पाँच साल बीत चुके हैं, बात उन दिनों की है जब मैं एंजिनियरिंग कॉलेज से पढ़ाई ख़त्म कर निकला ही था। क़िस्मत अच्छी रही कि पहले या दूसरे इंटरव्यू में ही एक बड़ी कम्पनी ने मुझे नौकरी दे दी। छह महीने उनके गुरुग्राम औफिस में काम किया और फिर उनके एक बड़े प्रोजेक्ट का हिस्सा बनाने का अवसर मिला। प्रोजेक्ट किसी फ़्रेंच कम्पनी के साथ था तो मुझे और तीन अन्य नए साथियों को चार हफ़्तों के लिए उस कम्पनी के पैरिस औफिस में जाकर प्रोजेक्ट के काम-काज के तार बिठाने थे।
हम चारों तो बहुत ही खुश थे। चौबीस-पच्चीस साल की उमर में हमारा पैरिस जाना हो रहा था। हम सभी छोटे शहरों से थे और बमुश्किल अपनी पूरी ज़िंदगी में चार-पाँच बार ही कहीं घूमने निकले होंगे, जब किसी के पापा को एलटीसी मिला हो, किसी रिश्तेदार के यहाँ किसी दूर से शहर में शादी-ब्याह हो, या आस-पास ऐसे ही जहां कोई सैलानी स्पॉट बना हुआ हो। सबके मन में अलग-अलग कल्पनायें जन्म ले रही थीं। हम चारों की पारिवारिक पृष्ठभूमि लगभग एक सी थी, सब जवान लड़के थे, सभी को लड़कियों से बात तक करने में झिझक महसूस होती थी और सभी को मालूम था कि दो-चार सालों में ही हमारी शादी होने वाली थी, फिर बच्चे, घर-बार, ज़िम्मेदारियाँ इत्यादि-इत्यादि।
और जाना भी पैरिस! दुनिया का सबसे रोमानी शहर, जहां प्रेम को सर्वोच्च दर्जा दिया जाता है, जहां की संस्कृति, विचार, कलाएँ, साहित्य, खान-पान सब आला माने जाते हैं, जहां सब लोग अपने मन अनुसार खाते, पीते हैं, मन अनुसार ही रिश्ते बनाते हैं, और जहां व्यक्तिगत आज़ादी को आधारभूत अधिकार का हक़ मिला हुआ है।
हम सब गूगल बाबा में खोज कर-कर के कहाँ-कहाँ जाना है ये देखते रहे। सबकी अपनी-अपनी इच्छायें जागृत हो चुकी थीं। समय, बदक़िस्मती से, बहुत ही कम था, चूँकि काम भी बहुत करना था वहाँ। पर एक मुद्दे पर हम सब एक थे, हमें लड़कियों के साथ का अनुभव लेना था। हमने अब तक स्त्रियों के भारतीय रूप ही देखे थे, माँ, दादी-नानी, बहन, भाभी इत्यादि। असली दोस्ती कभी किसी लड़की से कभी हुई ही नहीं और प्रेमिका होने का तो कोई सवाल ही नहीं पैदा हुआ। हमारे परिवेश में ‘वैसी’ लड़कियाँ अच्छी नहीं मानी जाती थीं, वही जो आधुनिक कपड़े पहने, अपने दोस्त रखे और उनके साथ घूमे-फिरें और फिर सिगरेट-शराब वग़ैरह पियें। करन जौहर टायिप की हाई क्लास ना हमें समझ आती, न हमारी पहुँच में थी।
हाँ, यूरोपीय या अमरीकी स्त्रियों की छवि हमारे मन में बहुत ही भिन्न थी। उनके संदर्भ में खुलापन, स्वतंत्र जीवन, हर सुख को भरपूर जीने की इच्छा जैसे ख़्याल मन में आते थे। और ये विचार हमारे पैरिस के ट्रिप के साथ बिना किसी रुकावट, हिचक या आत्म-निरीक्षण के झट से जुड़ गए। हम सबने, अपने-अपने दिमाग़ लगाकर सोचा कि किस तरह से हम ये अनुभव प्राप्त कर सकते हैं और फिर पैरिस जाने की तैयारी में जुट गए। हमने सोच रखा था कि हम क्लबों, डिस्को में जाएँगे और कम्पनी के एक सीनियर ने सुझाव दिया कि हम वहाँ के कैन-कैन डांस शो को ज़रूर देखें, और चाहें तो स्ट्रिप-शो भी जाएँ जो कि वहाँ आम समझा जाता है। हम उनकी बातें सुनकर शर्म और रोमांच से हंसते ही रहे। हमारे में से सबसे ढीठ और साहसी साथी ने तो हमारे मन में जो कुलबुला रहा था बोल ही दिया, कि हम चाहें तो किसी पेशेवर गर्ल्स-क्लब के पास जाकर अपनी इच्छायें पूरी कर सकते हैं, पर हम सभी को पता था कि ये सिर्फ़ एक बात ही थी। एक तो कुछ हमारी प्रवृत्ति ही ऐसी नहीं थी दूसरे एक साथ वहाँ जाकर कुछ करना हमारे बस की बात नहीं थी, कोई अकेले-अकेले जाकर किसी को बिना बताए हो आवे तो शायद मुमक़िन था। उन साथियों को तो मैं बहुत कम समय से जानता था, पर मेरा ऐसी जगह जाने का कोई प्लान नहीं था; जैसा मेरे घर का माहौल था उसमें ये सब सोचना भी अजीब लगता था, लिहाज़ा मैंने उनसे कभी इस बारे में दोबारा बात ही नहीं की। लड़कियों पर हमारी काफ़ी बातें ऐसे ही मज़ाक़ बन कर रह जाती थीं, कुछ लजीलेपन या खुद को ही मन में ही रची उन संभावनाओं में देखने की चेतना से भरपूर।
इस सफ़र में सब कुछ नया-नया, लाइफ़ में पहली बार हुआ। पहली बार भारत से निकले, फ़्लाइट तक पहली बार ली। वहाँ हमें लेने कम्पनी के कोई लोग आए हुए थे, उनके साथ होटल पहुँचे, जो कि कम्पनी औफिस के पास था पर पैरिस के केंद्र से मेट्रो पर लगभग एक घंटे दूर। एक रात आराम किया और अगले दिन से काम पर लग गए और काम बहुत ही ज़्यादा था। सुबह शुरू कर रात के दस बज जाते थे। बाक़ी बचे शनिवार और इतवार, पर हमें भारत से हिदायत दी गयी थी कि कोई चीज़ आधी-अधूरी नहीं छोड़नी थी, चाहे छुट्टी बर्बाद ही करनी पड़े, तो पहले शनिवार तो हम रिपोर्टों को ही पढ़ते रह गए। इतवार को होटल से निकलने की इच्छा भी नहीं कर रही थी। आधे दिन का बस टूर कर वापिस लौट गए। फिर एक और काम से भरा हफ़्ता गुजरा और उस वीकेंड को हमने निश्चय किया कि अब दोनों दिन सिर्फ़ पैरिस घूमेंगे।
अगले दिन हमने पैरिस की काफ़ी सैर करी और शाम के वक्त वापिस होटल लौटते समय एक ऐसे कैफ़े में पहुँचे जहां विश्व-प्रख्यात कलाकार पिकासो अपने दोस्तों के साथ वक्त बिताया करते थे। वहाँ काफ़ी भीड़ थी और हमारी कौफ़ी, क्रौसो और दो-तीन तरह की पेस्ट्री के साथ-साथ बिन माँगे एक-एक गिलास ठंडा पानी दिया गया, जो अन्दाज़ देखकर हमें अच्छा लगा। हम आपस में उसे देखकर हंसते-हंसते बतिया रहे थे कि मेरी नज़र एक युवती की नज़र से जा मिली जो हम चारों की ओर देख मुस्कुरा रही थी। वो अकेली ही बैठी थी और उसकी आँखें मेरी आँखों में ऐसे गड़ी कि पता नहीं क्या हुआ और मैंने उसे हमारी टेबल की ख़ाली कुर्सी की ओर इशारा कर दिया। मेरा भाग्य कि उसने मान लिया और वो धीरे-धीरे चलकर अपनी कौफ़ी व खाने की प्लेट उठाकर हमारी टेबल पर आकर बैठ गयी। हमने हाथ मिलाए, अभिवादन किया : उस सुनहरी बालों वाली, गोरी-चिट्टी, नीली आँखों वाली गुड़िया-सी दिखने वाली युवती का नाम था वालेरी।
मुझे उस समय मालूम नहीं था कि उसके मेरे साथ वहाँ बैठने से ही मेरा संसार बदल जाएगा। मेरे साथियों से उसकी अधिक बात नहीं हुई, वालेरी की अंग्रेज़ी कमजोर थी और वे उसके सामने थोड़े शर्मीले हो गए। वालेरी बहुत ही कॉन्फ़िडेंट थी, उसका व्यक्तित्व दृढ़, मनमोहक था और वो साफ़दिल थी, और उमर में वो हम सबसे दस साल बड़ी थी। पर मेरे साथ उसका एक प्राकृतिक, सहज व आसान सा रिश्ता बन गया जो भाषा का मोहताज नहीं था, हम लोग बिना ज़ुबान के आपस में सम्पर्क बना लेते थे। जब से मैं उससे मिला तब से मेरी बातचीत अपने साथियों से टूट सी गयी, मैंने उस शाम के बाद अपने बचे हुए दो हफ़्तों में से ज़्यादातर समय वालेरी के साथ बिताया, पैरिस में अपनी अंतिम रात तक।
वालेरी को शुरू से ही पता था कि मैं वहाँ कुछ ही दिनों का मेहमान था, उससे दस साल छोटा था और हमारा जो भी रिश्ता बना वो उसी छोटे समय तक के लिए ही था। मैंने गुड़िया सी दिखने वाली वालेरी का हाथ थामा, और वो एक प्रकार से प्रेम-सम्बन्धों की मेरी गुरु बनी। मैंने बची सारी रातें होटल छोड़कर उसके घर में गुज़ारी और उसकी एक आज़ाद औरत की छवि मेरे मन में बस गयी, जिसे समाज, रीति-रिवाजों, लोक-लाज किसी का कोई भय नहीं था। जब मैं उसके साथ नहीं होता तब मैं सोचने लगा कि मैं और मेरे जैसे कई तो शायद उसके लिए खिलौना ही थे, जबकि उसके साथ होने पर मुझे उसका पूरा ध्यान मेरे ऊपर ही महसूस होता। मेरा भ्रम टूटने का वक्त आ चुका था।
पैरिस से लौटने से पहले हमने तय किया कि आख़री रात एक शानदार फ़्रेंच रेस्टोरेंट में डिनर करेंगे। वालेरी के साथ मेरा किस प्रकार का रिश्ता था इस बारे में मेरी बात किसी भी साथी से तब तक नहीं हुई थी और मुझे अंदाज़ा था कि उनकी कल्पनायें कहाँ तक पहुँच रही होंगी। उनके पैरिस के क्या-क्या अनुभव रहे ये मुझे नहीं पता था, पर लग रहा था कि उनकी कोई युवती मित्र तो नहीं बन पायी थी। उनके कहने पर मैंने वालेरी को उस अंतिम रात के खाने पर बुला लिया, शायद वे हमें साथ देखना चाहते थे। रेस्टोरेंट का नाम भी वालेरी ने ही सुझाया, वो तीन मिशेलिन स्टार कैटगरी था, पर इसे दुर्भाग्य कहिए मैं आपको वहाँ के खाने के बारे में कुछ न बता पाऊँगा।
कारण यह कि टेबल पर वालेरी मेरे सामने बैठी और उसने एक बैकलेस ड्रेस पहन रखी थी। उसकी देह व चेहरा चमक रहे थे और वो काफ़ी शालीन लग रही थी। हम लोग खाना ऑर्डर करने से पहले एक बहुत ही बढ़िया मर्लो वाइन पी रहे थे और तभी मेरा एक साथी, जो वालेरी की बग़ल में बैठा था बाथरूम जाने के लिए उठा और वालेरी के पीछे जाकर उसने मुझे अपने हाथ के अंगूठे व तर्जनी उँगली मिलाकर वालेरी की ओर इशारा किया, जैसे कहने के लिए कि वो नम्बर एक सेक्सी थी, एक आँख मारी और फिर भोंडे तरीक़े से अपनी कमर आगे और पीछे हिलायी। मैं उसकी हरकतें देख मुस्काया और मैंने भी उसको आँख मारी। एक क्षण ही बीता था कि वालेरी मेरी तरफ़ आयी और उसने ग़ुस्से से भरा एक दमदार तमाचा मेरे गाल पर जड़ दिया। और अपनी टूटी-फूटी अंग्रेज़ी में बोली :
‘सभी रिश्तों में एक ही चीज़ आवश्यक होती है, वो है इज़्ज़त, फिर चाहे वो सेक्स ही क्यों न हो। मेरा शरीर इस्तेमाल करने वाली कोई वस्तु नहीं है और तुम्हारी जानकारी के लिए न ही मैंने तुम्हें कभी ऐसा समझा है!’ यह कहकर वो मुड़ी और बाहर चली गई। हमारी टेबल के पास ऐसी जगहों पर शीशे लगे हुए थे जिससे वालेरी को मेरे साथी और मेरे बीच जो हुआ वो सब कुछ दिख गया था। मेरे गाल पर उस तमाचे की वजह से लाल निशान बन गया और मुझे वहाँ बहुत जलन हो रही थी। पर उससे ज़्यादा मुझे अपने अंदर इतनी शर्म और ग्लानि हो रही थी कि मुझसे वहाँ रहा नहीं गया और उसी समय मैं होटल लौट गया।
उस तमाचे ने मुझे पूरी रात सोने न दिया, शायद ये ब्रह्मांड या कोई शक्ति ही मुझे वालेरी के द्वारा ये सीख देना चाहती थी और मुझे सब कुछ इतना साफ़ दिखने लगा कि मैं आज वालेरी का शुक्रिया कैसे अदा करूँ, मुझे नहीं मालूम। मुझे आभास हुआ कि औरत को भोग की वस्तु मानकर जिस तरह का समाज हम बना रहे हैं, वो झूठ है; मुझे आभास हुआ कि सेक्स जैसे रिश्ते में भी सम्मान अति आवश्यक है और एसिड-अटैक, रेप जैसे घिनौने अपराध औरतों को नीचा समझने का ही एक भयानक दुष्परिणाम हैं; मुझे आभास हुआ कि इंसानी तौर पर औरत और मर्द में कोई फ़र्क़ नहीं, दोनों के अधिकार बराबर हैं, दोनों एक समान हैं और मैं उस तमाचे के पल तक औरतों को जैसी वे हैं असलियत में वैसे नहीं बल्कि एक ऐसा चश्मा लगाकर देख रहा था जो मुझे समाज, परिवार से मिला और जिसे शायद मैं अपने ही फ़ायदे के लिए उतारना ही नहीं चाहता था; मुझे आभास हुआ कि वालेरी और वो सारी औरतें कितनी समझदार, ग़ैर-अहंकारी व बेहतर हैं, जो आदमी को पूरी इज़्ज़त देती हैं ये जानते हुए भी कि शायद जिन पुरुषों संग उन्होंने साथ रखा, या उनके अपने पिता, दादा, पति, भाई या बेटे, वे उन्हें रूढ़िवादी, मिथ्या खाँचे में ढले ख़्यालों में रखकर जी रहे हों, उन्हें उपभोग की वस्तु समझते हुए और उनपर अंकुश रखने के लिए, उन्हें अपने अधीन रखने के लिए उनकी भावनाओं, शब्द, भाव व इच्छाओं को अक्सर नकारते रहते हैं।
इन पाँच सालों में मैंने वालेरी द्वारा दी गई सीख को अपनी ज़िंदगी में पूरी तरह से ढाल लिया है। ऐसा करने से मुझे लगता है जैसे कि मेरा दिल अपनी सही जगह पर आ गया है। मैं भिन्न-भिन्न प्रकार के लोगों को समझ पाता हूँ, स्वीकार कर पाता हूँ और मुझे रिश्तों की पहचान का रास्ता मिल गया है। मुझे ज्ञात हो गया है कि प्यार सेक्स का मोहताज नहीं बल्कि उससे परे है और साथी के सम्मान के बिना किया गया सेक्स एक छलावा मात्र है और ये बात सारे पुरुष व स्त्रियों पर भी लागू होती है।
क्या समय नहीं आ गया है कि हम इस बारे में कुछ करें, इस फ़रेब को तोड़कर एक साथ आगे बढ़ें? इज़्ज़त करेंगे तभी इज़्ज़त मिलेगी!