बात बचपन की है, जब मैं अपने मम्मी के साथ उत्तर प्रदेश के एक पिछड़े शहर बदायूं में रहा करती थी. यूपी के नक़्शे में जूते जैसा आकार लिए वो क्षेत्रफल के हिसाब से सबसे बड़ा जिला था. पर केवल नाम का जिला था, जिले जैसे कोई बात नहीं थी उसमें. बदायूं की स्थापना गुलाम वंश में हो गयी थी और वो अभी भी उन्हीं पुरातन लक्षणों के साथ जी रहा था. इतिहास की किताबें बताती हैं कि इल्तुतमिश के समय १२१० ई. से १२१४ ई. तक बदायूं दिल्ली सल्तनत की राजधानी भी रहा था. पर फिलहाल तरक्की के नाम पर वहां सिर्फ सिविल लाइन्स ही थी. और मेले के नाम पर गंगा किनारे लगने वाला “ककोडा मेला”.
शकील बदायूंनी यहाँ से प्रसिद्ध गीतकार हुए. वैसे तो बदायूं से बड़े-बड़े नामी लोग हुए पर जो यहाँ से गए तो फिर वापस नहीं लौटे.
पास के महानगर बरेली में जाकर खरीदारी करना और फिर उसका रौब जताना शहर के लोगों का प्रिय शगल था. गड्ढों में सड़क या सड़क में गड्ढे वाली कहावत का जन्मस्थान भी यही शहर रहा होगा, इस बात की मैं सौ प्रतिशत गारंटी ले सकती हूँ. बिजली कभी कभी आती थी, पानी अक्सर नहीं आता था. पी डब्लू डी की सरकारी कॉलोनी के बीचोंबीच में लगे एकलौते हैंडपंप पर घर की एकलौती औलाद होने के नाते, मेड (कामवाली) के न आने पर मुझे पानी भरने जाना पड़ता था. मम्मी सरकारी कॉलेज में प्रवक्ता थीं तो हैंडपंप से पानी लाना उनकी शान के खिलाफ था, पापा दूसरे शहर में नौकरी करते थे. इसलिए अपनी एकलौती लड़की से बाल मजदूरी कराने में उन्हें कोई ऐतराज़ नहीं था.
उनका मानना था कि काम करने से बच्चे मजबूत होते हैं. उस वक़्त मैं तकरीबन सात या आठ साल की रही होंगी ! बस ये समझ लीजिये कि बचपन से ही कमांडो ट्रेनिंग मिलनी शुरू हो गयी थी.
बिजली न आना सबसे विकराल समस्या थी और उस समय इन्वर्टर का “आई” भी कोई नहीं जानता था. सर्दियों में तो इतना फर्क नहीं पड़ता था, रात में लालटेन या लैंप की गर्मी नर्म लगती पर गर्मियों में बुरा हाल हो जाता. लैंप की रौशनी में कीट-पतंगे और पसीना दोनों खूब आते थे ! हाथ का पंखा झलते हुए बिजली वालों को कोसना तो किसी हनुमान भक्त का बिना नागा हनुमान चालीसा पढ़ने जैसा था. गर्मियों में शाम को छत पर रखी चारपाई पर बिस्तर बिछा देते और जब रात में सोने जाते तो बिस्तर ठंडा हो चुका होता, अरे नहीं-नहीं ठंडा होने का मतलब मरना नहीं, खुली हवा से वो शीतल हो जाता.
जब उमस और गर्मी ज्यादा और हवा बंद होती तब पानी का छिडकाव कर उसे ठंडा किया जाता. खुली हवा में सोने का आनंद अलग ही होता था. लम्बे बांसों में फंसा कर मच्छरदानी लगाई जाती और फिर टॉर्च जला कर अन्दर घुस आये मच्छरों का बेरहमी से कत्लेआम किया जाता. पानदान, पीकदान, मसालेदानी, कूड़ेदान आदि में केवल यही एक ऐसी दानी होती है जिसमें आइटम अन्दर नहीं बल्कि बाहर रहता है. मच्छरदानी लगाने का रिवाज़ हमारे यहाँ खानदानी था. मेरे नाना आर्मी में कैप्टन रहे थे, तो मम्मी मच्छरदानी में ही पली-बढ़ी थीं. मुझे मच्छरदानी में सोना पसंद नहीं था, पर मम्मी भी आर्मी वाले की बेटी थीं इसलिए उनकी बात न मानने पर कोर्टमार्शल होने का खतरा हमेशा सिर पर मंडराता रहता. घर में कड़ा अनुशासन था, सोने से उठने तक के कठोर नियम थे. पढ़ाई में ज़रा भी कम नंबर आने पर रुई की तरह धुना जाता था.
हाँ, तो बिजली की समस्या की बात पर आते हैं जिसके बारे में ये बात शुरू हुई थी. अड़ोस-पड़ोस में जलती लालटेन मुझे बहुत अच्छी लगती थी, पर मम्मी का कहना था उससे बढ़िया रौशनी नहीं होती, इसलिए हमारे घर लालटेन नहीं थी. था एक बत्ती वाला बड़ा तगड़ा लैंप जिसमें ऊपर से कांच की चिमनी फिट होती थी. उसमें शाम होने से पहले मिट्टी का तेल भरना, उसकी बत्ती को कैंची से काट तराशना, उसकी चिमनी को कपड़े से रगड़ कर साफ़ करना जैसे काम मेरे नन्हें नाज़ुक कन्धों पर थे. ऐसे में चिमनी का टूट जाना, केरोसीन तेल फैल जाना, बत्ती का तेल में डूब खुदखुशी की कोशिश करना, फिर उसे चिमटी की मदद से निकाल कर दोबारा जीने (जलने) लायक बनाना, आम बात थी.
रात में जब लैंप की रौशनी में कीट-पतंगे आते तो उन्हें पकड़ कर लैंप में डाल देना मुझे दुश्मनों का खात्मा करने जैसा लगता. लालटेन में मुझे ये सुविधा नहीं मिल पाती. बाद में जब बुद्ध और महावीर से परिचय हुआ तब अपनी की गयी इस “हिंसा” पर मुझे भारी अफ़सोस भी हुआ था… खैर !
मोमबत्ती की शम्मा में परवाने (कीड़े) जलते देख मुझे उमरावजान के गाने “इस शम्मेफरोज़ा के परवाने हजारों हैं” की याद आ जाती, जो हफ्ते में पांच बार तो हमारे टेपरिकॉर्डर में बजा ही करता और मैं सोचती कि शायद उमरावजान के घर भी बिजली नहीं आती होगी !
जब मोमबत्ती जलती तब मैं उसका पिघलता हुआ मोम अपने हाथ पर गिरा कर, अपनी सहनशक्ति की परीक्षा लेती.
उन्हीं दिनों मैंने महान वैज्ञानिक सर न्यूटन के जीवन से जुड़ी एक घटना पढ़ी थी कि उनके पालतू कुत्ते डायमंड ने उनकी बीस साल की मेहनत पर जलती हुई मोमबत्ती गिरा दी थी. उनके ढेर सारे कागज जल गए थे, पर उन्होंने इतना ही कहा- “डायमंड तुम नहीं जानते तुमने मेरा कितना नुक्सान कर दिया”.
उनकी इस कहानी को मैं बार-बार पढ़ती और मेरी ऑंखें हर बार गीली हो जातीं.
प्रयोग के तौर पर जब मैंने एक अखबार को मोमबत्ती से जलाने की कोशिश की, तो मम्मी ने मुझे दो थप्पड़ रसीद किये और साथ में बहुत लम्बा भाषण भी पिलाया था. मेरे बाल मन को ये समझने में बहुत दिक्कत हुई कि मुझे न्यूटन की तरह पढ़ाकू बनाने का सपना देखने वाली मेरी मम्मी में खुद न्यूटन जैसी सहनशक्ति क्यों नहीं थी? वो मुझे प्यार से समझा भी तो सकती थीं !
कई सालों बाद लेखकों के किस्से पढ़ते हुए मुझे पता चला कि महान रूसी लेखक दोस्तोएवस्की दो मोमबत्तियों की रौशनी में पढ़ते थे, उन्हें लैंप की रौशनी पसंद नहीं थी. तब मुझे अहसास हुआ कि शायद वहीं से उनकी आत्मा ने मेरी मोमबत्ती में पढ़ने की क्षमता से प्रभावित हो “लिखने के वायरस” मेरे अन्दर इंजेक्ट किये होंगे !
लैंप और मोमबत्ती के साथ-साथ कुछ कांच की बोतलों में मिट्टी तेल (केरोसिन) भर उसके ढक्कन में छेद कर नाड़े का टुकड़ा डाल जुगाडू आइटम भी बनाये हुए थे, जिन्हें हम ढिबरी कहते थे. बत्ती जाने पर बाथरूम में ढिबरी जलती रहती थी. केरोसिन को मिट्टी तेल क्यों कहते थे ये मुझे कभी समझ में नहीं आया, जबकि उसमें मिट्टी कभी नज़र नहीं आती थी.
दिन सूरज के सहारे और रात लैंप-मोमबत्ती के सहारे बीत रही थी, तभी एक दिन मम्मी की दोस्त “मिस सक्सेना” हमारे घर आयीं. सांवला रंग, खिचड़ी अधपके बाल, दुबला-पतला शरीर, कद दरमियाना और चीते जैसी फुर्तीली चाल, उम्र करीब पचपन साल और मजाकिया स्वभाव !
वो मम्मी के साथ ही कॉलेज में पढ़ाती थीं. गणित की प्रवक्ता होने के कारण उनका कद बाकियों से ऊँचा था. उन्होंने शादी नहीं की थी, सारा शहर उन्हें “मिस सक्सेना” ही कहता. वो पूरे दिन गप्पे मारती रहीं, मुझे एक घंटा बैठा कर गणित के कुछ सवाल भी करा दिए. मुझे उनका आना बहुत पसंद था. वो मेरे लिए चॉकलेट लाना कभी नहीं भूलती थीं, जबकि मम्मी महीनों में कभी कोई चॉकलेट दिलवाती थीं, उनका कहना था कि पल्लवी (मेरी दोस्त) के सारे दांत ज्यादा चॉकलेट खाने से ही खराब हुए हैं. उस समय चॉकलेट मेरे लिए एक लक्सरी थी. शाम गहराने लगी ही थी कि आदत के मुताबिक बत्ती गुल हो गयी. “माचिस कहाँ, टॉर्च कहाँ” घर में एक दम से पुकार मच गयी. मैंने अँधेरे में टटोलते हुए तकिये के नीचे रखी टॉर्च निकाल ली, मम्मी ने भी ठीक उसी वक़्त फ्रिज के ऊपर रखी माचिस ढूढ़ ली. थोड़ी सी मशक्कत के बाद मम्मी ने रसोई में ढिबरी और कमरे में लैंप जला दी.
“अरे भाकुनी ! इतना कमाती हो एक “पेट्रोमैक्स” क्यों नहीं ले लेती. इतनी कंजूसी किस बात की है ? लड़की मोमबत्ती में पढ़ के ऑंखें खराब कर लेगी और ये तो कीड़े भी लैंप में पकड़ कर डाल देती है”, मिस सक्सेना भुनभुनाते हुए बोलीं।
मम्मी ने मुझे घूरते हुए लैंप से दूर बैठने का इशारा किया. “मिस सक्सेना” मम्मी को उनके सरनेम से ही बुलाया करती थीं.
“मिस सक्सेना, कंजूसी की बात नहीं. इसके पापा नहीं लेते. बोलते हैं सिलिंडर फट जाता है”, मम्मी ने सफाई देने की असफल सी कोशिश की।
“पापा की तो तुम बात ही मत करो. तुम से दस कदम आगे के कंजूस हैं. आज तक तो मैंने देखा नहीं, पेट्रोमैक्स को फटते हुए”, मिस सक्सेना तैश में आ गयीं थीं.
“मिस सक्सेना” मेरे पापा को “पापा” ही कहती थीं. उनके मुताबिक मेरे पापा बड़े खडूस आदमी थे. मम्मी भी काफी हद तक उनकी इस बात पर सहमत दिखती थीं, क्यूंकि बात-बात पर तुनक जाने वाली मेरी माँ उनकी इस बात का कभी विरोध नहीं करती थीं. मिस सक्सेना उनके लिए बड़ी बहन जैसी थीं, जिनसे वो अपने सुख-दुःख साझा करती थीं.
“मैं अकेली कैसे जाऊं पेट्रोमैक्स लेने? मुझे पता नहीं उसके बारे में, कोई ठग लेगा, कुछ ख़राब दे दिया तो ? इस बार इरा के पापा आयेंगे तब ले लेंगे”, मम्मी ने उन्हें शांत करते हुए कहा।
“भाकुनी ! तुम बाबा आदम के ज़माने की ही बनी रहना, ऐसा कौन सा कारू का खज़ाना है तुम्हारे पास, जो कोई ठग या लूट लेगा ? लेक्चरर हो पर दब्बुपना नहीं गया तुम्हारा. चलो अभी चलते हैं पेट्रोमैक्स लेने।”
“अब तो आठ बजने वाले हैं, बाज़ार बंद हो रहा होगा”, मम्मी ने धीरे से कहा।
“ठीक है, कल सन्डे है, मैं सुबह ही आ जाउंगी, कल सबसे पहले पेट्रोमैक्स खरीदा जायेगा. इस महीने साड़ी मत लेना. फालतू पैसा खराब करती हो साड़ियों में. पहले जो ज़रूरत की चीज़ है वो लो”, मिस सक्सेना ने फरमान ज़ारी कर दिया।
उनकी बातचीत को सुन मेरे मन में मिस सक्सेना के प्रति श्रद्धा और गहरी हो गयी. मिस सक्सेना अकेली होने की वजह से दिल खोल खर्च करती थीं. वो आत्मनिर्भर थीं और अपनी सुख-सुविधा के लिए किसी के भरोसे नहीं थीं. जो लेना है, बाज़ार गयीं, दो-चार दुकानों में देखा और खरीद लिया. जबकि मम्मी खरीदारी के नाम पर हर हफ्ते या पंद्रह दिन में एक साड़ी खरीद लेती थी, उन्हें इस खरीदारी पर पूरा कॉन्फिडेंस था और ठगे जाने का खतरा भी नहीं लगता था.
पेट्रोमैक्स को कुछ घरों में जलते हुए मैंने देखा था, पेट्रोमैक्स होने का मतलब स्टैण्डर्ड में इजाफा होना था. तेज़ रौशनी, चमकदार पन्ने, घर का कोना-कोना रौशन, सोचते हुए मेरी आँखों से नींद गायब हो गयी थी.
***
अगले दिन सुबह दस बजे ही मिस सक्सेना हमारे घर आ पहुंची. मम्मी, मिस सक्सेना और मैं, एक रिक्शे पर सवार हो “छह सड़का” बाज़ार पहुंचे. अलग-अलग दिशाओं से छह सड़कें वहां आ कर संगम करती. एक सड़क बैंड वालों की गली थी, एक फर्नीचर वालों की, एक सड़क सीधी घंटाघर जाती , बाकी और दो सड़कें भी जो गली-मुहल्लों की तरफ का रुख करती थीं. हमें जिसमें जाना था वो पेट्रोमैक्स सड़क थी, वहां शुरुआत में ही हमदर्द का प्रसिद्ध दवाखाना था, जहाँ पहली बार मैंने उर्दू में अपना नाम लिखना सीखा था.
जिसके बाद दो या तीन दुकानें छोड़ कर पूरा रास्ता पेट्रोमैक्स की दुकानों से अटा हुआ था. आते-जाते कई बार मैंने इन “लाल पेट वाले करिश्मों” के दर्शन किये थे पर आज दुकान की सीढ़ियां चढ़ने का पहला मौका था, जो मिस सक्सेना की जिद की वजह से नसीब हुआ था. शो केस में लगे पेट्रोमैक्स हमें ललचा रहे थे. उसका छोटा सिलेंडर ऐसे चमक रहा था मानों तेल से निकला गर्म समोसा ! मैं हर दुकान में जा कर यही कहती –“मम्मी ले लो न प्लीज.”
और मम्मी मुझे ऑंखें दिखाती हुई ज्ञान देतीं, “ऐसे मत दिखाओ कि हमें पसंद आ गया है और बहुत ज़रूरत है वरना ये दाम बढ़ा-चढ़ा कर बताएँगे।”
“पर हम तो पेटोमैक्स को लेने ही आये हैं न..!” मेरे सवाल के जवाब के बदले मुंह बंद रखने का इशारा मिलता. फिर मिस सक्सेना की तरफ देख कर बोलतीं, “बिलकुल सब्र नहीं है इस लड़की में.”
“मिस सक्सेना” बड़ी गंभीरता से दुकानदार से मोलभाव करतीं, उसके इस्तेमाल के तरीके जानती, मम्मी ऐसे सिर हिला कर “मिस सक्सेना” की तरफ देखतीं मानो कह रहीं हों, “आप इसे जलाना सीख लो पहले , मैं घर पर आपसे सीख लूंगी”.
आमने सामने, अगल बगल की कई दुकानों में चक्कर लगाने के बाद दो लीटर के सिलेंडर वाला एक पेट्रोमैक्स पसंद कर लिया गया. पांच लीटर वाला मम्मी के हिसाब से ज्यादा बड़ा और भारी था. दुकानदार ने उसकी एक चिमनी भी एक्स्ट्रा देने का प्रलोभन दिया था. मिस सक्सेना का इशारा पाते ही मम्मी ने अपने बड़े पर्स में से छोटा बटुआ निकला. बटुए से एक रुमाल निकाला, जिसमें कुछ नोट बड़े अहतियात से लपेट कर रखे हुए थे. इंतज़ाम ऐसा था जैसे पर्स में डकैती भी पड़ जाये तो डाकू आसानी से माल का पता नहीं लगा सकें.
फिर मम्मी ने नोट दो बार गिन कर मिस सक्सेना को दिए. मिस सक्सेना ने एक बार आखिरी गिनती की और दुकानदार की तरफ नोट बढ़ा दिए. दुकानदार ने बिना गिने नोट अपनी दराज में सरका दिए. मुझे लगा तीन बार गिनती हो जाने पर उसे भी नोट कम होने की गुंजाईश नहीं लगी होगी !
पेट्रोमैक्स के साथ रेशमी मेंटल का एक पैकेट भी मुफ्त आया था. मेंटल मतलब पेट्रोमैक्स की आँख की पुतली समझ लीजिये. वो चमकती थी तब रौशनी होती थी न !
पेट्रोमैक्स को गत्ते के डिब्बे में पैक कर दूकानदार ने काउंटर पर रख दिया. डिब्बे को मैंने लपक कर इस तरह अपनी गोदी में उठा लिया, जैसे घोड़ी से उतरने पर दुल्हे के दोस्त उसे कंधे पर बिठा लेते हैं.
रास्ते में रिक्शा रुकवा कर शहर के प्रसिद्ध लाबेला होटल से गरम समोसे और इमारती पैक करवाए गए. हम सब ऐसे खुश थे जैसे नई दुल्हन को विदा करा लाये हों!
घर पहुँचते ही समोसे-इमारती प्लेट्स में सजा दिए गए, जब तक मम्मी चाय बनातीं. मिस सक्सेना ने घर की खिड़कियों और दरवाज़ों पर परदे डाल दिए. भरी दोपहर में अँधेरा कायम हो सके इसके लिए पर्दों पर मोटी चादरें भी डाली गयीं . पेट्रोमैक्स को एक ऊँची मेज़ पर नया मेजपोश बिछा के रखा गया. उन्होंने पेट्रोमैक्स को ढकने के लिए लाल कपड़े या दुप्पटे की माँग की. दुप्पटा न मिलने पर मम्मी ने पुराना काला बक्सा खोला जिसे वो साल में एक-दो बार ही खोलती थीं. यह बक्सा उनके पापा यानि मेरे नाना ने दिया था. बक्सा किसी आर्मी के बंकर की तरह ही मजबूत था. उसमें लगा ताला भी कोई आम ताला नहीं था. ताला मेरे सऊदी अरब में रहने वाले चाचा लाये थे, जो हर बार मम्मी मुझे ताला खोलने से पहले बतातीं.
आर्मी वाले काले बक्से में जिसमें विदेशी ताला लगता था, मेरे लिए एक खज़ाने का रहस्य था. मम्मी की कीमती साड़ियाँ, पोटली में कई-कई तह में छुपे हुए गहने, उनके कॉलेज के ज़माने और शादी के एल्बम, एक पुराना कैमरा, सर्टिफिकेट्स, और पता नहीं क्या क्या. जब भी वो बक्सा खोलती थीं , मैं वहीं सांप की तरह कुंडली मार के बैठ जाती. और उनके मना करने के बावजूद भी एक-एक सामान को निकाल-निकाल कर देखती…
तो उस दिन बक्सा वक़्त से पहले ही खोला गया था और मैं तुरंत सारे काम छोड़ बक्से के पास आ कर बैठ गयी. मम्मी ने बक्से का ढक्कन थोड़ा सा उठा कर अपनी शादी की लाल बनारसी साड़ी निकाली और मुझे बक्से में झांकने का मौका दिए बगैर, बक्से का ढक्कन खटाक से बंद कर दिया.
मिस सक्सेना ने बनारसी साड़ी से पेट्रोमैक्स को ढक दिया.
मुझे पड़ोस के सिंह अंकल और आंटी को बुलाने भेजा गया. असल में ये सारा इंतज़ाम “मुंह दिखाई” का था, यानि पेट्रोमैक्स के उद्घाटन का !
सारी तैयारियां पूरी हो चुकी थीं. तभी मिस सक्सेना को याद आया कि माला लाना तो भूल ही गए. मुझे फिर कॉलोनी से कुछ फूल तोड़ लाने को दौड़ाया गया. मम्मी ने कुछ फूल पेट्रोमैक्स पर चढ़ाये. सिंह अंकल-आंटी हमारे अच्छे पड़ोसी थे जो हर अच्छे-बुरे वक़्त में साथ खड़े रहते थे. वो भी पूरे जोश में थे. पेट्रोमैक्स देख उनके मन में पड़ोसी सुलभ ईर्ष्या तो होगी ही पर उन्होंने इसे ज़ाहिर नहीं होने दिया.
सबसे पहले पेट्रोमैक्स का घूँघट हटाया गया, सीनियर सिटीजन होने के नाते ये मौका सिंह अंकल को दिया गया. वैसे सबसे छोटा होने के नाते यह मौका मुझे भी दिया जा सकता था. रेशमी पर्दा हटते ही पेट्रोमैक्स पर फूलों की बारिश की गयी.
उद्घाटन करने का मेरा बहुत मन था पर मिस सक्सेना ने माचिस मजबूती से अपने हाथों में थाम रखी थी. मैंने दबे हुए स्वर में “जलाने” की इच्छा ज़ाहिर की तो मुझे “अभी तुम बच्ची हो, जल जाओगी” कह कर बैठा दिया गया. उन्होंने मेंटल में माचिस की तीली लगा कर नॉब खोल दिया. तीली बिना आग लगाये ही भगवान को प्यारी हो गयी. गैस की महक नाक तक पहुँच गयी. हमारे हाथ ताली बजाते-बजाते रुक गए. एक बार फिर से तीली जलाई गयी और “सुआ” की आवाज़ से मेंटल ने आग पकड़ ली. नए मेटल को बांध कर जलना भी एक हुनर था. उसके रेशमी कच्चे धागों के बांध नॉब को चालू करते और आग लगा देते फिर पाइप में बने छेदों पर ऊँगली रख बांसुरी की तरह थपथपाते . मेंटल आग पकड़ कर फूलता और गोलगप्पे जैसा हो जाता. थोडी देर में वो आग के गोले की तरह चमकने लगता और पूरा घर रौशनी में नहा जाता.
तालियाँ बज उठी. पेट्रोमैक्स ने अपनी चमत्कारी रौशनी कोने-कोने में फैला दी थी. चाय के साथ समोसे-इमरतियां खायी गयीं. दो मिनट पेट्रोमैक्स का गुणगान करने के बाद उसे बंद कर दिया गया और परदे हटा दिए गए. इस तरह बेहद सादगीपूर्ण लेकिन जोशीले तरीके से पेट्रोमैक्स का स्वागत किया गया.
छोटी-छोटी बातों को बड़ा बना खुशियाँ मानना हमने “मिस सक्सेना” से सीखा था. अब जैसे ही बत्ती गुल होती मैं फुल जोश में पेट्रोमैक्स जलाती. पेट्रोमैक्स का शीशा बंद था तो कीड़े नहीं जला पाती थी, पर कई बार उसके नीचे बने चार छेदों में से एक से कागज की बत्ती बना जला कर ज़रूर देखती , जिसकी वजह से कई बार मेंटल में छेद हो जाता और मुझे डांट खानी पड़ती.
बाद में जब नौवी क्लास में मैंने फणीश्वर नाथ रेणु की लिखी कहानी “पंचलैट” पढ़ी तब लगा उनकी ये कहानी मेरे अनुभवों से कितनी मिलती-जुलती है . बस मेरी “पंचलेट” केरोसीन से नहीं गैस से चलती थी. हमारी पंचायत और गोधन दोनों “मिस सक्सेना” ही थीं, उन्हीं की वजह से पेट्रोमैक्स आया और उन्होंने ही सबसे पहले उसे जलाया !
Image source : Era Tak