ला फिएस्ता !

“पंखिड़ा… ओ ओ पंखिड़ा…” मुरली गाने की तेज़ आवाज़ से हड़बड़ा के उठ बैठा. अपनी आँखें जबरन खोलने की कोशिश करते हुए वह अलार्म घड़ी तक पहुंचा और उसे बंद किया. घड़ी उठाकर देखा तो सुबह के सात बज रहे थे. उसे अभी तक कुछ पल्ले नहीं पड़ रहा था. ये सपना है या…

तभी उसका मोबाईल फोन बीप्स देने लगा. मुरली ने जैसे ही बोला, “हेल्लो…” उधर से अमीषी की शरारत से लबरेज़ खिलखिलाती आवाज़ में उसे सुनाई पड़ा, “ओये, हेप्पी मौर्निंग्स !!” “हूँ,” मुरली ने बस इतना ही जवाब में कहा तो अमीषी फिर खिलखिलाई, “देख, मैंने तेरा फेस्टिव मूड बनाने के लिए ही कल चुपके से इस song को अलार्म tune सेट किया था, हा हा हा… अब तैयार हो जा!”

“क्या यार, तू भी पूरी फ्यूज़ है, इसे तो अपने आलफोंसो के फ़ोन पे सेट करना था न फिर!“

अमीषी की हंसी रुक ही नहीं रही थी, “तुझे लगा उसे बख्श दिया होगा, ही ही ही…”

बिचारे आलफोंसो की अभी हो रही हालत के बारे में कल्पना करते ही मुरली अपनी हँसी रोक न सका. “हा हा हा… तू भी न!”

“अच्छा अब तैयार भी हो ले, वर्ना लेट हो जाएगा,” अमीषी ने मुरली को चेताया.

“उफ़, शुरू हो गई मिस एडवाइस! यार, पका मत अभी से, शाम को जाना है समझी!” मुरली के इतना कहते ही अमीषी ने उसकी चुटकी ली, “दुबारा सो गया तो फिर तो शाम ही हो जानी है. चल, चल नहा-वहा लियो, पता नहीं कब से ऐसे ही फिर रहा है.” और अपनी ही बात पे उसे हंसी आ गई.

“हाँ, हाँ तेरे गाँव जो चलना है न!” मुरली ने उसे चिढ़ाते हुए कहा. उसे अच्छे से पता था कि गाँव कहते ही अमीषी भड़क उठेगी.

और वाकई अमीषी एकदम पाला पलटते हुए बोली, “सुन मुरली, दुबारा मेरे शहर को गाँव बोला तो मैं बता रही हूँ, खूब मज़ा चखाऊंगी फिर. समझे!!”

अमीषी के गुस्से को अच्छे से जानते हुए मुरली ने थोड़ा हल्के लहजे में जवाब दिया, “यार, फोन रखेगी तभी तो मैं तैयार होऊंगा न. अब तो आलफोंसो के आने का वक्त भी होने वाला है.”

जल्दी से अपनी बात को ख़त्म करते हुए, अमीषी ने कहा, “हाँ तो, मैं भी तो वही कह रही हूँ. चल सी यू देन!”

मुरली ने फ़ोन रखते हुए चैन की साँस ली, वर्ना अमीषी का गुस्सा पता नहीं उसे कितनी देर तक झेलना पड़ता. मुरली ने फिर ब्रश किया और कॉफ़ी बनाने के लिए कमरे में रखे इलेक्ट्रिक केतली में पानी गर्म होने के लिए रख दिया. साथ ही वह सोचने लगा कि पिछले 2 सालों की दोस्ती ने कितना बदल दिया है, उसे भी और अमीषी को भी.

मुरली तो जहाँ उत्त्तर प्रदेश के दिल लखनऊ से था, वहीं अमीषी थी पश्चिमी प्रान्त गुजरात की ठेठ गुज्जो बाला. शुरू-शुरू में दोनों को दिल्ली जैसे एक नए शहर के बदले माहौल और भाषा-संस्कृति के साथ तालमेल बैठाने में दिक्कत आई थी और इसी दिक्कत में उन्हें एक-दूसरे के रूप में अनजान शहर में एक सच्चा दोस्त मिला था जो इस अटपटेपन और इस हिचकिचाहट को बिना बोले समझ जाया करता था.

वो दोनों ग्रेजुएशन करने के बाद प्रोफेशनल पढाई के लिए यहाँ आये और स्पेनी सरकार की ओर से चलाए जा रहे कोर्स को कर रहे थे. अब वो स्पेनी भाषा के एडवांस लेवल पे पहुँचने वाले थे और यहीं उनके साथ आया आलफोंसो.

साधारण कद-काठी के लेकिन आत्मविश्वास से भरपूर मुरली ने नहा के तैयार हो अपना सामान एक बैग में रखा और घड़ी की ओर देखा, ‘अब तो उसे आ जाना चाहिए!’

सोच ही रहा था कि फ़ोन करे, तभी दरवाज़े पे किसी ने हड़बड़ाते हुए खटखटाया. आ गया, मुरली ने सोचा और दरवाज़े की ओर लपका.

हाँ, आलफोंसो ही था. 25-26 साल का एक स्पेनिश यायावर जैसा लड़का। “ओला अमीगो,” मुरली ने आलफोंसो का स्वागत करते हुए कहा. जवाब में आलफोंसो बोला, “नमस्ते!”

आलफोंसो थोड़ा परेशान दिखा तो मुरली ने पूछा, “कि ताल (क्या हुआ)? सब ठीक?”

“नहीं,” आलफोंसो बोला. “अच्छा, पछत्तर कितना, एल सेतेंता इ सिंको?”

“रुपए? हाँ.”

“बाले! ठीक.”

मुरली ने फौरन आलफोंसो को टोका, “ऑटो क्यों, बस से आना था, सीधा रास्ता है. अभी कहीं दाएँ-बाएँ ले जाता तो?”

“मुझको थोड़ा-थोड़ा रास्ता पता चल गया है. सामान पेसादो, भारी था न.”

मुरली ने झट आलफोंसो का बैग उठा के देखा. “घंटा भारी है! तुम ही आलसी हो जो ज़रा सा बोझ नहीं उठाया जाता, हें!”

“दखेर्लो, मारो गोली! ये बोलो, अमीषी कब तक आएगी?”

“वो यहाँ नहीं आएगी. हमें स्टेशन पे मिलेगी.”

“ओहो, किस समय?”

“यार, चल पहले कुछ नाश्ता कर लेते हैं. मेरे तो पेट में चूहों ने घमासान छेड़ रखी है!” आलफोंसो के एक के बाद एक सवालों के हमले से बचते हुए मुरली बोला।

“ओ मुरली! यहीं रूम में ही कुछ खा लें?”

“न, न, वहां पता नहीं, कुछ मनमुताबिक न मिला तो? यहाँ से तो भरपेट खा लें.”

“अच्छा, यहाँ एक दिन खा लेंगे तो तुम्हारा काम वीक भर को चल जाएगा! हा हा हा… तुम तो,” आलफोंसो ने मुरली की खिंचाई करने की कोशिश की लेकिन उसकी बात खुद मुरली ने पूरी की, “पेटू हूँ न! हा हा हा… तू नहीं है जैसे. चल, चल. अच्छे से खा के लंच पैक करा लायेंगे. बार-बार कौन जाएगा न.”

आलफोंसो मुरली के साथ बाहर के दरवाज़े की ओर बढ़ गया. आज वो बहुत खुश दिख रहा था.

“क्यों आलफोंसो, बात क्या है?”

“मैं आज जा रहा हूँ, गुजरात!! मी इमोसिओंदो (मैं भावुक हूँ.)!”

“हाँ, तेरे लिए तो वाकई ख़ुशी से पागल हो जाने वाली बात है. अच्छा अब तक कितनी बार देख चुका है?”

“क्या?” और सवाल को समझते हुए जवाब दिया, “हम दिल दे चुके सनम, यही न! कल फिर देखा.” आलफोंसो की मुस्कान उसके कानों तक पहुँच रही थी. “अब हो गया, 121 !!”

“वाओ, यू आर टू मच! और वो दूसरी वाली, अरे उल्तीमा पेलिकुला, नई वाली फ़िल्म?”

“रामलीला,” “उसको बस 36 !”

और दोनों ठठाकर हंस दिए.

दोनों ने नाश्ता किया, लंच पैक कराकर रूम में लौटे और आगे के सफर की तैयारी में मगन हो गए।

मुरली का फोन बीप्स देने लगा और उसके “हेलो,” कहते ही मानो बम फटा हो!

“मुझे पता नथी, तुम लोग मुझे ऐसे भूल जाओगे!” यह अमीषी थी।

“क्यों, ऐसा क्या कर दिया?” मुरली परेशान हो गया।

“सुबह से शाम हो गई, लेकिन किसी ने यह नहीं पूछा कि ‘अमीषी तुझे कोई हेल्प तो नहीं चाहिए?’ क्यों बता, पूछा तूने?”

“हाँ यार, ये तो है। अच्छा अब बता दियो, कोई हेल्प चाहिए क्या?” मुरली को भी लगा कि उन दोनों को इतना खयाल तो करना चाहिए।

तभी खिलखिलाती आवाज़ में अमीषी बोल पड़ी, “ओय, ज़्यादा सेंटी न हो, चल स्टेशन पहुँच लियो टाइम पे, मुझे दौड़ के ट्रेन नहीं पकड़नी।”

“हाँ, हाँ ठीक है,” खिसियाते हुए मुरली ने जवाब दिया।

तब तक आलफोंसो पास आ चुका था और मुरली का उतरा हुआ चेहरा देख के समझ गया कि अमीषी ने क्या कहा होगा। “रियाल्मांते (सचमुच), उससे तो आज बात ही नहीं किया। चलो, सेर रेपीदो (जल्दी चल)!”

“हाँ, चल जल्दी से निकलते हैं,” मुरली ने जवाब दिया और दोनों तुरत-फुरत स्टेशन चल दिए।

“हे मुरली, ट्रेन गुजरात कब पहुंचेगी?” आलफोंसो के सवाल में उत्सुकता साफ झलक रही थी। “बहुत जल्द,” यह कहा पीछे से आती साँवली-सलोनी गुज्जो बाला अमीषी ने।

उसकी ओर मुसकुराते हुए आलफोंसो पलट के बोला, “मिसिंग यू, अमीषी, येगा तार्दे, तुम तो देर से आई हो।”

“अच्छा, अब बातें न बनाओ। सुबह से तो कोई मतलब नहीं और अब…” अमीषी बात पूरी ही नहीं कर पाई कि मुरली ने नहले पे दहला मारा, “भई, हम लोग तो बेमतलब उस ऊपरवाले तक को नहीं पूछते, तुम क्या उससे बढ़कर हो गईं, हें!”

अभी अमीषी कुछ जवाब दे पाती कि तभी प्लेटफॉर्म पे ट्रेन आ के लग गई और वो तीनों अहमदाबाद जाती राजधानी ट्रेन के एसी टूटीयर के डिब्बे की ओर भीड़ के साथ-साथ बढ़ गए।

सब समान रखते और खुद आराम से बैठते कुछ ही पल बीते थे कि माइक पर महिला स्वर में यात्रियों का स्वागत किया जाने लगा और उसे सुनकर आलफोंसो के होंठों पे एक मुस्कान अटक गई।

उसे ऐसे देख मुरली ने अमीषी का ध्यान खींचते हुए कहा, “ऐ अमीषी, पता चला अपने आलफोंसो का उल्तीमा (आखिरी) score?”

“सू (क्या)?”

“121, हा हा हा…”

अमीषी भी साथ हंस पड़ी, “मुई बियन (बहुत बढ़िया) आलफोंसो! क्या बात, छा गए!”

तीनों हम-उम्र एक-दूसरे की खिंचाई करते रहे। उनकी आपस में गपशप के बीच डिनर परोस दिया गया और फिर खा-पी के सभी यात्री सोने की तैयारी में जुट गए और आलफोंसो… ‘तमारी गुजरात’ के सपने देखने में खो गया। उसके होंठों की वह मुस्कान नींद में भी बरकरार थी। और होती भी क्यों नहीं, आखिर पिछले 5-7 सालों से वो इसी जगह के सपने तो देख रहा था और बॉलीवुड-इंटरनेट के जरिये पनपा हिन्दी भाषा और गुजराती संस्कृति के प्रति उसका लगाव उसे यहाँ तक खींच ही लाया… अब कुछ घंटे दूर थी, उसके ख़्वाबों की नगरी, अहमदाबाद !!

सुबह-सुबह ठीक समय पर एक हल्के से झटके के साथ ट्रेन ‘आम्दाबाद’ स्टेशन पर जा लगी और दोस्तों की तिकड़ी पूरे जोश के साथ जा पहुंची अमीषी के पापा के ऑफिस वाले गेस्ट हाउस। आलफोंसो की चाल-ढाल में ही उसकी खुशी झलकने लगी थी। वो तो ऊंट की तरह ऐसे उचक-उचक के चल रहा था कि मुरली और अमीषी की मुस्कान गहरी हुई जा रही थी। आखिर अमीषी बोल ही पड़ी, “सू छे (क्या हुआ) आलफोंसो? इतना तो मैं भी खुश नहीं जबकि मैं कई महीनों बाद घर आई हूँ!”

अमीषी के पूछने पे आलफोंसो थोड़ा झिझका फिर बोला, “सी, सी, (हाँ, हाँ) वो ऐसा है कि उस पेलिकुला (फ़िल्म) जैसी जगह आ गया तो अब लगता है उसकी हेरोइना मिस्मा (जैसी) कोई चिका (लड़की) मिली तो क्या करूंगा?”

“ओहो! सारू छे (अच्छी बात),” और अचानक अमीषी ने अपनी हंसी रोक ली। “तो आलफोंसो, उससे भी दोस्ती कर लेना तुम। बाले (ठीक)?”

“सी, सी, हाँ, बाले!” आलफोंसो का उत्साह दुगुने जोश से वापस आ गया।

“अच्छा, जमणवार, आई मीन कोमीदा (खाने) के लिए हम 2 घंटे बाद मिलते हैं। तुमलोगों के साथ ‘नास्ता’ तो हो ही गया। अब मी कासा, मैं ज़रा अपने घर हो के आती हूँ।” अमीषी ने अपना बैग संभालते हुए उठकर कहा और रूम से बाहर निकल गई।

नवरात्रों के इस माहौल में गुजरात आना अमीषी को बहुत भाता था। इसी की कमी उसे खलती थी, वहाँ तमाम जगमगाहटों से सराबोर दिल्ली में। यहाँ की हलचल और गरबा खेलने के लिए हर उम्र में दिखता जोश उसे खूब उत्साहित कर देता था।

घर पहुँचते ही परिवार के लोगों ने अमीषी को घेर लिया और उसके और उसके दोस्तों के हालचाल पूछने लगे। कुछ देर बातचीत के बाद अमीषी का ध्यान घड़ी की ओर गया। ‘ओहो! 12 बजने वाले थे!’ वो तैयार होने के लिए जल्दी से बाथरूम में घुस गई।

एक बजे के करीब अमीषी फिर अपने दोनों दोस्तों के साथ थी। पहले उन्हें अपने घर लंच पे ले गई और फिर वहाँ से बाज़ार। “अमीषी, मैं तो धोती-छब्बा लूँगा, समझीं।” मुरली ने बताया।

“अच्छा मुरली, ज़रा ऐसी ड्रेस ले जो दिल्ली में भी पहन सके। फ़ालतू पैसे न फेंक। बड़ा आया, मैं धोती-छब्बा लूँगा, हा हा हा…” अमीषी ने मौका नहीं चूका।

मुरली का चेहरा उतर गया, “हाँ, सही कह रही है, मैं पाजामा-कुरता ही ले लेता हूँ, थोड़ा एम्ब्रोइड्री वाला। अब ठीक!”

अमीषी मुसकुराते हुए अपनी सहमति जताते हुए आलफोंसो की ओर मुड़ गई, “और आलफोंसो तेरा क्या प्लान है?”

आलफोंसो मुस्कुरा दिया।

“तुझे लगता है यह कोई जवाब देने वाला है!” मुरली ने मौके पे चौका मारा, “दिखता नहीं इन खूबसूरत ड्रेस्सेस के बीच यह अपनी हीरोइन ढूंढ़ रहा है, हा हा हा…”

मुरली की हंसी पर आलफोंसो का ध्यान उन रंग-बिरंगी पोशाकों पे से हटा। वो झट से बोला, “मैं भी मुरली जैसा लूँगा। बाले!”

“हूँ, बाले, बाले…” अमीषी हँसते हुए अपने दोस्तों को सजाने की तैयारी में जुट गई और फिर कोई 3-4 घंटे की लगकर ख़रीदारी के बाद दोस्तों की तिकड़ी एक रेस्तरां में जा बैठी।

“उफ़्फ़ अमीषी, तू भी न यार, कितना टहलाती है, एक ज़रा सी चीज़ के लिए पिछले डेढ़ घंटे से…” मुरली की बात बीच में काटते हुए अमीषी आलफोंसो से पूछने लगी, “आलफोंसो, सू पीवाणु छे? क्या पीओगे?”

आलफोंसो ने कॉफी के लिए कहा तो फिर तीनों की भी वही राय बनी और फिर वो आगे के कार्यक्रम की योजना बनाने लगे।

“तो फिर यही ठीक है, अभी चल के तैयार होकर डिनर लेते हैं और फिर चले चलते हैं पंडाल, बाले!” अमीषी ने शाम-रात के सारे कार्यक्रम का खाका खींच के रख दिया।

जब दोस्तों की तिकड़ी गरबा के पंडाल तक पहुंची तो शाम ख़ासी हो चुकी थी लेकिन पंडाल के अंदर का नज़ारा ही कुछ और था।

पंडाल में बड़े-बड़े लाउडस्पीकरों पर एक मशहूर गीत बज रहा था और यह था ‘हम दिल दे चुके सनम’ का “ढोली तारो” गीत! सैकड़ों पुरुष-महिलाएं, युवा, बच्चे और बुजुर्ग भी ड्रम की थाप और गीत की लय के साथ थिरक रहे थे। सारा का सारा माहौल अलौकिक था। यह सब देखकर आलफोंसो के मुंह से निकला, “वाउ! ला फिएस्ता! बाईले… मुई, मुई बियन!!” (वाह! उत्सव! नाच… बहुत, बहुत बढ़िया!)

“हा हा हा… हाँ, हमारे यहाँ के गरबे देश-विदेश में फ़ेमस हैं।” अमीषी ने गर्व से कहा। अभी तक मुरली भी वहाँ के नज़ारे में पूरी तरह डूबा हुआ था, उसे कुछ ध्यान आया।

“आलफोंसो, यह नुएबे नोचे, नवरात्रे फिएस्ता है।” मुरली ने आलफोंसो को बताना शुरू ही किया था कि उसके जवाब से चौंक ही गया। “हाँ, बाले, मदर गोडेस की सेरेमोनी है। शक्ति की पूजा। आई नो! दसवां दिन, दशहरा, दुर्गा पूजा फ़िएस्ता का है। बाले?”

“बाले। मुई बियन आलफोंसो! तुमको तो सब पता है, भाई!” मुरली को बहुत अच्छा लगा यह देख कर कि आलफोंसो का भारत-गुजरात प्रेम वाकई बहुत गहरा था।

तभी दोनों का एक साथ ध्यान गया। “अरे आलफोंसो, देख! कितना अच्छा नाच रही है अपनी अमीषी।” मुरली ने कहा तो आलफोंसो बोल पड़ा, “ये तो बिलकुल उस पेलिकुला की हेरोइना मिस्मा लग रही है न।” दोनों दोस्त मुस्कुरा दिये।

पारंपरिक चड़िया-चोली और ओढ़नी के साथ गरबा स्पेशल घरेणा माने गहनों से लदी अमीषी वाकई ऐश्वर्या से कम नहीं लग रही थी। और ताल के साथ उसके कदमों का मिलान तो देखने लायक था।

तभी आलफोंसो ने पूछा, “ए मुरली, अमीषी ने बाइला (नाचना) कब सीखा?”

इस पे मुरली मुस्कुरा के बोला, “आलफोंसो, यहाँ तो बचपन से ही सभी साथ-साथ थिरकते-थिरकते ऐसे नाचना सीख जाते हैं। उधर देखो, जैसे वो बच्चे सीख रहे हैं।”

मुरली के इशारे पर आलफोंसो ने देखा कि 4-5 साल के 2 बच्चे एक साथ कुछ कदम आगे तो कुछ कदम पीछे जाने की कोशिश कर रहे थे।

अब आलफोंसो को समझ आने लगा था। जब उसने साथ-साथ नाचते एक पूरी टोली के स्टेप्स को समझने की कोशिश की। एक कदम आगे बढ़ा के दोनों हाथ से ऊपर एक ताली बजाना, फिर नीचे झुक कर दूसरी ताली मारते हुए 4 कदम पीछे जाना। घूम जाना फिर अगली ताली ऊपर बजाना। ‘अरे, ये तो मुई फ़ासिल, सरल है!’ आलफोंसो ने सोचा और मुरली से बोला, “चलो मुरली, हम भी बाइलर करें!”

“क्या!” मुरली चौंक ही गया। और परेशान होकर अमीषी को नृत्यकों की भीड़ में ढूंढ्ने लगा। लेकिन इतनी भीड़ में किसी का मिल जाना इतना आसान कहाँ!

“चलो न मुरली, एस्ता मुई फ़ासिल (यह बहुत सरल है.)!” आलफोंसो ने ज़ोर डाला तो मुरली को कहना पड़ा, “सरल लगा तो तुम भी जाओ।”

जवाब सुन आलफोंसो का चेहरा उतर गया। मुरली को बहुत बुरा लगा कि उसके कारण उसका दोस्त उदास हो गया था। तभी उसे अमीषी दूर अपने कई साथियों के साथ नाचती हुई दिखी और जब उसे अपनी ओर देखते पाया तो मुरली ने उसे पास आने का इशारा किया।

अपनी साँसों पे काबू पाने की कोशिश करती हुई, हाँफती हुई अमीषी उन दोनों के पास आई और बोली, “सू छे? क्या हुआ?”

थोड़ा सकुचाते हुए, मुरली यह कहने की हिम्मत जुटा ही रहा था कि आलफोंसो बोल पड़ा, “तुम तो बहुत अच्छा नाचती हो अमीषी, मुई बियन! मैं भी फ़िएस्ता के बाइला में भाग लूँगा!”

सुन के अमीषी की खुशी का ठिकाना नहीं रहा. वह झट आलफोंसो का हाथ पकड़ अपनी टोली के साथियों से मिलवाने ले गई और फिर हर स्टेप के बारे में उसे बताने लगी।

“बाले आलफोंसो? इंतेनदेर, समझे?” फिर अमीषी ने आलफोंसो से गरबा में शामिल होने के लिए पूछा।

आलफोंसो तो इसी पल के लिए जी रहा था जैसे! उसके कदम पहले ही थिरकने शुरू हो चुके थे। गरबा के गीतों का असर ही ऐसा होता है, क्या कहें। तपाक से बोला, “सी, बाले!”

और आलफोंसो को आगे कर अमीषी उसके पीछे जाकर उस कतार में शामिल हो गई जो एक घेरा बनाके नाचने की तैयारी कर रहे थे। और अगले गीत की थाप शुरू होते-होते सबने दायाँ कदम आगे बढ़ाते हुए थोड़ा उचक के और फिर ऊपर हाथ करके ताली बजाते हुए पहले दायें और फिर बाएँ ओर को घेरे में रहते हुए ही घूमना शुरू किया। आलफोंसो ने सबके साथ कदम मिलाने की कोशिश की तो वो लड़खड़ा गया और थोड़ा नर्वस हो गया।

अमीषी ने तुरंत उसे संभालते हुए कहा, “नथी आलफोंसो, परेशान नथी हो। ऐसा तो सबके साथ होता रहता है। फिर से try करते हैं।” और आलफोंसो को फिर से अपने स्टेप्स और action ध्यान से देखने का इशारा किया। लेकिन इतनी भीड़, और हर उम्र के लोग कितने आराम से ताल से ताल और कदम से कदम मिलाते हुए नाच रहे थे इसे देख आलफोंसो परेशान होने लगा था। उसे परेशान देख आखिर मुरली को मोर्चा संभालने के लिए आगे आना पड़ा लेकिन वह भी घबराया हुआ था। उसे इससे पहले कभी समूह में नाचने का मौका जो नहीं मिला था। और मुरली भी सबके साथ कदम से कदम नहीं मिला पाया।

उस रात गरबा खत्म होने तक तिकड़ी पंडाल में तो रही लेकिन सबका मन बुझ गया था। इतनी लंबी यात्रा करके अपने स्वप्ननगरी तक पहुँचने के बाद आलफोंसो का ऐसे उदास हो जाना मुरली के साथ अमीषी को भी खल गया और उसने कुछ ठान लिया।

अगली सुबह गेस्टहाउस में जब मुरली और आलफोंसो उदास मन चाय पी रहे थे तो अमीषी हमेशा सी खिलखिलाती, जोश के साथ तेज़ कदम उनके कमरे में दाखिल हुई।

“ओला अमीगो, कि ताल (हैलो दोस्तों, क्या हाल)?”

“ओला अमीषी, ब्यूनोस दियास, गुड मॉर्निंग!” दोनों ने एक साथ अमीषी को जवाब दिया और उसके हाथों में दो जोड़ी चमचमाती सजीली डांडिया देखकर चौंक के रह गए।

“तो!” अमीषी अपने दोनों दोस्तों के चेहरे की रंगत देखकर अपनी हंसी रोक न सकी। “तुम दोनों को क्या लगा था, मेरे अमीगो इस तरह निराश हो जाएंगे तो मैं चैन से बैठी रहूँगी?”

“तो, इरादा क्या है?” मुरली को अब भी कुछ समझ में नहीं आ रहा था।

“बस, उठो जल्दी से ‘नास्ता’ कर लो और चलो मेरे साथ। तुम दोनों को अभी खूब मेहनत करनी है। ऐसे थोड़े ही न!”

“सी अमीषी, यो इंतेनदेर (मैं समझ गया.), लिस्टो, ready।” आलफोंसो पहले की तरह चहकते हुए बोला।

इस पर मुरली की मुस्कान लौट आई, “तो आज हो ही जाए!”

फिर तो सुबह और सारी दोपहर तीनों ने खूब मेहनत की। सभी ख़ास-ख़ास स्टेप्स समझकर शाम तक मुरली और आलफोंसो आज के गरबे के लिए ही क्या डांडिया तक के लिए कमर कसके तैयार हो चुके थे।

ताली बजाकर आगे और फिर पीछे को डोलना, चक्कर लगाते हुए अपनी जगह से बिना टकराए दूसरे साथी की जगह पे जाना और अगली ताल का साथ देना, दायें से बाएँ जाना और फिर डांडिया के हर स्टेप को दोनों खूब अच्छे से समझ के याद कर चुके थे। और अमीषी, उसने तो दोनों को सिखाने में अपनी कला का पूरा ज्ञान लगा दिया।

शाम को जब धोती-केडीयू पहने, पागड़ी-पटका और मोजड़ी से लक़दक़ करते बाँके नौजवानों और चड़िया-चोली और ओढ़नी के साथ गरबा स्पेशल जुलरी से लश्कारे मारती युवतियों के बीच दोस्तों की तिकड़ी पहुंची तो वो किसी से उन्नीस नहीं बल्कि बीस ही दिख रहे थे। उनका आत्मविश्वास उनकी मुस्कान से साफ झलक रहा था। पहले आरती में सबने श्रद्धा से सिर नवाया और फिर गरबा-रास में भाग लेने के लिए आगे बढ़ गए। शुरू में अमीषी ने अपने दोस्तों के साथ अलग से नाचकर गीतों की ताल और लय से उनका तालमेल बिठवाया और फिर उन्हें साथ ले अपनी टोली में शामिल हो गई। गरबा-रास के कई गीतों के बाद जब डांडिया का राउंड “गरम मसालेदार खाटी मीठी वानगी” से शुरू हुआ तब तक अमीषी के साथ आलफोंसो और मुरली पूरी तरह नवरात्रे के भक्तिमय लेकिन उत्साह से परिपूर्ण माहौल में रचबस चुके थे। उन दोनों ने आज जी खोलके डांडिया किया और हर गीत पे खूब ज़ोरशोर से थिरके।

और फिर जब गरबा का अंत ‘सनेडो’ से हुआ तो उनमें से किसी का भी मन वहाँ से लौटने का कर ही नहीं रहा था। लेकिन आगे तो कई दिनों तक गरबा खेलना अभी बाकी था। तो अगले दिन आने की आशा के साथ गरबा का समापन आरती से हुआ और सबने दिल से गुहार लगाई “अम्बे मात की जय!”

आज आलफोंसो का दिल फूल से हल्का था और मुरली का खुशी से झूम रहा था। “आलफोंसो, आज मैं बहुत खुश हूँ,” मुरली बोला, “पता है न कल कैसे बुरे हाल हो गए थे हम!”

“सी, हाँ, और मैं तो try करके भी नहीं कर पाया था,” आलफोंसो अभी तक उस बात को भूल नहीं पाया था, “पर अमीषी तो पेलिकुला की हेरोइना से कहीं अच्छी है, है न!”

मुरली मुस्कुरा दिया, “हाँ, वो तो है!”

और फिर तो रोज़ गरबा खेलते, गुजराती व्यंजनों का स्वाद लेते और नई-नई जगह घूमने जाने में कब मौजमस्ती के बीच नवरात्रे बीत गए पता ही नहीं चला।

अहमदाबाद से लौटते समय ट्रेन में आलफोंसो भावुक हो गया था, “अमीषी, तू उना मुई मुई बियन चिका, बहुत अच्छी है। और मुरली तू, चिको! तुम दोनों अमीगो ने मुझे लाइफ का सबसे यादगार फिएस्ता दिया!” और आलफोंसो इतना कहते हुए खुशी से सातवें आसमान पर पहुँच चुका था, और साथ उसके दोनों दोस्त भी!

 

 

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