोने लगे थे, और 52 के होते-होते पूरी तरह बहरे हो चुके थे। उनके जीवन पर ‘बीथोवन’ज ग्रेट लव’ नाम से 1937 में एक फिल्म बनी, इस नजर से उस फिल्म को देखा जाना चाहिए। बीथोवन ही नहीं, दुनिया को इलैक्ट्रिक बल्ब जैसा चमत्कारी आविष्कार देने वाले वैज्ञानिक थॉमस एडिसन की श्रवण क्षमता किशोर होते-होते जा चुकी थी। उन्होंने फोटोग्राफ का वह रूप भी बनाया जो बाद में मोशन पिक्चर या सिनेमा का आधार बना।
कहना ज़रूरी है कि श्रवण वंचितों के संसार से फ़िल्म जिस तरह से मिलवाती है, संवेदना के नए आयाम खोलती हैं। मनुष्य की पांच ज्ञानेंद्रियों में से श्रवण की यह दृश्यात्मक कथा विशेष बन जाती है। जब गुलजार साहब लिखते हैं हमने देखी है उन आंखों की महकती खुशबू तो एक ज्ञानेंद्रिय का काम दूसरे ज्ञानेंद्रिय से लिया जा रहा है। क्या ऐसा कानों के लिए भी संभव है, शायद। भारतीय दर्शन भी इसे मानता है, जब ज्ञान मीमांसा में बार-बार संज्ञान से एक बोध बनता है तो एक ज्ञानेंद्रिय के ज्ञान का बोध दूसरी ज्ञानेंद्रिय से संभव हो जाता है।
यहां 2014 की एक फ्रेंच फिल्म का जिक्र भी बनता है- ‘ला फेमिली बेलिएर’, जिसमें श्रवणबाधित माता-पिता की सामान्य लड़की को पता चलता है कि उसमें गायन की असाधारण प्रतिभा है। संभव हो तो इसे ढूंढकर देखिएगा। संजीव कुमार, जया भादुड़ी की गुलजार निर्देशित फिल्म ‘कोशिश’ तो आपको याद ही होगी।
सुने जाने और न सुने जाने को लेकर हजारों चुटकुले प्रचलित हैं। उनका अधिकांश पति-पत्नी के इर्दगिर्द है। पर सुनाए जाने से ज्यादा सुने जाने की अहमियत तो हर जुड़ाव में रहती है। और न सुने जाने के साथ हम दुखी भी होते हैं पर सामने वाले के साथ तब भी मानवीय होकर पेश होने की दरकार रहेगी, वह भी एक प्रकार का सुनना है। सुनने का एक मनोविज्ञान यह भी है कि अकसर हम दूसरे का पक्ष बिना सुने, और फिर बिना जाने, समझे ही गुस्सा कर जाते हैं। अपेक्षा और उपेक्षा भी सुने जाने के ही पहलू हैं जिनसे हमारी मानसिक शांति प्रभावित होती है। सुनना और सुना जाना आपको उदार बनाता है, न सुनना उत्तरोत्तर आपको क्रूर और अमानवीय, आत्मकेंद्रित बनाता जाता है जो पूरे परिवेश को कोमलता और जीवन जीने की सुंदर स्थितियों से वंचित करता है, दूर ले जाता है।
दिलचस्प बात है कि निर्देशक डेरियस मारदेर की दादी ने पेंक्रियाटिस के लिए एंटीबायोटिक लेने की वजह से, इसी तरह अचानक एक दिन सुनना खो दिया था। वह पर्सनल ट्रिगर ज़रूर उनके लिए इस फ़िल्म की प्रेरणा बना होगा।
यह फिल्म यह सवाल भी हमारे जेहन में पैदा करती है कि जन्म से श्रवणबाधित मनुष्यों के भीतर का मौन अगर डिकोड किया जा सके, हम क्या किसी और अनुभव संसार में नहीं पहुंच जाएंगे?
अगर ऊर्जा सरंक्षण के नियम को एक खास तरह से नया रूप दें, या क्रिया की समान प्रतिक्रिया के नियम को देखें तो सुना जाना आपको सुने जाने की पूर्वस्थिति है। सरलतम शब्दों में इसे कहें तो, आप सुनेंगे तो कोई न कोई आपको सुनेगा। समझा जाना हर मनुष्य की सार्वभौमिक, सर्वकालिक कामना है, समझा जाना सुने जाने पर निर्भर करता है। सुने जाने को मनुष्य का मौलिक अधिकार बनाए जाने की मांग मानवाधिकार संगठनों को करनी चाहिए। इससे हम बेहतर मनुष्य होंगे, और यह निश्चित रूप से पूरी मानवता के हित में होगा।