हाल ही बांग्ला के प्रतिनिधि ओटीटी होईचोई पर रिलीज हुई है फिल्म ‘हीरालाल’। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि हीरालाल सेन दादा साहब फाल्के से पहले भारत में फुल लैंथ फीचर फिल्म बनाने की कोशिश करने वाले इंसान थे।
कोई 12 साल पहले एक मराठी फिल्म आई थी– ‘ हरिश्चंद्राची फैक्ट्री’, जिसे परेश मोकाशी ने बनाया था। फिल्म की बहुत तारीफ हुई थी। यह फिल्म 1913 में बनी भारत की पहली फीचर फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ बनाने वाले दादा साहब फाल्के पर थी। इस फिल्म को बनाने में दादा साहब को कितना और कैसा संघर्ष करना पड़ा, ‘हरिश्चंद्राची फैक्ट्री’ उसकी ही दास्तान है। यानी फिल्म बनाने की दास्तान पर फिल्म। किसी डायरेक्टर की पहली फिल्म को यह अवसर दुर्लभ होता है कि उसकी पहली ही फिल्म ऑस्कर के लिए देश की ऑफिशियल एंट्री हो जाए। ‘हरिश्चंद्राची फैक्ट्री’ ऐसा करने वाली दूसरी मराठी फिल्म थी, पहली फिल्म संदीप सांवत की ‘श्वास’ थी। दोनों के बारे में विस्तार से जानने के लिए गूगल कर लीजिए। गूगल आपको 1906 में ऑस्ट्रेलिया में बनी दुनिया की पहली फीचर फिल्म ‘द ग्लोरी ऑफ द कैली गैंग’ के बारे में बता देगा। इनकी बात करना हमारा मकसद नहीं है।
परंतु, दादा साहब के बारे में बनी इस पुरानी फिल्म से बात शुरू करने की हमारे पास एक मुकम्मल वजह है। कुछ समय पहले जब लॉक डाउन खुला तो अरूण रॉय के निर्देशन में बनी एक बांग्ला फिल्म रिलीज हुई है ‘हीरालाल’। दर्शक उन दिनों सिनेमाघरों में कम ही आ रहे थे। बंगाल को छोड़कर शायद ही कहीं इस फिल्म को ठीक से पहचाना गया हो, वहां भी पता नहीं कितने दर्शक इस फिल्म को मिल पाए, पता नहीं। हाल ही यह फिल्म बांग्ला के प्रतिनिधि ओटीटी होईचोई पर रिलीज हुई है। हीरालाल सेन नामक शख्सियत को इस फिल्म से बड़े दर्शक वर्ग तक पहुँचना संभव हुआ है। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि वे दादा साहब फाल्के से पहले भारत में फुल लैंथ फीचर फिल्म बनाने की कोशिश करने वाले इंसान थे। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो, कलकत्ते के नामी वकील के बेटे ने स्टिल फोटोग्राफी को करियर बनाया और एक दिन बायस्कोप देखने का अवसर बना तो मचल गए मशीन और मूवी कैमरे के लिए, और रचने चल पड़े इतिहास। उसी नायक का नाम है हीरालाल सेन। सिनेमा के माध्यम में दिलचस्पी, जुनून और दूरदर्शिता की त्रिवेणी का नाम है हीरालाल। बौद्धिक रूप से विलक्षण माने जाने वाले बंगाली समाज से सिनेमा में पुरजोर, अभूतपूर्व दखल का नाम है हीरालाल। कलाओं में सांचे तोड़कर, जोखिम लेकर नई कला को गले लगाने का नाम है हीरालाल। जिद के सौंदर्यात्मक शीर्ष का नाम है हीरालाल।
यकीनन हीरालाल और दादा साहब दोनों लोग ऐसे थे जिनके लिए सिनेमा और सिनेमा बनाना जुनून था। एक बेहद दुर्लभ किस्म का जुनून, जो किसी विधा में पहला काम करने वालों में होता है। ऐसा पायनियरिंग जुनून समकालीनों में मुझे आनंद गांधी में दिखाई देता है।
फिल्म हीरालाल को देखना एक अनुभव है, कि कैसे थिएटर के लोगों ने बंगाल में सिनेमा की शुरूआत की। यह एक लगभग भुला दिए गए नायक का आख्यान है। हीरालाल सेन के लिए कहा जाता है कि ‘अली बाबा चालीस चोर’ नामक भारत की पहली फुललैंथ फीचर फिल्म उन्होंने 1904 में बनाई। अपने भाई मोतीलाल के साथ मिलकर उन्होंने भारत की पहली फिल्म कंपनी – ‘रॉयल बायस्कोप कंपनी’ बनाई। उन्हें भारत की पहली विज्ञापन फिल्म का श्रेय तो असंदिग्ध रूप से दिया ही जाता है। हीरालाल सेन ने जबाकुसुम हेयर ऑयल और एडवर्ड की मलेरिया की दवा का विज्ञापन बनाया था। 1917 की एक आग ने उनका सब काम स्वाहा कर दिया। इसलिए कुछ फिल्म इतिहासकारों का विचार यह भी है कि दादा साहब को पहले फिल्ममेकर का श्रेय दिया जाना तथ्य संगत नहीं है।
हीरालाल सेन ने जॉर्ज पंचम के भारत आगमन और लॉर्ड कर्जन के 1905 बंग भंग को शूट करके भारत की पहली पॉलिटिकल डॉक्यूमेंट्री बनाने का श्रेय भी हासिल किया है। उनका जन्म ब्रिटिश भारत की बंगाल प्रेजिडेंसी के मानिकगंज जिले के एक छोटे से गांव में यानी आज के बांग्लादेश में हुआ था, तो कायदे से उन्हें भारतीय उपमहाद्वीप के पहले फिल्ममेकर का दर्जा दिया जाना चाहिए। भारत के संदर्भ में, सही तरह से परिभाषित किया जाए तो व्यवसायिक भूमिका के कारण दादा साहेब भारतीय फिल्म उद्योग के तो जनक कहे जा सकते हैं, भारतीय सिनेमा के वास्तविक जनक तो हीरालाल सेन ही कहे जाने चाहिए।
किंजल नंदा मुख्य भूमिका में है यानी वही हीरालाल हैं। मेरा मानना है कि अब उनकी छवि में हीरालाल लोगों के जेहन में बस जाएंगे। चालाक पारसी बिजनेसमैन जेएफ मदन के किरदार में शाश्वत चटर्जी खूब ही जमे हैं। भारत की पहली एड मॉडल या नायिका कुशुम कुमारी के रूप में अनुष्का चक्रवर्ती ने जो किरदार को जिंदा किया है, वह खुद अपनी साख भरता है। किसी दिन अरूण रॉय या कोई और जुनूनी फिल्ममेकर कुशुम कुमारी पर भी बायोपिक बनाएगा, उस किरदार में मुझे ऐसी अकूत संभावना दिखाई दी है। हीरालाल सेन के समकालीन बंगाली रंगमंच के अमरेंद्रनाथ दत्ता और गिरीश चन्द्र घोष के व्यक्तित्व भी ज़रूरी किरदार के रूप में कहानी में उपस्थित हैं।
गोपी भगत पीरियड सिनेमा को अपनी सिनेमाटोग्राफी से जीवंत कर देते हैं। फ़िल्म का कलर 100 साल पुरानी कथा के लिए सेपिया टोन में रखना भी निर्देशक का एक युक्तिसंगत निर्णय है, तभी इसे देखते हुए लगता है कि हम पुरानी पड़ चुकी किताब के पन्ने पलट रहे हैं, एक-एक पेज खुलता है और कहानी आगे बढ़ती है।
हीरालाल सेन की रॉयल बायस्कोप कंपनी से लेकर हमारे समय की एसवीएफ यानी श्रीवेंकटेश फिल्म्स (होईचोई इन्हीं का ओटीटी प्लेटफॉर्म है) के कलकत्ते की सबसे बड़ी फिल्म कंपनी बनने तक का जो फिल्मी सफर है, उसका इतिहास जरूर अलग से लिखा जाना चाहिए। एक करोड़ जैसे मामूली बजट में बनी यह फ़िल्म अपनी सार्थकता में इसलिए बड़ी है कि एक विस्मृत नायक को लोक स्मृति में पुनर्स्थापित करने की कोशिश करती है। विस्मृति के ब्लैक होल से निकाल कर लाने का काम करते हुए निर्देशक अरुण रॉय जैसे खुद ही हीरालाल सेन हो जाते हैं। यूँ, एक इंडिपेंडेंट फिल्ममेकर वैसे भी हमेशा दादा साहेब फाल्के या हीरालाल सेन ही होता है।
उम्मीद कर सकते हैं कि इस फिल्म से इस विस्मृत नायक को दुनिया में वह इज्जत और इतिहास में नाम मिल पाएंगे जिसके वे वाजिब हकदार हैं।