नोबेल साहित्‍य पुरस्‍कार में भारतीय दावेदारी

इस साल नोबेल साहित्‍य पुरस्‍कार अमेरिकी कवि लुईस ग्‍लूक को दिया गया है। भारत को अब तक का अकेला पुरस्‍कार 1913 में मिला था, रवींद्रनाथ ठाकुर को गीतांजलि के लिए। यानी सौ साल से ज्‍यादा हो गए, ऐसे समय, भारतीय दावेदारी पर नजर डालनी चाहिए, चिंता और चिंतन किया जाना चाहिए…

हाल ही इस साल के नोबेल पुरस्‍कार घोषित हुए हैं, नोबेल में सर्वाधिक चर्चा शांति और साहित्‍य पुरस्‍कारों की होती है। कभी-कभी बहस भी। इस साल नोबेल साहित्‍य पुरस्‍कार अमेरिकी कवि लुईस ग्‍लूक को दिया गया है। यह भी चर्चा चली कि सत्‍ताइस या नौ साल बाद फिर से कविता को इनाम मिला है, मेरे खयाल से ही भारत के ही कुछ छंद विरोधी कवियों ने यह अफवाह उड़ाने की कोशिश की जबकि 2016 में बॉब डिलन को मिला था।

आइए, अब जरा बात करें इस पुरस्‍कार की भारत के हवाले से। शुरूआत नॉमिनेशन से करें, नोबेल पुरस्‍कारों के नियमों के अनुसार 50 साल बाद नॉमिनेशंस पब्लिक किए जाते हैं, अब तक नोबेल कमेटी की ओर से 1966 तक के नॉमिनेशंस सार्वजनिक किए गए हैं। नोबेल साहित्‍य पुरस्‍कार की नॉमिनेशन सूचियों को खंगालने पर खास बातें यह पता चलीं कि –

*इस समयकाल में सर्वाधिक नोमिनेटेड लेखक थे- Ramón Menéndez Pidal, स्‍पेन के इस लेखक को 23 बार नॉमिनेशन मिला पर वे जीत नहीं पाए।

*दूसरे नंबर पर थे 20 बार नॉमिनेटेड फ्रांस के उपन्‍यासकार Georges André Malraux, इत्‍तेफाक यह कि वे फ्रांस के कल्‍चर मिनिस्‍टर भी रहे। अवॉर्ड उन्‍हें भी नहीं मिला।

*भारतीयों में रोबी दत्‍ता 33 साल की उम्र में नोमिनेट हुए, अगले साल उनकी मौत हो गई। वे सुभाष चंद्र बोस के चाचा थे।

गोपाल सिंह दर्दी

*पंजाबी लेखक गोपाल सिंह दर्दी को 1965 में एक ही साल में दो नॉमिनेशंस मिले। उस साल उनके प्रतिस्‍पर्धियों में एजरा पाउंड और पाब्‍लो नेरूदा जैसे लोग शामिल थे।

*कुलमिलाकर इस समयकाल में 9 भारतीय 16 बार नॉमिनेट किए गए। उन नौ में से सात बंगाली रहे। उनमें दो विशुद्ध दार्शनिक थे- अरबिंदो और सर्वपल्‍ली राधाकृष्‍णन

*टैगोर पहले नॉमिनेटेड भारतीय थे, उसी साल जीते भी। उस साल दौड़ में प्रमुख नाम थे- थॉमस हार्डी, हेनरी बर्गसन, अर्नेस्‍ट लेविसे, एडॉल्‍फ फ्रे, जॉन मोर्ले, हेरॉल्‍ड हॉफडिंग, एडवर्ड डाउडेन, अनातोले फ्रांस

*रवींद्रनाथ ठाकुर को 1913 में इनाम पाते ही नॉमिनेशन करने का अधिकार मिल गया था, सोचने वाली बात है कि उन्होंने आजीवन न तो किसी भारतीय का और न ही किसी विदेशी का नॉमिनेशन किया।

वर्षवार देखें तो नोबेल साहित्‍य के लिए भारतीयों का नॉमिनेशन 1901 से 1966 तक कुछ इस तरह रहा :

-1913 में कुल 32 नॉमिनेशंस थे, इस साल के विजेता और पहले भारतीय रवींद्रनाथ टैगोर का नॉमिनेशन Thomas Sturge Moore ने किया था।

रवींद्रनाथ टैगोर

-1916 में कुल 47 नॉमिनेशंस थे, इस साल के विजेता Verner von Heidenstam थे। भारत से Roby Datta को दो लोगों ने नॉमिनेट किया Raya Yatindra Choudhury और Mano M Gangedy ने।

-1933 में कुल 47 नॉमिनेशंस थे, इस साल के विजेता Ivan Bunin थे। भारत से Sarvepalli Radhakrishnan का नॉमिनेशन Knut Hjalmar Leonard ने किया था।

-1934 में कुल 44 नॉमिनेशंस थे, इस साल के विजेता  Luigi Pirandello थे। इस साल फिर  Sarvepalli Radhakrishnan का नॉमिनेशन Knut Hjalmar Leonard ने किया।

-1936 में कुल 47 नॉमिनेशंस थे, इस साल के विजेता Eugene O’Neill बने। भारत से Hari Mohan Banerjee का नॉमिनेशन Devadatta Bhandarkar ने किया और Sarvepalli Radhakrishnan का फिर Knut Hjalmar Leonard ने।

-1937 में कुल 62 नॉमिनेशंस थे, इस साल के विजेता Roger Martin du Gard थे। भारत से Bansadhar Majumdar  का नॉमिनेशन Satyendra Nath Sen ने और फिर से Sarvepalli Radhakrishnan का Knut Hjalmar Leonard ने किया।

-1938 में कुल 47 नॉमिनेशंस थे, इस साल की विजेता Pearl S. Buck थीं। भारत से Sanjib Chaudhuri को ढाका के Mahmoud Hasan ने नॉमिनेट किया।

-1939 में कुल 62 नॉमिनेशंस थे, इस साल के विजेता Frans Eemil Sillanpaa थे। भारत से Bansadhar Majumdar  का नॉमिनेशन Mukundadeb Chatterjee ने किया तो Sanjib Chaudhuri को K. R. Danungo ने नॉमिनेट किया।

-1943 में कुल 32 नॉमिनेशंस थे, इस साल पुरस्‍कार की घोषणा नहीं हुई। भारत से नॉमिनेशन सूची में थे Sri Aurobindo, उनका नाम प्रस्‍तावित किया था Fraancis Younghusband ने।

-1965 में कुल 120 नॉमिनेशंस थे, इस साल के विजेता Mikhail Sholokhov थे। भारत से पंजाबी लेखक Gopal Singh  को Nyberg और Karl Regnar Gierow की तरफ से दो नॉमिनेशन मिले। तो Sudhin N Ghose का नॉमिनेशंन Henri De Ziegler ने किया।

कुछ साल पहले यूरोप के सटोरियों के हवाले से खबर आई कि राजस्‍थानी के कथाकार विजयदान देथा दौड़ में शामिल हैं। इसकी आधिकारिक पुष्टि के लिए पचास साल इंतजार करना पड़ेगा, खारिज करने को थोड़ी सी ईर्ष्‍या और अहंकार बहुत है। जब भारत के सटोरिए अपनी सूचनाओं और आकलनों के लिए मशहूर हैं तो यूरोप के सटोरियों पर इतना संदेह वाजिब नहीं लगता। यहां सुखद और दिलचस्‍प बात तो यह भी है यूरोप के सटोरिए साहित्‍य जैसी चीज को सट्टा लगाने लायक समझते हैं, भारत में तो क्रिकेट और राजनीति यानी चुनाव से ही उन्‍हें फुर्सत नहीं है।

पिछले कुछ सालों भारतीय साहित्‍य जगत में में के. सच्चिदानंदन, महाश्‍वेता देवी जैसे नामों की चर्चा रही है। अंग्रेजी में अमिताभ घोष, हिंदी में उदय प्रकाश, विनोद कुमार शुक्‍ल, अशोक वाजपेयी, असगर वजाहत, भगवानदास मोरवाल, अलका सरावगी, उर्दू में शम्‍सुर्रहमान फारूकी, राजस्‍थानी में अर्जुनदेव चारण जैसे नाम मुझे भारत की अगली उम्‍मीदों की तरह दिखते हैं, अन्‍य भारतीय भाषाओं में भी होंगे, मान लीजिए कि मेरे अनुभव और अध्‍ययन की सीमा है।

ऐसे भारतीय लेखक जो दुनिया से चले गए पर नोबेल के हकदार थे, इस पर लोगों की अलग राय हो सकती हैं, मेरी राय और पसंद में कुछ नाम गुरदयाल सिंह, शरतचंद्र, बंकिमचंद्र, बिमल मित्र, अमृता प्रीतम, फिराक गोरखपुरी, कन्‍हैयालाल सेठिया, प्रेमचंद, निर्मल वर्मा, अज्ञेय, साहिर लुधियानवी, गिरीश कारनाड, कमलेश्‍वर, प्रतिभा राय, विजय तेंदुलकर, इस्‍मत चुगताई, कुर्तुल ऐन हैदर, सुनील गंगोपाध्‍याय के होंगे। भारतीय उपमहाद्वीप की बात करें तो सआदत हसन मंटो, फैज अहमद फैज, मुहम्‍मद अल्‍वी, फराज, इंतिजार हुसैन और मुश्‍ताक अहमद यूसुफी के नाम जेहन में तुरंत आते हैं।

कई साल पहले एक पंजाबी उपन्‍यास का हिंदी अनुवाद आंखों से गुजरा था, एक लेखक की नोबल साहित्‍य पुरस्‍कार पाने की जद्दोजहद ही उसका नैरेटिव है। किताब और उसके लेखक दोनों के नाम भूल गया हूं।

सवाल उठता है कि क्‍या भारतीय अपनी दावेदारी रखने में संकोची या लापरवाह हैं। तो कहना चाहिए कि इसमें आंशिक सत्‍य है। प्रोफेसर अशोक जाहनवी प्रसाद ने पिछली सदी में नब्‍बे के दशक में इंडियन इंस्‍टीट्यूट ऑफ एडवांस स्‍टडी की गर्वनिंग बॉडी की मीटिंग में गंभीरता से भारतीय मेधा की अंतर्राष्‍ट्रीय पहचान की मंशा से प्रस्‍ताव रखा था कि भारत की ओर से विश्‍व के बड़े इनामों में नॉमिनेशंस के लिए एक कमेटी बने, उनके तत्‍कालीन साथी फैलो भीष्‍म साहनी, डायरेक्‍टर मृणाल मिरी, और आनंद शर्मा (जो बाद में केंद्र में मंत्री बने), ने उनका समर्थन किया पर गर्वनिंग बॉडी ने विचार को खारिज कर दिया।

बहरहाल, मसला यह है कि भारतीय लेखन की पैकेजिंग, ब्रांडिंग, नेटवर्किंग और नॉमिनेशन आग का गहरा और दूर तक फैला हुआ दरिया है, जिसे पार करने के लिहाज से अभी हमको काफी चलना है, वैश्विक बनने के लिए, नोबेल के लिए। पर शायद ज्‍यादातर भारतीय लेखक साहिर लुधियानवी के दर्शन से इत्‍तेफाक रखते हैं- ‘ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्‍या है!’

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