सत्यजीत रे की विश्वचर्चित फिल्म ‘पोथेर पांचाली’ सहित उनकी पूरी ‘अप्पू ट्रिलॉजी’ और शक्ति सामंत की राजेश खन्ना, शर्मिला टैगोर अभिनीत फिल्म ‘अमर प्रेम’ जिस लेखक की कहानियों पर आधारित थीं, उस लेखक विभूति भूषण बंद्योपाध्याय (1894-1950 ) की आज सत्तरवीं पुण्यतिथि है, यह इसलिए खास है कि भारत के कॉपीराइट कानून के मुताबिक लेखक आदि क्रिएटर की मौत के सत्तर साल बाद उसकी रचनाएं कॉपीराइट फ्री हो जाती हैं…
अकेले नोबेल साहित्य पुरस्कार विजेता भारतीय रवींद्रनाथ ठाकुर की मौत को जब साठ साल हो गए तो बिना अनुमति के हर किसी को अधिकार मिल गया कि रोबीदा के संगीत और लेखन को इस्तेमाल करे, री क्रिएट करे, प्रकाशित करे। इससे पहले सारे अधिकार शांति निकेतन के पास थे क्योंकि उन्होंने अपनी वसीयत में ऐसा कर दिया था, शांतिनिकेतन की पहल पर भारत की संसद ने कानून में बदलाव करते हुए साठ साल की अवधि को सत्तर साल में बदल दिया यानी अब किसी रचनाकार की रचना उसकी मौत के सत्तर साल बाद कॉपीराइट फ्री हो जाती है। कॉपीराइट फ्री होने का सरल अर्थ यह है कि अब उनके इस्तेमाल, प्रकाशन, अनुवाद, एडाप्शन, फिल्म निर्माण आदि के लिए किसी उत्तराधिकारी या राइट होल्डर की अनुमति की जरूरत नहीं होगी और ना ही रॉयल्टी देनी पड़ेगी। ठीक इसी प्रकार प्रेमचंद की रचनाएं भी अब कॉपीराइट फ्री हैं, इसलिए बाजार में उनकी रचनाओं के कई-कई संस्करण हैं, और खूब सारे प्रकाशक उनकी रचनाओं को छाप रहे हैं। जब यह सत्तर साल वाला कानूनी संशोधन हुआ था, हिंदी के प्रसिद्ध लेखक राजेंद्र यादव ने बड़ी सुंदर बात कही थी कि सत्तर साल बाद कॉपीराइट फ्री हो पर रॉयल्टी प्रकाशकों और फिल्म निर्माताओं से ली जाए, उसका एक कोष बने और लेखक कल्याण कोष कहा जाए जो जिंदा जरूरतमंद लेखकों की मदद करे, काश कि राजेंद्र यादव की यह बात सुनी गई होती, किसी तरह अमल में लाए जाने का प्रयास हो पाता।
विभूति भूषण बंद्योपाध्याय (1894-1950 ) की आज सत्तरवीं पुण्यतिथि है, यानी आज के बाद वे कॉपीराइट फ्री होने वाले हैं। आपको याद दिला दें कि सत्यजीत रे की विश्व चर्चित फिल्म ‘पोथेर पांचाली’ सहित उनकी पूरी ‘अप्पू ट्रिलॉजी’ यानी पोथेर पांचाली, अपराजितो और अपुर संसार तथा शक्ति सामंत की राजेश खन्ना, शर्मिला टैगोर अभिनीत हिंदी फिल्म ‘अमर प्रेम’ उनकी ही कहानियों पर आधारित थीं।
1928 में कलकत्ते की एक पत्रिका में धारावाहिक छपा, और अगले साल किताब की शक्ल में छपा उपन्यास ‘पोथेर पांचाली’ विभूति बाबू के जीवन का भी टर्निंग पॉइंट था, इससे पहले उनकी कहानियां तो लगातार छप रही थीं, पर यह उनका पहला उपन्यास था और इसने उन्हें बंगाल के साहित्य जगत के अभिजात्यों के मध्य पहुंचा दिया। मणिकांचन संयोग यह कि यह सत्यजीत रे की पहली फिल्म भी बनी। यह अप्पू ट्रिलोजी सत्यजीत रे के लिए इतनी महत्वपूर्ण थी कि इसने नेशनल अवॉर्ड ही नहीं, बर्लिन, वेनिस और कान्स फिल्म फेस्टिवल्स में उन्हें वह प्रतिष्ठा दिलाई, जो नए फिल्ममेकर के लिए चांद छू लेने जैसा सपना हो सकता है।
‘हींगेर कौचुरी’ की बात की जानी चाहिए, क्योंकि हिंदी सिनेमा में विभूति बाबू हींग जितने ही आए लगते हैं। पर उनकी रचनात्मकता की महक बहुत है। हींगेर कौचुरी यानी हींग की कचौरी उनकी छोटी सी कहानी थी, जिस पर पहले बांग्ला में फिल्म बनी- ‘निशि पद्मा’, मुख्य भूमिका निभाई थी- उत्तम कुमार ने। इस कहानी पर जब हिंदी में फिल्म बनी, नाम रखा गया– ‘अमर प्रेम’। व्यवसायिक रूप से सफल हिंदी फिल्मों की सूची में लैंडमार्क की तरह गिनी जाने वाली फिल्म। इसका अर्थ यह हुआ कि कला सिनेमा का विश्वचर्चित उत्कर्ष ‘पोथेर पांचाली’ और व्यवसायिक सफलता का यह शीर्ष ‘अमर प्रेम’ दोनों विभूति बाबू की लेखनी से संभव था, असंभव का मूर्त हो जाना। हींग से जुड़ी एक बात और यहां बतानी जरूरी लग रही है कि बाबा नागार्जुन कहते थे कि साहित्यिक रचना में विचार हींग की तरह होना चाहिए, ना ज्यादा ना कम। हिंदी सिनेमा में तो विभूति बाबू और कुलमिलाकर साहित्य की खुशबू हींग से अभी कहीं कम है।
विभूति बाबू बहुत साधारण पैदाइश वाले और परिवेश में पले-बढ़े इनसान थे। उनकी यही साधारणता उनकी अपराजेय ताकत थी। उनका डेब्यू उपन्यास पोथेर पांचाली जब सत्यजीत रे की डेब्यू फिल्म के रूप में पश्चिम में पहुंचा तो भारतीय कथानक की साधारणता का यह ताकतवर तिलिस्म ही था जिसका प्रभाव दुनिया के कला जगत पर तात्कालिक नहीं था, दूरगामी था, देर तक रहने वाला था। उनकी इस विलक्षण साधारणता को समझने के लिए थोड़ा पीछे जाना पड़ेगा कि विभूति बाबू ने स्कूलिंग और बीए तो प्रतिभाशाली विदयार्थी के रूप में की पर आर्थिक कारणों से आगे पढ़ाई नहीं कर पाए और अध्यापक के रूप में अपना करिअर शुरू किया था। कुछ समय गौरक्षिणी सभा के प्रचारक रहने के बाद जब पथुरियाघाट के अभिजात्य घोष परिवार के घोषबाबू के सचिव बनकर संरक्षण मिला तो लेखन को इत्मीनान से समय और ऊर्जा दे पाए, यहां यह पथुरियाघाट और घोष परिवार भी महत्वपूर्ण हैं कि उनके बारे में बात होनी चाहिए, थोड़ा विषयांतरण का जोखिम और इल्जाम लेते हुए भी। खेलतचंद्र घोष और सिद्धेश्वर घोष भारत यानी बंगाल प्रेसिडेंसी के पहले गर्वनर जनरल वॉरेन हैस्टिंग्ज के क्लर्क रामलोचन घोष के पोते थे। इस घोष परिवार की ख्याति संगीत और दान में रही। इसी घोष परिवार के यहां पंडित रविशंकर पहली बार अपने गुरू, मैहर घराने के संस्थापक अलाउद्दीन खान से मिले थे, इसी मुलाकात का नतीजा था कि रविशंकर नृत्य छोड़कर सितार की ओर मुड़ गए और फिर अपना जीवन उसी के नाम कर दिया। अपने इन्हीं उस्ताद अलाउद्दीन खान की बेटी अन्नपूर्णा देवी से उनका पहला विवाह हुआ। जिस अप्पू ट्रिलोजी की बात हम कर रहे हैं, उसका संगीत उन्होंने ही रचा।
अब तक दर्जन भर फिल्में उनकी कहानियों पर बनी है, हिंदी में शायद सिर्फ एक- ‘अमर प्रेम’, बाकी सब बांग्ला में, जिनमें सबसे हाल में बनी 2013 की ‘चांदेर पहाड़’ खास है क्योंकि अफ्रीका में शूट की गई इस फिल्म के लिए कहा गया था कि बजट के लिहाज से अब तक की सबसे महंगी बांग्ला फिल्म है। इसका सीक्वल ‘अमेजोन ओभिजोन’ नाम से 2017 में आया है। मुझे कमलेश्वर मुखर्जी निर्देशित दोनों पार्ट अमेजोन प्राइम पर देखने को मिले। सुखद है कि श्री वेंकटेश फिल्म्स जैसे निर्माता बांग्ला में साहित्यिक कहानियों पर आधारित फिल्मों में इतना निवेश कर रहे हैं। इसी साल यानी 2017 में ही उनकी कहानी ताल नबमी पर ‘सहज पाथेर गप्पो’ फिल्म भी बनी। कहा जा सकता है कि विभूति बाबू का कथा संसार बांग्ला सिनेमा में अब तक प्रासंगिक बना हुआ है।
मुझे लगता है कि विभूति बाबू के दुनिया से जाने के सत्तर साल होने को सेलिब्रेट किया जाना चाहिए, अगर उनकी कुछ और रचनाएं सिनेमाई रूप में आ सकें। क्योंकि व्यवहारिक रूप से कई बार सदिच्छाओं के बावजूद मूल लेखक के जाने के बाद सिनेमाई रूपांतरण के अधिकार अर्जित करना सहज, सरल नहीं होता। विभूति बाबू प्राय: गांव की कहानियां कहते थे, सोचने वाली बात यह है कि अब हमारे सिनेमा के लिए गांव कितना जरूरी है? गांव की कहानी की कितनी व्यवसायिक अहमियत बची है यानी हममें से कितने लोग देखना चाहेंगे?