एमएक्स प्लेयर की वेब सिरीज ‘क्वीन’ के पहले सीजन का कथासूत्र ओपन सीक्रेट की तरह जयललिता के जीवन से मिलता है। जयललिता हो या शक्ति शेषाद्री ऐसा अकल्पनीय जीवन और ऐसी अविश्वसनीय, अविश्लेष्य उपलब्धियां केवल, विज्ञान के ‘थिअरी ऑफ रेंडमनैस’ से ही समझी जा सकती हैं यानी सर्वथा तर्कातीत और कार्य-कारण संबंधों से परे…
‘स्लमडॉग मिलेनियर’ जब से आई है, वह सिनेमा या मनोरंजन की एक दुनिया में एक जॉनर या दूसरी ‘रोमियो -जूलियट’ साबित हुई है, ‘रोमियो- जूलियट’ इसलिए कि हमारे यहां कितनी साहित्यिक, रंगमंचीय या सिनेमाई कहानियों का ट्रिगर रोमियो जूलियट से मिलता है कि दो परिवारों में दुश्मनी है, और उनके बच्चे आपस में प्रेम करने लगते हैं। वैसे ही किसी का रातोंरात अमीर बन जाना, या साधारण का बड़ा आदमी हो जाना ‘स्लमडॉग मिलेनियर’ का ट्रिगर है। जो अब किसी भी ऐसी कहानी के लिए जॉनर का नाम बन गया है या ‘स्लमडॉग’ जेनरिक कहकर संबोधित किया जाता है। तो पहली नजर में एमएक्स प्लेयर की सिरीज ‘क्वीन’ के पहले सीजन हमें ‘स्लमडॉग’ लग सकता है कि सिनेमा की एक एक्स्ट्रा कलाकार की बेटी 15 साल की उम्र में हाई स्कूल पास करते ही हिरोइन हो जाए। और फिर जल्दी- जल्दी कामयाबी की अकल्पनीय, अविश्वसनीय सीढियां चढने लगे। मुख्य भूमिका में दक्षिण भारत की प्रसिद्ध अभिनेत्री रमैया कृष्णन है जिसे हम ज्यादातर सिनेमाप्रेमी उत्तर भारतीय लोग भी ठीक से पहचानते हैं।
मुझे ठीक-ठीक नहीं सूझ रहा कि ‘क्वीन’ जयललिता के जीवन से प्रेरित बताई जा रही है (ओपन सीक्रेट की तरह) तो उसी नजर से देखूं या स्वतंत्र कहानी या वेबसिरीज की तरह देखूं जिसकी कहानी शक्ति शेषाद्री की है जो कम उम्र में हिरोइन बन जाती है, और वहां लोकप्रियता के शिखर पर रहते हुए तमिलनाडू की मुख्यमंत्री भी बन जाती है। इतना कथासूत्र जयललिता के जीवन से मिलता हुआ लगता है। पर नाटकीयता और रचनात्मक छूट की जमीन मुख्यपात्र का नाम काल्पनिक रखकर तैयार की गई है। अगर वह छूट न ली जाए तो बायोपिक के जिस धर्मसंकट में फंसने की प्रबलतम संभावना होती है, वह है कहानी का संकट। इस संकट से ‘क्वीन’ को बचा लिया गया है। हर एपिसोड कहानी के ग्राफ को जस्टीफाई करते हुए आगे बढता है।
लंदन निवासी लेखिका अनीता सिवकुमारन के ‘क्वीन’ नाम से ही आए डेब्यू उपन्यास पर आधारित वेबसिरीज ‘क्वीन’ को लिखने, रचने का श्रेय रेशमा घटाला दिया गया है तो निर्देशक गौतम वासुदेव मेनन हैं, गौतम तमिल सिनेमा के जाने- माने और नैशनल अवॉर्डी निर्देशक हैं। अनीता ने 2011 में नॉवल का 200 पेज का पहला ड्राफ्ट लिख लिया था, पर उन दिनों जयललिता की एक अनाधिकारिक जीवनी को जयललिता ने कोर्ट के जरिए प्रकाशन से रोक दिया था, तो अनीता को अपने नॉवल को रोकना पड़ा। जग्गरनॉट बुक्स की हैड चिकी सरकार ने उनका साथ दिया। अनीता एक इंटरव्यू में बताती हैं कि हिम्मत जुटानी पड़ी, विरोध या विवाद के लिए खुद को तैयार करना पड़ा। फिर किताब की रिलीज से ठीक दो महीने पहले 2016 के आखिर में जयललिता की मौत हो गई तो इस उपन्यास की राह आसान हो गई और 2017 में प्रकाशित हुआ। यहां यह छोटा सा संयोग बताने की जरूरत भी लगती है कि ‘क्वीन’ के प्रकाशक जग्गरनॉट बुक्स से ही ठीक इसी साल मेरा उपन्यास ‘वाया गुड़गांव’ भी प्रकाशित हुआ।
ग्यारह एपिसोड के ‘क्वीन’ के पहले सीजन में कहानी कहीं- कहीं फॉर्म्यूला स्क्रीनप्ले के जरिए अनफोल्ड होती है पर अपने कैनवस, इम्पैक्ट में हमें बांधे रखती है, अपने साथ बहाकर चलती है। बचपन से सिनेमा और राजनीति में प्रवेश तक की कहानी कहता एक स्त्री ‘नायक’ वाला महाकाव्यात्मक आख्यान इससे पहले हमने कब देखा होगा, सोचना पड़ता है।
जयललिता हो या शक्ति शेषाद्री ऐसा अकल्पनीय जीवन और ऐसी अविश्वसनीय, अविश्लेष्य उपलब्धियां केवल, विज्ञान के ‘थिअरी ऑफ रेंडमनैस’ से ही समझी जा सकती हैं यानी सर्वथा तर्कातीत और कार्य कारण संबंधों से परे। जयललिता हो या सलमान खान वे फिनोमेना की तरह होते हैं जिन्हें विज्ञान की कसौटी पर हाइड्रोजन के दो, ऑक्सीजन के दो अणु मिलकर हमेशा पानी ही बनाएंगे या अर्थशास्त्र की शब्दावली में ‘अन्य परिस्थितियां समान रहने पर’ पुनरावृति होना सुनिश्चित न हो। देखा जाए तो ‘थिअरी ऑफ रेंडमनैस’ लगभग वहीं है जिसे धर्म सदियों से चमत्कार कहकर परिभाषित करता आया है।
‘क्वीन’ की इस कहानी को राजनीति में स्त्री की एकछत्र उपस्थिति के लिए भी देखना- समझना चाहिए। यहां शेखर कपूर की इंग्लैड की महारानी एलिजाबेथ पर ट्रिलॉजी को भी याद करने की जरूरत है जिसे कई ऑस्कर यानी अकेडमी अवॉर्ड मिले हैं। एलिजाबेथ और जयललिता या शक्ति शेषाद्री का अंतर यह है कि विरासत में रानी बनना सबको नहीं नसीब होता। यहां इतिहास की ‘ग्रेटमैन थ्योरी’ का भी वाजिब संदर्भ बनता है कि कुछ महान ही पैदा होते हैं, कुछ को महान परिस्थितियां बना देती हैं। ऐसी ही कहानियां मायावती या ममता बनर्जी की भी होंगी, बस उनमें सिनेमा का ग्लैमर कॉशिएंट नहीं होगा, तो शायद पाठकों- दर्शकों को इतनी जायकेदार ना लगें।
वेब सिरीज ‘क्वीन’ को देखते हुए लगातार लगता है कि जैसे उपन्यास कथानायिका को उज्ज्वलता से प्रस्तुत करता है, सिरीज भी उसका अनुसरण करती है और विवादों से बचकर निकलती है, कुछ ग्रे शेडेड घटनाओं की व्याख्याएं नायिका के नजरिए से ही प्रस्तुत करती है।
स्त्री का यह अविश्वसनीय, अकल्पनीय, महाकाव्यात्मक नायकत्व तो व्यवहारिक फेमिनिज्म है ही, पूरा आद्योपांत इस तरह से भी फेमिनिज्म का पाठ है कि जयललिता की कहानी को शक्ति शेषाद्री की कहानी के रूप में अनीता सिवकुमारन ने लिखा, जग्गरनॉट बुक्स की चिकी सरकार ने प्रकाशित किया और फिर वेब सिरीज के लिए रेशमा घटाला ने रचा है। सब हमारे जमाने की समर्थ, समझदार, सफल और सशक्त स्त्रियां हैं।
कहानी सत्ता और ग्लैमर जगत के उस भयावह सच को भी परोक्ष रूप से हमारे सामने रख देती है जो लिंगनिरपेक्ष है। यानी सत्ता के अपने एैब हैं, वह चाहे पुरूष के हाथों में हो या स्त्री के। जिसके लिए बुजुर्ग कहते थे कि कुर्सी लकड़ी की होती है पर इनसान का व्यवहार उस पर बैठते ही बदल जाता है, कुर्सी का अपना मिजाज होता है, अपना ही नखरा और अपने ही तेवर।
इस सिरीज को भारतीय वेब सिरीज के फलते- फूलते संसार में फिक्शन की किताबों के एडाप्शन की बढ़ती उपस्थिति के लिहाज से भी महत्वपूर्ण माना जाना चाहिए। सेक्रेड गेम्स और लैला के बाद इसे तीसरे महत्वपूर्ण एडाप्शन के रूप में देखना ही पड़ेगा। तीनों अंग्रेजी किताबें हैं। भारतीय कथासंसार का यह नया अवतार धीरे- धीरे और दिलचस्प होगा, बस जरूरी यह है कि यह केवल अंग्रेजी किताबों से आगे बढे और भारत की कहानियां भारतीय भाषाओं के कथा संसार से भी निकलकर आए।