रिश्‍ते में हम तुम्‍हारी मां लगते हैं

किराए की कोख यानी सैरोगेसी नेटफ्लिक्‍स पर हाल ही आई फ़िल्म मिमी का मुख्य विषय है, यूं सैरोगेसी पर दुनिया और भारत में कई फिल्‍में आई हैं, पर सघन मानवीयता और ग्रे शेडेड जीवन मिमी का सब टेक्स्ट है, जो इसे अलग और खास बना देते हैं।

 

फिल्‍म ‘मिमी’ बिलोंगिंगनैस को पुनर्परिभाषित करती है। हम रिश्तों की जिस भूल-भुलैया में जीते हैं, उसकी गर्भनाल को ही हम विस्मृति के भंवर में डाल देते हैं। समृद्धि पोरे लिखित-निर्देशित मराठी फ़िल्म के रीमेक को कहने के लिए राजस्थान को चुना गया है। मूल फ़िल्म ‘माला आई व्‍हायचय’ को बेस्ट मराठी फीचर फ़िल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था। फिर पहले इसका तेलुगू में रीमेक ‘वैलकम ओबामा’ बना और अब हिंदी के रीमेक  ’मिमी’ के पटकथा, संवाद लक्ष्मण उतेकर ने रोहन शंकर के साथ मिलकर लिखे हैं। हिंदी को राजस्थानी लहजा देने की चेष्टा की गई है, फ़िल्म की अकेली इग्नोर किए जाने लायक सीमा यही है कि वह लहजा और बुनियादी शब्द कई बार हरियाणवी हो गए हैं।

किराए की कोख यानी सैरोगेसी नेटफ्लिक्‍स पर हाल ही आई फ़िल्म ‘मिमी’ का मुख्य विषय है, यूं सैरोगेसी पर दुनिया और भारत में कई फिल्‍में आई हैं पर सघन मानवीयता और ग्रे शेडेड ‘मिमी’ का सब टेक्स्ट है, जो इसे अलग और खास बना देते हैं। एक विदेशी जोड़ा – जॉन और समर, सैरोगेट मां की तलाश में राजस्थान आता है, पंकज त्रिपाठी एक टैक्सी ड्राइवर की भूमिका में है, जो खुद बेऔलाद है, उनकी मदद करता है, मिमी यानी कृति सैनोन से मिलवाता है जो इलाके की मशहूर नृत्यांगना है, मुम्बई जाकर अभिनेत्री बनने की इच्छुक है, अपने बॉलिवुड ड्रीम के लिए तैयार हो जाती है। उसकी मदद शमां (सई ताम्हनकर) करती है। बच्चा डाउन सिंड्रोम की कमी के साथ पैदा होता है तो जॉन और समर उसे अपनाने से इनकार कर देते हैं।

यूं किसी-किसी को सैरोगेसी के इस खयाल में महाभारत के किरदार कर्ण की भी याद आ सकती है, यह वाजिब भी है और भारतीय संदर्भो में तार्किक भी। और ‘मिमी’ में कृति सैनोन के कुंआरी मां बनने का खयाल वर्जिन मैरी से भी हमें जोड़ सकता है। कुलमिलाकर हमारे मिथकीय संस्‍कार और परंपराएं कहानी को हमसे जोड़ने के अलग ही धागे उपलब्‍ध कराते हैं, दरअसल यह हमारी गर्भनाल है।

कृति सैनोन जिस तरह के किरदार में है, वह भी स्टीरियो टाइप का सकारात्मक, उज्ज्वल उल्लंघन है। पंकज त्रिपाठी का किरदार और सात्विक अभिनय विलक्षण नायकत्व का अभिनव संधान है। वे मिडल क्लास के सुपर हीरो की तरह हैं। उनके किरदार से मुझे सत्यजीत रे की फ़िल्म ‘अभिजान’ के मुख्‍य किरदार नरसिंह की याद आई जिसे बंगाली सिनेमा के लिजेंड सौमित्र चटर्जी ने निभाया है। इसी किरदार से प्रभावित प्रेरित होकर मार्टिन सकोर्सिस ने फ़िल्म ‘टैक्‍सी ड्राइवर’ का किरदार रचा जिसे रॉबर्ट डि निरो ने निभाया और सत्‍यजीत रे को प्रभावित होने के लिए बाकायदा श्रेय भी दिया। रे की यह फिल्‍म ताराशंकर बंद्योपाध्‍याय के उपन्‍यास पर आधरित थी। और कहते हैं कि व्‍यवसायिक रूप से उनकी यह सर्वाधिक सफल फिल्‍म है।

बहरहाल, लक्ष्मण उतेकर का निर्देशन संजीदगी, सजगता और कला-सापेक्षता की त्रिवेणी है। हम उन्‍हें हिंदी दर्शक रूप में ‘डिअर जिंदगी’, ‘इंग्लिश विंग्लिश’, ‘102 नॉट आउट‘ और ‘हिंदी मिडियम’ के सिनैमेटोग्राफर के रूप में पहचान सकते हैं। एआर रहमान असन्दिग्ध रूप से हमारे समय के लिजेंड संगीतकार हैं, उनका काम ‘मिमी‘ फ़िल्म को आगे ले जाता है, उनकी धुनों पर अमिताभ भट्टाचार्य के गीत सोने पर सुहागा हैं। निर्माता दिनेश विजन को जियो स्‍टूडियोज के साथ मिलकर इस खूबसूरत ख़्याल की फ़िल्म को हिंदी में लाने के लिए बड़ा शुक्रिया दिया जाना चाहिए।

प्रकारांतर से, जीवन एक सफर है, इस लम्बे सफर में ड्राइवर की भूमिका सारथी कृष्ण की सी हो सकती है। जो जीवन अगर युद्ध में भी बदल जाए तो जीत हो, पंकज त्रिपाठी वैसे ही सारथी कृष्ण की भूमिका में हैं। ऐसा कृष्ण जो सखा भाव में भी है, नायिका के साथ सखा भाव के नायक की यह छवि हिंदी सिनेमा की विरल छवि है।

भारत और खासकर हिंदी में सैरोगेसी पर बनी फिल्‍मों में ‘फिलहाल’ मेरी विशेष पसंद है, जिसे मेघना गुलजार ने अपनी पहली फिल्‍म के रूप में बनाया था। ‘मिमी’ आपको पसंद आएगी, और फिर मेरी राय से ‘फिलहाल’ भी देखिएगा। मेघना की फिल्‍म को इसलिए भी यहां रेखांकित करना चाहिए कि ‘मिमी’ की कहानी यानी मूल मराठी फिल्‍म की कल्‍पना एक स्‍त्री की है, और मेघना के साथ जोड़ते हुए कहा जा सकता है कि स्‍त्री दृष्टि इस खयाल को इम्‍पैथी की प्रामाणिकता देते हैं।

यूं इस विषय पर इटैलियन फिल्‍म ‘वैनूतो अल मोंदो’ को भी देखना चाहिए जो सैरोगेसी की वजह से रिश्‍तों के तानेबाने के उलझने को कहानी में ढालती है, यह फिल्‍म माग्रेट मैजांतिनी के लिखे, इसी नाम के उपन्‍यास का एडाप्‍शन थी।

फिल्‍म ‘मिमी’ बायोलोजिकल पेरेंटिंग और एक्‍चुअल पेरेंटिंग के भेद को भी जेरेबहस लाती है। और यह भी सोचने को विवश करती है कि हमारे सारे भावनात्‍मक जुड़ाव अनिवार्यत: किन्‍हीं तकनीकी बाध्‍यताओं और आग्रहों तक सीमित नहीं होते। कितने चुपचाप तरीके से फिल्‍म फादरहुड की बात अलग संदर्भों में कर जाती है, हैरान कर देने वाला है। फादरहुड लीगल टर्म्‍स से ज्‍यादा भावनात्‍मक सत्‍ता है। लीगल टर्म्‍स केवल उसे संपत्तिमूलक ही बनाते हैं। शायद यही वजह है कि पश्चिम में फादर और डैड को अलग-अलग अर्थों में लिया जाता है। भारतीय जीवन और समाज में बढ़ती संबंधों की क्षणभंगुरता के बरक्‍स फादरहुड की धारणाएं भी अब बदलाव मांगती हैं। और ‘मिमी’ ने यह काम बिना लाउड हुए किया है कि पिता होना पिता के बोध को स्‍वीकारना है, वीर्यबोध नहीं है।

फ़िल्म ‘मिमी’ आकांक्षा और यथार्थ की भावभूमि की फ़िल्म है। संयोग और दुर्योग के परे सुयोग के यूटोपिया की भी फ़िल्म है। कामनाओं के कारागार में जीवन की गति किस ड्राइवर के हाथों किस अंधे मोड़ से होकर ले जाएगी, यह रहस्य ही जीवन को रोमांचक और जोखिमपूर्ण बनाता है। दरअसल यही रहस्यात्मकता ही जीवन है। जीवन की सारी परीक्षाएं पढ़ी गयी किताबों और संस्कारों के सिलेबस से हल नहीं होती। जैसे अल्बेयर काम्यू कहीं लिखते हैं कि जिंदगी अपने दामन में कौनसे फूल या कांटे आपके लिए रखे हुए हैं, यह भेद जीवन जीने पर ही खुलता है।

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