एनकाउंटर : कहानी सत्यदीप त्रिवेदी की लिखी

सँझवाती का समय है। बाज़ार में घुसने से पहले एक मोड़ पड़ता है, उस मोड़ पर पैंतालीस-छियालीस साल की एक औरत टोकरी में तरकारी बेच रही है। औरत का बदन देहाती क़िस्म का है- भरा-भरा सा। रंग कुछ साँवला है लेकिन चेहरे पर कसावट अभी बनी हुई है। थोड़ा बनाव-सिंगार कर दिया जाए तो किसी भोजपुरी फ़िल्म में मेन लीड मिल सकता है। जिस दुकान से लगकर वो बैठी है, उसके ठीक सामने वाले घर की पहली मंज़िल की खिड़की पर एक नौजवान खड़ा है, जो बड़ी देर से उस सब्ज़ीवाली की तरफ़ एकटक देख रहा है। उसकी दिलचस्पी हालांकि सब्ज़ी में है या इस अधेड़ सब्ज़ीवाली में, धुंधलके में यह पता कर पाना थोड़ा मुश्किल है।

बाज़ार की सब्ज़ियां उठने लगीं हैं, जिससे चहल-पहल कुछ कम हो गई है। आसपास के घरों में बत्तियां जल चुकी हैं। कुछेक दुकानों को छोड़कर बाकी दुकानें बंद हो गईं हैं। जो दो-चार दुकानें खुलीं हैं उनसे आ रहे प्रकाश ने; पथ को आलोकित कर दिया है। शाम ढल चुकी है और सन्नाटा घिरने लगा है। मोड़ से अंदर दाख़िल होने पर दो-चार दुकानों के बाद, सड़क किनारे बिजली का एक निष्काम खंभा लगा है जिसपर हाशिम बंगाली नामक किसी चमत्कारी बाबा का पोस्टर चस्पा है, जिन्होंने बक़ौल पोस्टर, वशीकरण तथा मुठकरनी को सिद्धहस्त कर लिया है। बाबा सम्मोहन विद्या के भी जानकार हैं और लोककल्याण के लिये, नाममात्र की धनराशि में सौतन से निजात दिलाने की गारंटी देते हैं। उसी खंभे से लगकर मजबूत कदकाठी का एक आदमी खड़ा है जो अभी तक अंधेरे में आँखें फोड़कर बंगाली बाबा का वही पोस्टर पढ़ रहा था। पोस्टर को इत्मीनान से आत्मसात कर चुकने के बाद अब वो हर दूसरे मिनट में गर्दन घुमाकर सब्ज़ीवाली को देखता है और अपने फटे होठों पे अपनी लंबी ज़बान फिरा देता है।

सब्ज़ीवाली के चेहरे पर घर पहुँचने की हड़बड़ी साफ़-साफ़ दिख रही है। टोकरी की तली में एक गमछा बिछा है जिसपर आठ-दस तरोइयाँ पड़ीं हुईं हैं। ऐसा लगता है कि सारा सौदा तौल देने के बाद ये तरोइयाँ बेशी हो रही होंगी, मगर आख़िरी ग्राहक ने दस-पांच रुपये बढ़ने से मना कर दिया होगा, फलतः सौदा पटा नहीं और ये आध किलो तरोई शेष बच गई। इस आस में कि शायद भूला-भटका कोई आदमी झोला झुलाता हुआ इधर से निकल आएगा, सब्ज़ीवाली पिछले दो घंटों से मोड़ पर चट्टी बिछाकर बैठी है। उसकी मासूम निगाहें सामने सड़क पर टँगी हुई हैं। आज दोपहर में हुई छिटपुट बारिश ने सड़क की शक्लो-सूरत बिगाड़ दी है। पूरी सड़क कीचड़ से सन चुकी है जिसपर आते-जाते वाहनों ने आड़ी-तिरछी रेखाएं खींच डाली हैं। सहसा सड़क के दूसरे छोर पर एक महाशय दृष्टिगत हुए जो अपने तरबूजे जैसे पेट पर तरबूजा टिकाए, कीचड़ के छींटों से अपनी झक सफ़ेद पैंट को बचते-बचाते चले आ रहे थे।

खिड़की पर खड़े नौजवान ने दूर से ही इन्हें देख लिया और कुछ संभलकर खड़ा हो गया। वो आदमी जब इतने नज़दीक आ गया कि सुन सके तब सब्ज़ीवाली ने आवाज़ देकर कहा,- “भईया! तरोई लेंगे?

-“नहीं।”

“अरे ले लीजिये, इतनी ही बची है।”  औरत ने अपने गमछे की बची-खुची तरोई को समेटते हुए कहा।

“अबे नहीं चाहिए। एक बार में समझ नहीं आ रहा है?”

“अरे मालिक, तो ताव काहे दिखा रहे हैं। मत लीजिये, यही बात तरीके से बोल देते।”

“दिखाएं ताव बे? दिखाएं अभी ताव?” इतना कहकर उस आदमी ने अपने तरबूज़ को एक किनारे रखा और कमर में खुंसा हुआ देसी कट्टा, बाहर निकाल लिया। दुकानदारों को शायद इसकी उम्मीद थी क्योंकि कट्टा निकलते ही, रही-सही दुकानों के भी शटर तड़ातड़ गिरने लगे। बात की बात में बदमाश ने कट्टे को सीधा सब्ज़ीवाली पर तान दिया, “बोल साली ! ताव देखेगी हमारा? हूँ?”

“अरे मालिक हम तो ऐसे ही बस, यही इतना सौदा बच गया था।” औरत ने सर एकदम से नीचे कर लिया और अपनी टोकरी में रखा गमछा समेटने लगी, बायां हाथ गमछे में डाला और अपनी सरकारी रिवॉल्वर निकालकर तान दी।

बदमाश ठिठककर एक कदम पीछे हट गया। पिस्तौल उसके लिये हालांकि अनोखी चीज़ नहीं थी, लेकिन इससे पहले उसने किसी सब्ज़ीवाली के हाथ में शायद पिस्तौल  नहीं देखी थी। अचानक से मायावी खंभे के पास खड़े बलिष्ठ आदमी ने भी पिस्तौल लहराते हुए गर्जना की, “कट्टा फेंक दे बब्बन! हम एसटीएफ़ से हैं, साले बच नहीं पाओगे।”

बब्बन को अब सारा माजरा समझ में आ गया था। बचना तो मुश्किल है अब। माथे पर पसीने की बूंदे उभर आईं, बावजूद इसके उसने खम ठोंका और आँखें लाल करके बोला, “सालों, घात लगा के बैठे थे। आँय?”

“देखो मैडम!” बब्बन ने कट्टे को दोनों हाथों से कसकर पकड़ लिया और कुछ तनकर बोला, “हम उलझना नहीं चाहते हैं, लेकिन सरेंडर तो नहीं देंगे। बाकी फ़ायरिंग होगी तो साला दुन्नो मरेंगे। तुम दोनों जाओगे बेटा भीत्तर। भलाई इसी में है कि निकल जाने दो चुपचाप।”

इस धमकी भरे लहज़े पर मैडम केवल मुस्कुराईं और अपने दाहिने हाथ को उठाकर उसे जाने का इशारा किया। अचानक ‘धांsssय’ की एक आवाज़ हुई और अगले ही क्षण बब्बन ज़मीन पर पड़ा था। खून की एक पतली सी धारा निकलकर, पथरीली सड़क को सींचने लगी। आस-पड़ोस के घरों में चीख़-चिल्लाहट मच गई। मैडम ने गर्वीली निगाहों से ऊपर की तरफ़ देखा, ऊपर खिड़की पर खड़े नवयुवक ने दोबारा निशाना लिया और दूसरी गोली, मरणासन्न बब्बन के सीने में उतार दी। बब्बन ने बुझती आंखों से खिड़की की तरफ़ देखा, उसके चेहरे पर एक क्षणिक मुस्कान उभरी जो उसके प्राण लेकर उसकी देह से उतर गई। इस छोटे से क़स्बे की यह घटना अगले दिन प्रदेश के लगभग सभी नामचीन अखबारों में छपी।

एक अख़बार की हेडलाइन थी – एसटीएफ़ से क़रीबी मुठभेड़ में पांच हज़ार का इनामी बदमाश ढेर। पूरी ख़बर कुछ यूँ थी – ‘नीना शर्मा की अगुवाई वाली इस एसटीएफ़ टीम में, बब्बन के छोटे भाई ऑफ़िसर नितेश भी शामिल थे। सूत्रों के अनुसार बब्बन को दो गोलियां ऑफ़िसर नितेश ने ही मारीं।…’

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