“तुम कुछ करते क्यों नहीं..?”
“ऊँ ? करते तो हैं।”
“क्या”
“लिखते हैं।”
“ओफ्फो, अरे आगे के लिए। जीने के लिए?”
“करते तो हैं।”
“क्या करते हो?”
“तुमसे इश्क़।”
लड़के ने गर्दन को कुछ अंदर की तरफ़ समेटते हुए, बिला वज़ह की नज़ाक़त से कहा। कुछ यों कि लड़की झेंप गयी।
“जाओ य्यार तुमसे बात ही नहीं करनी।”
“अच्छा नहीं। अच्छा सुनो ना, तुम्हीं बताओ ना क्या करना चाहिए मुझे?”
“सीरियसली?”
“ह्म्म; बताओ।”
लड़का थोड़ा नज़दीक आते हुए बोला।
“कोई जॉब कर लो, या फ़िर गवर्मेंट जॉब की तैयारी करो। अभी तो ऐज है तुम्हारी।”
“जनरल हैं हम।”
“हाँ तो क्या जनरल वाले सरकारी जॉब नहीं करते?”
“नौकरी करना पसंद नहीं है य्यार। चाहे सरकारी ही हो, नौकर तो कहे जाएंगे ना। सरकारी नौकर।”
“तो तुम्हीं बताओ, क्या करोगे? ऐसे क्या लाइफ कट जाएगी?”
“संभवतः। अभी तो स्पष्ट नहीं कह सकते कुछ भी।”
“अरे यार, ये अपनी हिंदी हमको मत सुनाया करो। किताब में ही लिखना अपने, संभवतः।”
“ओक, फ्रॉम नाउ ऑन, आई विल ऑनली यूज़ अ लैंग्वेज यू कुड अंडरस्टैंड क्लीयर्ली।”
“ओफ्फो। तुमसे तो बात करना भी बेकार है। हम पागल हो जाएंगे।।”
“गुस्ताख़ी माफ़ हो मोहतरमा, पर आपकी तक़लीफ़ क्या है? अभी तो आपने कहा..”
“तुम शराब पिये हो क्या?”
“हा-हा-हा! नहीं, ज़रूरत ही नहीं पड़ती। आपकी नज़रें ही काफी हैं।”
“क्या..?”
“कुछ नहीं।”
“हाँ कुछ नहीं।
तुम बस बैठ के यही अंट-संट बकते रहो और मम्मी हमारा दूल्हा ढूँढ लाएंगी किसी दिन। और हमारे पल्लू से बाँध के कहेंगी -‘जाओ बेटा, खुश रहो।’
“तुम कुछ सोचोगे कि नहीं यार ?”
“नहीं।”
“आँय?”
“अरे मतलब, नहीं होने देंगे ऐसा। तुम्हारे पापा से मिलते हैं, जल्दी ही।”
“ऐसे ही मिलोगे? दाढ़ी देख लो, अघोड़ी लग रहे हो? कित्ते दिन हो गए नहाये हुए?”
“याद नहीं।”
“ऊँ-हूँ।”
लड़की ने नाक सिकोड़ते हुए, अपने रेशमी दुपट्टे से मुँह ढँक लिया।
“अरे नहीं भाई, नहाये तो थे अभी। बीच में कभी, हाँ परसों शायद।”
“क्या सोचते हो, क्या बोलते हो, क्या करते हो, कुछ पता नहीं चलता। क्यों ज़िन्दगी खराब कर रहे हो? इतना पढ़े-लिखे हो, पोस्ट ग्रेजुएट। हैंडसम हो इतने। अच्छी-खासी जॉब कर रहे थे दिल्ली में; छोड़ आये। कोई देख के कहेगा कि ये आदमी इंग्लिश का गोल्ड मेडलिस्ट है।”
“हाँ कहेगा ना।”
“कौन?”
“तुम कहोगी”
“भक्क। तुम हमेशा मज़ाक़ के मूड में रहते हो। अब सीरियस हो जाओ य्यार।”
“इधर आओ।”
“हूँ?”
लड़की ने सवालिया निगाहों से देखा।
“इधर आओ, पास में आओ हमारे, बगल में।”
हालाँकि हफ़्ते भर से ना नहाया हुआ इंसान; दिसम्बर की कड़क ठंड में भी कम नहीं महकता, मग़र प्यार को आज ज़ुकाम हो गया है। अंधा तो वो ख़ैर पहले से ही था।
“बोलो।”
“सामने क्या दिख रहा है.? एकदम सीध में।”
“दो रास्ते गए हैं।”
“पगडंडियां।”
“हाँ वही सब। तो?
“उनमें कुछ एब्नॉर्मल दिख रहा है.? कुछ भी?”
“नहीं।”
“यही तो बात है! अब देखो, वो दो पगडंडियाँ सालों से वहीं पड़ी हैं। उनमें कोई हलचल नहीं होती। एक-दूसरे से कोई बातचीत भी नहीं होती। मगर ये दोनों ही लोगों को आगे का रास्ता दिखाती हैं। अलग-अलग। अब बताओ उनमें से कौन ज़्यादा अच्छी है?”
“अच्छी है? अरे दोनों ही अच्छी हैं, रस्ता बताती हैं।”
“नहीं, उनमें से एक शिव-मंदिर की ओर जाती है।”
“और दूसरी?”
“दूसरी भट्टी पे!”
“अच्छा वो उसको देखो, उस आदमी को। अभी कार से उतरा है जो। क्या आया दिमाग़ में?”
“क्या आया, क्या। मस्त लाइफ है।”
“सैलरी मालूम है इसकी?”
“नहीं।”
“साठ हजार महीना।”
“वाओ।”
“घंटा वाओ! आज दिन कौनसा है?”
“संडे।”
“ओवरटाइम करके आ रहा है बेचारा। रोज़ लगभग इसी समय लौटता है, सुबह का निकला। अब घर जाके, जल्दी-जल्दी खा-पीके सो जाएगा। कल फिर सुबह उठ के वही सब। एक बेटा है इसे; 7-8 साल का, लेकिन मालूम नहीं किसका है। क्योंकि रात में इसका काम नौकर देखता है। थका होता है न बेचारा। तोंद देख लो, शरीर से दो फुट बाहर निकली हुई है। शुगर और बीपी का मरीज़ है बेचारा, और उमर अभी 50 भी नहीं होगी। लेकिन सैलरी है बन्दे की साठ हज़ार।”
“हे भगवान। किस काम की भईया ऐसी सैलरी।”
“अभी ये देखो, इस चींटी को देखो! देखके लगता है कि ये नन्हीं सी चींटी अपने वजन से, बीस गुना भारी सामान उठा सकती है। नहीं न?”
“तुम प्रूव क्या करना चाहते हो य्यार?” लड़की का लहज़ा सवालिया था।
“यही कि इतनी बारीक़ी से ज़िन्दगी की गहराइयों को समझा पायेगा और कोई तुम्हें? एक राइटर के अलावा।” तत्पश्चात लड़के ने एक ठंडी साँस छोड़ी।
“हर बुराई में कुछ अच्छाई, हर अच्छाई में कुछ बुराई ढूँढ लेते हैं हम। सोचो अगर हम लोग ना होते तो ज़िन्दगी कितनी नीरस हो जाती। सुबह का सूरज ख़ूबसूरत होता है, पर शाम का सूरज उससे भी कहीं ज़्यादा ख़ूबसूरत होता है। आसमानी चादर पर; किसी सुहागन का सिंदूरदान उलट गया हो जैसे। घड़ी की टिकटिक में भी एक ताल होती है। पक्षियों के चहकने में भी एक सरगम होती है, जो किसी भी बनावटी संगीत से कहीं ज्यादा मीठी है-सुरीली है। है कोई और जो तुम्हें ये सब बता सके?”
हिन्दुस्तानियों को जब सुरूर चढ़ता है तब वो फिलॉस्फी में उतर जाते हैं, लेखक महोदय के साथ भी यही हुआ। एक सींखची से ज़मीन पर आड़ी-तिरछी लकीरें खींचते हुए बोले, “और राइटर से शादी करने के दूसरे फ़ायदे भी हैं। मसलन; हम मटेरियलीज़म से ऊपर उठ चुके होते हैं, दुनियावी ख़ूबसूरती हमें प्रभावित नहीं करती। सो तुम्हारी सौतन की टेंशन ख़तम। लेखक को ज़्यादा बनाव-सिंगार का शौक़ होता नहीं, तुम देख ही रही हो। कल को तुम्हारी कमर 30 से 40 हो जाये, कोई फ़िकर नहीं। मैं फ़िर भी तुमको चाहूँगा। अब बताओ, है कोई मुझसे बेहतर कैंडिडेट?”
हाहाहाहा हाहा…
एक कहकहे ने वातावरण की सारी सिलवटों को खोल के रख दिया।
लड़की मुस्कुराते हुए बोली – “लेकिन ये सबकुछ पापा को कैसे समझाओगे राईटर साहब?”
“उनको भी दिखा देंगे ऐसा ही ट्रेलर, यही दो काम तो हम बख़ूबी करते हैं।”
“दूसरा कौनसा?”
“तुमसे मुहब्बत करना।”
लड़की मुस्कुराकर लड़के की बाहों में झूल गई।
।समाप्त।