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ज़ीरो : कहानी सत्यदीप त्रिवेदी की लिखी

शून्य यानी ज़ीरो। इसकी महिमा भी अपरंपार है साहब। देखिये तो कुछ नहीं है और देखिये तो बहुत कुछ है। पुरानी हिंदी फिल्मों में ग़रीब हीरो जब अपनी माशूक़ यानी हीरोइन का हाथ मांगने उसके घर जाता था, तब हीरोइन का खूसट बाप उसकी मुफ़लिसी पर हंसता था और हंसते-हसंते हीरो को ज़ीरो बना देता था। लेकिन अगली ही रील में हीरो, अंबानी की टक्कर का आदमी बनकर एंट्री मारता था और फिर लड़की के बाप को उसकी हैसियत बता देता था। हमलोग टीवी के सामने बैठकर बड़े कौतुक से ये सब तमाशा देखते थे। खूसट बाप की भीगी पलकें देखकर, हमारा किशोरमन बल्लियों उछलने लगता था। इसी जोशोखरोश में एक दफ़ा हम भी स्कूल वाली एक मोहतरमा के घर पहुँच गए थे। बस वो दिन है और आज का दिन – बाएं हाथ में रॉड पड़ी है, सीधा नहीं होता।

ख़ैर, इसी शून्य से बचपन की एक और याद जुड़ी है। बच्चे तो अबोध होते हैं। उनको कहिये कि कौवा कान ले गया तो बेचारे कान को छोड़कर कौवे के पीछे दौड़ पड़ेंगे। बालमन सुनी-सुनाई बात पर भी आँख मूंदकर भरोसा कर लेता है, बशर्ते कि मामला दिलचस्प होना चाहिए। हमने बचपन में स्वामी विवेकानंद की एक कहानी सुनी थी, कहानी कुछ यूं थी कि स्वामी विवेकानंद एक बार एक सम्मेलन में भाग लेने अमेरिका गए। उनके अमेरिका आगमन से पहले ही उनकी कीर्ति वहां फ़ैल चुकी थी। गोरे उनकी काबिलियत से चिढ़ते थे। स्वामीजी जब सभा में पहुंचे तब चुटकी लेने की बदनीयत से अंग्रेज़ों ने उन्हें ‘शून्य’ पर बोलने की चुनौती दी। स्वामीजी ने उस चुनौती को स्वीकार किया और बोलना शुरू किया और फिर लगातार सात दिनों तक बोलते रहे। बस उसके बाद से जब कभी बच्चा गैंग में मेरी बेइज्जती होती थी, मैं स्वामीजी की यही कहानी सुनाकर सबको मंत्रमुग्ध कर दिया करता था।

यह कहानी हालाँकि कोरी गप्प ही थी पर बचपन में मुझे काफ़ी रुचती थी। सभी भाई-बहनों में छोटा होने के नाते मैं बड़े दुलार से पला था, जिसकी वजह से काफ़ी बड़बोला था। इस कहानी को सुनने के बाद मुझे अपना भी कुछ स्कोप दिखने लगा था। मैं यह मानकर बड़ा होने लगा कि एक दिन मैं बड़े-बड़ों की बोलती बंद कर दूंगा। लेकिन नियति को शायद कुछ और ही मंज़ूर था। कालांतर में मेरा विवाह हो गया। बस उसके बाद से कभी बोलने का मौका ही नहीं मिला। अब मैं उस सभागार की अंतिम पंक्ति में बैठा हुआ श्रोता हूँ, जिसके सभी द्वार बंद कर दिये गए हैं और उसके पास बैठकर सुनने के सिवा; दूसरा कोई चारा नहीं है।

ख़ैर, यह सब कहने-सुनने की बातें हैं, मेरी पत्नी हालांकि बड़ी आज्ञाकारी है, (क्योंकि देवी जी अभी मेरे बगल में ही बैठीं हैं।) अब तो अवस्था चालीस को छूने वाली है। मेरा 8 साल का एक बेटा भी है, और इस बार ज़ीरो का किस्सा मेरे बेटे से ही जुड़ा है।

दिन था शुक्रवार का, दिन नहीं था- शाम ढल गई थी। मैं आँगन में बैठकर बाज़ार की लिस्ट तैयार कर रहा था, तभी अपनी कॉपी-किताब उठाए सिप्पी यानि कि मेरा बेटा आ धमका। “पापा! देखो ना ये क्वेश्चन नहीं हो रहा।”

बेटा मेरा पढ़ने में काफ़ी तेज़ है। आजतक कोचिंग लगाने की नौबत नहीं आई। एकाध बार गाड़ी फँस जाती है तो मैं देख लेता हूँ। भगवान मगर झूठ ना बुलाए, गणित में हाथ ज़रा तंग है। मैंने बुक ले ली और क्वेश्चन नंबर उन्नीस पर नज़र डाली- अलज़ेब्रा का क्वेश्चन था, डिवीज़न का। सवाल सचमुच कठिन था। मैंने लिस्ट को चपतकर किनारे रख दिया और रफ कॉपी लेकर भिड़ गया। रिज़ल्ट्स को अगर एक किनारे कर दें तो विद्यार्थी जीवन में, मैं भी बड़ा होशियार लड़का था। यह तो ख़ैर अब काफ़ी पुरानी बात हो गई है। मुझे तो पढ़ाई छोड़े भी दसियों साल हो गए।

10 मिनट की माथापच्ची के बाद आंसर निकालकर बुक में चेक किया, पहला प्रयास विफल रहा। बुक में आंसर था 1, मेरा आया 13। ख़ैर, कोई बात नहीं। अबकी फ़ॉर्मूला बदल दिया गया, संख्याओं को भी आगे-पीछे कर डाला। आंसर लाने में माथे का पसीना नाक से चूने लगा, मगर परिणाम फिर वही- ढाक के तीन पात।

अभी तक श्रीमती जी अपने काम में उलझीं हुईं थीं। मुझे गणित लगाते देखकर, कुछ जिज्ञासा से और कुछ मज़े लेने के ख़याल से आकर मेरे बगल में खड़ी हो गईं।

टेबल के एक ओर बीवी, दूसरी ओर बेटा और बीच में मैं, आठवीं की गणित में उलझा हुआ था। उस समय मुझे देखने वाले को यह भ्रम हो सकता था जैसे किसी राजकवि की गर्दन पर तलवार रखकर, उसे तीन फ़ुट लंबे वा अस्सी किलो वजनी युवराज की प्रशंसा में एक सौंदर्य काव्य रचने का आदेश दिया गया हो। पसीना टप-टप चू रहा था। लहू जलता रहा-पेन चलता रहा। चालीस मिनट के मेरे अथक परिश्रम का नतीजा आखिरकार वही निकला जो अपेक्षित था – पेन की आधी स्याही और कॉपी के आठ-दस पन्ने बर्बाद करने के बाद भी आंसर नही आया। 13 के बाद नाना प्रकार की युक्तियों से मेरा आंसर 126, 17 और फिर 3 आता रहा, लेकिन क्या मज़ाल कि 1 आ जाए।

देवीजी ने मेरे कान के पास एक लंबी साँस छोड़ी फिर मेरी दीनता पर एक व्यंग्यपूर्ण हंसी हंसकर, फ्रिज की तरफ़ चल पड़ीं। वक़्त ख़राब चलता है तो सब बुरा ही होता है। माता जी अगर बोल गईं तो फिर बेटा काहे चुप रहने लगा। ऊँट को पहाड़ के नीचे देखकर सिप्पी ने भी बम फोड़ा, ” रहने दीजिये, पापा। इसका आंसर तो सर से भी नहीं आ रहा था…” उसने जानबूझकर बात अधूरी ही छोड़ कुछ दी, लेकिन पूरा वाक्य मेरे अंतर्मन में छप गया था- “जब उनसे नही आया तो तुम कहाँ के आर्यभट्ट हो।”

मुझे मेरी लाचारगी पर हँसी भी आती थी, रोना भी आता था। मेरे एक मित्र हैं, मुकेश जी। एक कॉन्वेंट स्कूल में मैथ्स टीचर हैं। इस समय मुझे वही तारणहार नज़र आए। झेंपते हुए मैंने चुपके से अपना फ़ोन निकाला और बचते-बचाते क्वेश्चन की फ़ोटो खींचकर मुकेश जी को व्हाट्सएप कर दिया। नीचे आंसर भी लिख दिया था।

तत्पश्चात एक थके-हारे हुए योद्धा की मानिंद मैंने अपने तमाम हरबो-हथियार, यानि कॉपी पेन वगैरह सब एक किनारे सरका दिए और झोला उठाकर घर से निकल गया।

रात्रिभोज पर हल्की-फुल्की बातें हुईं लेकिन मेरा मन उचाट था। अब मेरी सारी आशाएं, मेरे परम आदरणीय मुकेश जी पर टिकी हुईं थीं। इस समय मैं वो गज था जिसकी एक टाँग मगरमच्छ ने दबोच रखी हो और संकटापन्न गज, श्रीहरि को पुकारे पड़ा था।

रात में साढ़े-ग्यारह के आसपास फ़ोन में नोटिफिकेशन आई। मैंने चेक किया तो मुकेश जी थे। मुर्दानी चेहरे पे रौनक आ गई। फ़ोन पर उँगली घुमा करके मैंने तुरंत मैसेज खोला – आंसर लिखा था ज़ीरो। मेरी सारी खुशी; प्राइवेट कर्मचारी की तनखा बनकर उड़नछू हो गई। सामने टँगी दीवार घड़ी पर नज़र डाली, फिर बगल में लटके आईने में देखा – घड़ी और मेरी शकल, दोनों पे 12 बज रहे थे। मुकेश जी को रिप्लाई में थैंक्स लिखकर फ़ोन एक किनारे रख दिया और आंखें मूँद लीं।

अगले दिन शनिवार था, मेरा ऑफ़ था। दिन तो जैसे तैसे कटा फ़िर शाम को बेटे के लौटने का इंतज़ार होने लगा। नज़रें रह-रहके घड़ी की तरफ़ जा रहीं थीं। साढ़े-तीन तक तो आ जाता है। पांच मिनट और बीते और सिप्पी महाराज घर में दाख़िल हुए।

मैंने छूटते ही पूछा, “क्यों बेटा! कल वाले क्वेश्चन का आंसर आया?” अभी वो कुछ बोल पाता इससे पहले ही श्रीमती जी ने टोक दिया, “अरे, साँस तो लेने दीजिए। अभी के अभी तो आया है। आते ही सवाल दागने लग गए।”

मैं चुप मारकर फ़ोन देखने लगा। अचानक से सिप्पी की आवाज़ सुनाई पड़ी,  “हां पापा। सर ने कहा कि उसका आंसर ज़ीरो आएगा। आंसर-शीट में गलत छपा है।”

“ओह! तभी तो मेरा आंसर नहीं आ रहा था।” मैंने जरा ऊँची आवाज़ में कहा।

सिप्पी मुस्कुराकर बोला, “पापा पता है? आंसर तो मुझे कल ही पता था, और मैंने मम्मी को बता भी दिया था। हम दोनों तो बस आपकी मैथ्स चेक कर रहे थे।”

मैंने चौंककर धर्मपत्नी जी तरफ़ देखा, वो मुस्कुराकर बाहर की तरफ़ देखने लगीं।

समाप्त

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