गांव रुमाल क्यों हिलाता है ?

मि‍नारी अमेजोन प्राइम पर हाल ही आई लगभग दो घंटे की कोरियनअमेरिकन फिल्‍म है। कोरिया जैसे एक छोटे देश से अमेरिका जाकर अमेरिकन ड्रीम पूरा करने की जमीनी जद्दोजहद और फिर मोहभंग के बाद खेती करने का इरादा नई दुनिया की उस स्‍याह, तल्‍ख हकीकत का आईना बनते हुए फिल्‍म धीरेधीरे हमारे लहू में हलचल पैदा कर देती है कि हम कहां भाग रहे हैं?

‘मि‍नारी’ देखना एक अलग अनुभव है। इसे देखते हुए कई अवसर ऐसे आते हैं जब मि‍नारी की दास्‍तान अपनी सी लगती है। मि‍नारी शब्‍द कोरियाई पौधे का नाम है जिसका इस्‍तेमाल सब्जियों में भी होता है और दवाइयों में भी। साधारण लोकेशंस, सामान्‍य जीवन स्थितियां, गिने-चुने किरदार के साथ फिल्‍म अपनी सरलता में इतनी खूबसूरत है कि देखने वाले को हैरानी से भर देती है। यह शायद इसलिए भी है कि हम सरलता के जादू को भूल गए हैं, या हमें भूलने के लिए विवश कर दिया गया है।

निर्देशक ली इसाक चुंग

मि‍नारी’ अमेजोन प्राइम पर हाल ही आई लगभग दो घंटे की कोरियन-अमेरिकन फिल्‍म है। इसके लेखक और निर्देशक ली इसाक चुंग हैं। वे खुद कोरियाई मूल के अमेरिकन हैं, यह तथ्‍य कथा को सूत्र और धार दोनों देता है। दिलचस्‍प बात उनके साक्षात्‍कारों में मिलती है कि कुछ फिल्‍में बनाकर वे फिल्‍म मेकिंग पढ़ाने का मन बना रहे थे कि उन्‍हें लगा कि एक फिल्‍म और बनानी चाहिए, इसके नजीतन, पर्सनल टच ने इस फिल्‍म को जो प्रामाणिकता दी है, वह सरलता के साथ मिलकर फिल्‍म के दर्जे को ऊंचा कर देती है।

‘मि‍नारी’ की कहानी पिछली सदी में अस्‍सी के दशक की है। एक कोरियाई मूल का परिवार, पति-पत्‍नी : जैकब और मोनिका, और दो बच्‍चे, एक लड़की : एन, एक लड़का : डेविड, बेहतर जीवन स्थितियों की तलाश में शहरी जीवन छोड़कर दूरदराज अरकांसस में 50 एकड़ जमीन का टुकड़ा खरीदता है, खेती करने और रहने के मकसद से। खेत पर खुद कुआं खोदने से जैकब की यात्रा शुरू होती है, उसकी इस यात्रा में दो किरदार अलग से चमकते हैं। पहला, उसकी मदद करने वाले खेत मजदूर के रूप में कोरियाई युद्ध में भाग ले चुके सैनिक पॉल। पॉल रविवार को चर्च की प्रार्थना में न जा पाने का अफसोस ऐसे दूर करता है कि क्रॉस कंधे पर लेकर चलता है। पॉल ईसाइयत या धर्म केन्द्रित किरदार, प्रार्थनाओं में यकीन करता है। मेहनती, ईमानदार, अच्छा इंसान है। जैकब का हौसला टूटने लगता है तो पॉल उसे भरोसा और साथ दोनों देता है।

तो वहीं दूसरा किरदार, नई जगह पर अलग जीवन के लिए मोनिका और जैकब की मदद करने मोनिका की मां यानी डेविड और एन की नानी, जो कोरिया से यात्रा करके आती है, डेविड के कमरे में रहना शुरू करती है, कहानी में सारा ह्यूमर नानी के किरदार से और उनके इर्दगिर्द ही है। नानी का किरदार जड़ों और माइग्रेशन का मैटाफर ही है, और अपने साथ जब वह कोरिया से पौधा ‘मि‍नारी’ लाती है और उसे अमेरिका के इस सुदूर ग्रामीण इलाके में रोपती है, तो मैटाफर अपनी पूरी सुंदरता में खिल-खिल जाता है। कोरिया की अभिनेत्री यूह जुंग युन को नानी के इस किरदार के लिए बेस्ट स्पोर्टिंग एक्ट्रेस का ऑस्कर मिला है तो वे यह सम्मान पाने वाली पहली कोरियन हैं। यह सम्मान 1957 के बाद से किसी एशियन को भी नहीं मिला था। पिछले साल कोरिया की पैरासाइट ऑस्कर विजेता फ़िल्म थी ही। लगातार दो साल कोरियन फिल्मों की यह सफलता बहुत मानीखेज है।

यूह जुंग युन

5 साल का डेविड कमज़ोर दिल का है, जब वह नानी की देह और कपड़ों से आती गंध के लिए ‘समेल्स लाइक कोरिया’ कहता है तो पुरखों के देश की गंध का रूपक परम रूप में प्रकट होता है और संवेदनशील दर्शक की आंखों को भिगो सकता है। ‘मिनारी’ एक तरह से डेविड के ईडन की तलाश का सिनेमा भी है। डेविड और नानी के बीच जब स्वर्ग-नरक की बात होती है, फ़िल्म लोककथा का रूप लेती है।  जैकब और मोनिका की बेटी एन एक शांत, जिम्मेदार बड़ी बहन है, माता-पिता और डेविड के बीच बफर स्टेट है, कभी जोड़ने वाली कड़ी है।

‘मिनारी’ के किरदार इतनी खूबसूरती से बुने गए हैं कि सब किरदारों की मुख्‍य कहानी में भूमिका के अलावा अपनी-अपनी खास बॉडिंग है। फिल्‍म की अंतर्धारा परिवार और जड़ों की जद्दोजहद है। ‘मिनारी’ के जरिए निर्देशक कह देता है कि परिवार साथ हो तो पौधा किसी भी जगह पनप सकता है। और खास, प्‍यारी बात है कि परिवार की धारणा पति-पत्नी, बच्चों तक सीमित नहीं है, उसमें ग्रैंड पेरेंट्स भी शामिल हैं। इन किरदारों की जेहनी बुनावट, अंतर, सपनों और जीने के तरीकों की अपनी-अपनी खासियतों को मेहनत और रचनात्‍मकता से लेखक-निर्देशक ली इसाक चुंग ने रचा, लिखा है।

फिल्‍म के पति, पत्नी का परस्‍पर वैचारिक अंतर और संघर्ष गांव और शहर का भी है, दोनों में गहरे मतभेद है, पर मनभेद नहीं है। फिल्‍म गांव और खेती को जिस तरह से विषय बनाती है, भीड़ और शहर केंद्रित होती जा रही हमारी सभ्‍यता के प्रश्‍न, संकट और विरोधाभास आकर खड़े हो जाते हैं।

कृष्‍ण कल्पित की पंक्तियां याद आती हैं – ‘जब भी कोई शहर को जाता है। गांव रुमाल क्यों हिलाता है।’

इसका परिप्रेक्ष्‍य व्‍यापक करें तो माइग्रेशन को बीसवीं सदी की सबसे बड़ी समाजशास्‍त्रीय परिघटना माना गया है। अब तो यह हमारे संसार का सतत फिनोमिना है। जीवन की उलटबांसी यह है कि कुछ अपनी जगहों पर रहना नहीं चाहते, कुछ रह नहीं सकते। अपनी-अपनी जगहों और भाषाओं से माइग्रेशन कितनी जेहनी, सांस्‍कृतिक चीजों को बदल रहे हैं, इसका ठीक-ठीक आकलन लगाना मुश्किल है। मेरी राय में, शायद रचनात्‍मकता, स्‍मृति, कार्यक्षमता, आयु, मेंटल हेल्‍थ आदि सब चीजें इससे प्रभावित होती होंगी। दुनिया के कुछ समाजों की लड़कियां अपनी भाषा से इतर भाषा बोलने वाले व्‍यक्तियों से इसलिए शादी नहीं करतीं कि हमेशा उस भाषा में बोलना पड़ेगा जो उनकी अपनी भाषा नहीं है। जगहों का काम या शादी आदि वजहों से परिवर्तन और फिर अपनी जगहों पर लौटना असंभव ख्‍वाब में बदल जाना हमारी सदी की अनिवार्य नियति बन गया है। यह माइग्रेशन युद्ध, नए देशों के निर्माण से होने वाले माइग्रेशन से अलग है। यूं अंग्रेजों से आजादी और वि‍भाजन ने जो भारतीय उपहाद्वीप में जो माइग्रेशन जेनरेट किया, उसका जेहनी प्रभाव पीढ़ियों तक जैनेटिक रूप से आया दिखाई देता है।

और अंत में, अपनी जमीन, अपना देस छोड़ने के दुख को लेकर प्रसिद्ध राजस्‍थानी कवि भागीरथ सिंह भाग्‍य का दोहा याद आ रहा है-

लोग न जाणै कायदा, ना जाणै अपणेस।

राम भलाईँ मौत दे, मत दीजै परदेस

इसका अर्थ यह है कि लोग व्‍यवहार का कायदा भी नहीं जानते, स्‍नेह भी नहीं जानते, राम यानी ईश्‍वर मौत दे दे पर परदेस न जाना पड़े।

‘मिनारी’ जरूर देखिए, यह जीवन के लिए आपके नजरिए को सकारात्‍मक विस्‍तार देगी।

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