कहीं एक मासूम नाज़ुक सी लड़की

‘रेबेका’ नामक फ़िल्म नेटफ्लिक्स पर हाल ही रिलीज हुई है। गोथिक जॉनर की फ़िल्म है यानी हॉरर – रोमांस के अलावा पीरियड ड्रामा देखने के शौकीनों के लिए भी इसे देखना ट्रीट होगा…

नेटफ्लिक्स पर हाल ही रिलीज हुई, बेन विटले निर्देशित ब्रिटिश फ़िल्म ‘रेबेका‘ दरअसल हिचकॉक की इसी नाम की फ़िल्म का रीमेक है, और ये दोनों फिल्में  डी डी मौरियर के 1938 में छपे उपन्यास का अडाप्शन हैं। उपन्यास बहुत मशहूर हुआ, कहते हैं कि आज तक कभी आउट ऑफ प्रिंट नहीं हुआ। हिचकॉक ने 1940 में ही ये फ़िल्म बना दी थी, जिसे बेस्ट पिक्चर का अकेडमी अवॉर्ड यानी ऑस्कर मिला था।

इससे पहले उपन्यास लेखक ने इस पर खुद नाटक भी लिखा था। उपन्यास व्यवसायिक मानदंडों पर इतना सफल कि ऐसी सफलता की कामना प्रकाशक और लेखक करते हैं, पर सबको मिलती नहीं; जिस सफलता की कोई अचूक-अमोघ रेसिपी आज तक किसी कमीशनिंग एडिटर, प्रकाशक, लेखक या लिटरेरी एजेंट के हाथ नहीं लगी है। मौरियर का यह बेस्टसेलर उपन्यास जिस गोथिक जॉनर का था, उसके हॉरर और रोमांस के तत्वों को यह फ़िल्म आगे ले जाकर मानवोचित कमजोरियों और महत्वाकांक्षाओं को भी खंगालता है। मुझे लगता है कि भारतीय सिनेमा में यह जॉनर इतनी शिद्दत से कम ही एक्सप्लोर किया गया है, भारतीय  संदर्भों में इसकी व्यापक संभावनाएं हैं।

इस फ़िल्म की प्रोटेगनिस्ट एक बीस वर्षीय लड़की है, जिसका नाम रेबेका नहीं है, इस किरदार को लिली जेम्स ने निभाया है। उसके बारे में एक दिलचस्प बात बताने का मन कर रहा है कि उसका असली पूरा नाम लिली थॉमसन है, पर इस नाम से पहले ही मशहूर अभिनेत्री होने के कारण उसने अपने पिता का फर्स्ट नेम ‘जेम्स’ अपने नाम का ‘सेकिंड नेम’ बना लिया। फ़िल्म की इस लड़की को देखकर मोहम्मद रफी की गाई, कमाल अमरोही की लिखी नज़्म याद आती रहती है – ‘कहीं एक मासूम नाज़ुक सी लड़की’। मुमकिन है कि इसे उन्होंने मीना कुमारी के लिए लिखा हो!! तो ‘रेबेका’ की वह मासूम नाज़ुक सी लड़की यहां अपनी आजीविका के लिए एक अमीर महिला की सहयोगी है, अपनी बॉस के साथ एक आयोजन में सुंदर आभिजात्य पुरुष से मिलती है, और वह पुरुष कतई साधारण नहीं है।

कहानी एक काल्पनिक रियासत /एस्टेट मेन्दरले की भी है, एस्टेट का प्रमुख या सबसे अमीर मिस्टर मैक्सिम डेनवर है। यही वह असाधारण पुरुष है जिससे ‘मासूम नाज़ुक सी लड़की’ दिल के धागों में बंध जाती है, पर कहानी का ट्विस्ट यह है कि एक साल पहले ही एक नाव दुर्घटना में मैक्सिम की पत्नी मिसेज डेन विंटर रेबेका की मौत हो गई थी। दिल जुड़े तो परिणाम यह हुआ कि नायिका का विवाह मैक्सिम से हो जाता है, दोनों खुश हैं, यहां तक सब एक परिकथा की तरह घटित होता है, जब वे मेन्दरले के महल में आते हैं, वहां सब कुछ सामान्य नहीं है। नायिका के साधारण सुकोमल जीवन में उथल-पुथल शुरू होती है, यानी उसका हनीमून पीरियड बेहद जल्दी पूरा हो जाता है।

यहीं यह बताना चाहिए कि भूतकाल की छाया वर्तमान पर कैसे असर करती है, यह इस फ़िल्म का एक पंक्ति में सारांश हो सकता है। भारतीय दार्शनिक परम्परा की एक बात फ़िल्म देखते हुए बार-बार कौंधती रहीं। जहां-जहां धुंआ है, वहां-वहां आग होगी यानी अनुमान प्रमाण। और दूसरी बात आइंस्टाइन की कि ऊर्जा नष्ट नहीं होती, उसका रूप ही बदलता है। रेबेका की व्यक्तिमान ऊर्जा फ़िल्म में निरंतर रहती है, ऐसा किरदार जिसका कायदे से एक भी दृश्य फ़िल्म में नहीं, मगर कमाल यह है कि फ़िल्म की धुरी वही है।

फ़िल्म मुझ जैसे हिंदी वाले को कमलेश्वर का  उपन्यास ‘अनबीता व्यतीत’ याद दिलाती है। यह उनकी अंतिम रचनाओं में से एक है। मुझे याद है कि पहले यह पूरा उपन्यास ‘कादम्बिनी’ पत्रिका के एक अंक में पूरा का पूरा छपा था, फिर किताब की शक्ल में पाठकों तक पहुंचा था। पक्षियों के साथ मनुष्य जीवन की संबद्धता और गुजरे हुए के साथ आज की कड़ियाँ जोड़ने की जद्दोजहद ही इस उपन्यास का कथानक है। सम्भव है कि बेहद सफल पटकथा लेखक के रूप में भी कमलेश्वर जी के लिए इस ख़याल को फ़िल्म तक पहुंचाना सम्भव नहीं बन पाया होगा तो इसे उन्होंने उपन्यास के रूप में रूपांतरित कर दिया हो! फ़िल्म भी बनती तो इतनी ही सार्थक होती, और सुंदर होती। ‘रेबेका’ के मेन्दरले की ही तरह इस उपन्यास में काल्पनिक सुमेरगढ़ है, जो अरावली की पहाड़ियों के मध्य रचा-सोचा गया है। इस उपन्यास को खोजकर, खरीदकर पढ़ा जाना चाहिए।

फ़िल्म ‘रेबेका’ अभिजात्य किलेबंदी में भय, प्रेम, कामना, घृणा और षड्यंत्र का दिलचस्प और हैरतअंगेज कोलाज है। महलों की चारदीवारी के इन भावों और कथाओं को हमारे यहां हिंदी साहित्य में आचार्य चतुरसेन शास्त्री, यादवेंद्र शर्मा चंद्र और आनंद शर्मा ने खूब लिखा है, आनंद शर्मा के ‘रसकपूर’ को तो बार- बार पढ़ा जा सकता है।

‘रेबेका’ में महल की मुख्य परिचारिका मिसेज डेनवर एक बड़ा ही अहम किरदार है, महल की व्यवस्थाओं को सुचारू बनाये रखने की जिम्मेदारी उसके कांधों पर है, अपनी पूर्व मालकिन के लिए उसकी अगाध श्रद्धा उसे कितने अमानवीय किरदार में बदल देती है, ये देखना रौंगटे खड़े कर देता है। एक स्त्री दूसरी स्त्री के प्रेम में तीसरी स्त्री के लिए कितनी क्रूर हो सकती है, यह किरदार इसी का प्रकटीकरण है। यह चरित्र चित्रण इस तथ्य के जुड़ने से और भी दिलचस्प हो जाता है जब इन तीनों किरदारों को एक महिला उपन्यासकार ने आकार दिया हो! मिसेज डेनवर को देखकर यह भी लगता है कि परिवर्तन को सहजता से, विनम्रता से स्वीकारना कहाँ हरेक के बस में होता है।

काल्पनिक एस्टेट मेन्दरले की रचना भी बहुत दिलचस्प है। यह भी पुरानी दुनिया का खूबसूरत बिम्ब है जिसे शायद ही किसी और तरह से इतना प्रभावी दिखाया जा सकता था! महलों में पेट्रिआर्की का क्रूरतम नृत्य ‘रेबेका’ में महसूस होता है, यह एक अलग पाठ की मांग करता है। स्वयम्भू ‘जेंटलमैन’ इंग्लिश इस मामले में जेंटलमैन नहीं थे, जाहिर होता है। पत्नी को सवाल पूछने के मामले में अधिकारहीनता ही नहीं, उन अनुत्तरित प्रश्नों के कारण सार्वजनिक अपमान भी झेलना पड़े,  यह विकट त्रासदी है, जो आपको क्षोभ से भर सकती है।

अंततः,  थोड़ा ‘प्रीची’ होने की छूट ली जाए तो गुजरा हुआ वक़्त ताक़त बने या कमज़ोरी, यह हमारे विवेक पर अवलम्बित है। यह विवेकसम्मत चयन ही बताता है कि हम अतीतमोह में हैं या इतिहास से प्रेरणा लेने वाले। गुजरा हुआ हमारे वर्तमान को न बिगाड़े और भविष्य को संवारने से न रोके, इसका समुचित अभ्यास हमें करना पड़ता है। इसीलिए निदा फ़ाज़ली ने कहा था कि – ‘जो बीत गया हैं वो गुजर क्यों नहीं जाता’।

आप इसे भी पढ़ना पसंद करेंगे

झूठे सच का कारोबार, मानवता है बीच बाजार

Dr. Dushyant

SonyLiv पर रिलीज हुई हिंदी फिल्म ‘वैलकम होम’ का रिव्यु | SonyLiv Welcome Home film review in Hindi

Dr. Dushyant

ब्योमकेश बख्‍शी की बहन कौन थी?

Dr. Dushyant

Liar’s dice

Naveen Jain

प्रेम इबादत या फ़ितूर, इक दफ़ा सोचिए ज़रूर !

Dr. Dushyant

रह जानी तस्‍वीर, ओ राजा, रंक, फकीर !

Dr. Dushyant