जूते, यों पहने तो पैरों में जाते हैं, पर इनके ठाठ बहुतेरे हैं। भारतीय समाज में सिर के ताज की भी इतनी पूछ नहीं होती, जितनी इन जूतों की होती है। कहते हैं कि इंसान की परख उसके जूतों से हो जाया करती है। किसी व्यक्ति से पहली मुलाकात में, नज़र सबसे पहले उसके जूतों पर ही जमा होती है। जूते सामने वाले की पर्सनैलिटी चेक करने का सटीक माध्यम होते हैं।
भारत के विस्तृत इतिहास में भी जूतों को विशेष दर्जा प्राप्त है। त्रेतायुग में प्रभु श्रीराम की चरण-पादुका ने ही अवध पर 14 वर्षों तक शासन किया था। युग बीतते रहे और चरणपादुका की वंशबेल फैलती रही; कालांतर में इस वंशावली में सैंडिल, चप्पल और जूतों का जन्म हुआ। इन सभी में हमारा जूता प्रमुख है और सर्वप्रिय है।
ख़ुद को त्रेता की चरणपादुका का सर्वोच्च उत्तराधिकारी बताने वाला जूता, हर जगह सीना फुलाए देखा जा सकता है। वैसे यह ख़ुमारी इस पर जंचती भी है। इस घोर कलयुग में जहां लोग अपने पुरखों की नाक से समझौता करते घूम रहे हैं, वह जूता ही था जिसने ऐसे गाढ़े समय में भी अपने गौरवशाली अतीत को धूमिल नहीं किया वरन और समृद्ध ही किया है। आज हमारे समाज में अगर जूतों का बोलबाला है, तो यह जूतों की जूता-घिसाई का ही सुफल है। हमारे होश में, गरीबों की एक बेटी की जूतियां विदेश से आतीं हैं। यह जूती, हमारे जूते की ही धर्मपत्नी है।
आजादी के बाद से, हमारे लोकतांत्रिक हलकों में भी जूतों प्रयोग बहुतायत में देखा गया है। भरे-पूरे सम्पन्न ख़ानदान से आता है हमारा जूता, घर के सभी लोग अच्छी पोस्ट पर हैं। समाज के नैतिक पतन के साथ-साथ इनकी पूछ, इनका मान-सम्मान लगातार बढ़ता जा रहा है। लेकिन जूता, स्वभाव से मौकापरस्त प्राणी है। परिस्थितियों के अनुसार अपनी उपयोगिता तय करता है। गांव के ऑर्केस्ट्रा में चला दिया जाता है, शहर के दफ्तरों में चाट लिया जाता है। रंग बदलने की अपनी इस आदत के चलते, जूता बड़े ठाठ से अपनी ज़िंदगी जीता है।
मगर अब तक की इस रामकहानी से आप यह बिल्कुल न समझें कि जूते ने अपनी ज़िंदगी में केवल ऐश्वर्य भोगा है। अपने जीवन में इसने भी बहुत से कष्ट झेले हैं, बड़े दुर्दिन देखे हैं। शादियों में मुंह-दिखाई की रसम पर बिचारे का अपहरण हो जाता है, और चौक-चौराहों के भीड़भाड़ वाले इलाक़ों में, बलात्कार। इन्हें पहनने वाला चाहे जितना बच-बचाकर चला करे, जूते अगर नए-नवेले हों, चमकदार हों तो मुए अद-बदाकर चढ़ ही जाते हैं। लेकिन इतनी कठिनाइयों के बावजूद इसने हम इंसानों का हाथ (सॉरी पैर) कभी नहीं छोड़ा। यह कहना गलत न होगा कि जूता, मनुष्य की जीवनयात्रा का साक्षी है। एक मिडिल क्लास आदमी अपने करियर-पथ पर जैसे-जैसे बढ़ता जाता है, जूतों की ड्यूटी भी तदनुसार बढ़ती जाती है। पहले इसे खुद को घिसना पड़ता है, फिर इसे चमकाया जाता है, और तो और, कुछेक ख़ास जगहों पर इसे चलाना भी पड़ सकता है।
सौभाग्यवश या दुर्भाग्यवश, अभी मैं जूते घिसने की अवस्था में हूं। घिसना क्या है, घिस चुके हैं। तीन साल पहले लोकल मार्किट में ऑर्डर देकर पूरे सात-सौ रुपए में बनवाया था इन्हें, अब घिसकर तार-तार हो चुके हैं। मेरे जैसे तारणहार ने इसे पहनकर ऐसा तारा है, कि अब हर जगह से बस तार ही तार दिखते हैं। दुकानदार, यों तो गारंटी छः महीने की दे रहा था, पर मेरी माली हालत को और मेरी रोनी सूरत को देखते हुए, सालभर की गारंटी दे दी थी। कुछ हमारे जूतों की ख़ासियत और कुछ हमारी तीन साल में कभी रेख नहीं आने पायी। मगर अब बेचारे ने जवाब दे दिया है। मैंने भी ज्यादा हुज्जत करना ठीक नहीं समझा। सोचा इंसान को भी साल भर में तीन दफ़ा डॉक्टर के यहां जाना पड़ता है, ये तो फ़िर भी जूते हैं।
सो एक दिन मैंने इन्हें काली पन्नी में डाला और गांधी चौक की तरफ़ निकल पड़ा। सुबह-सुबह की बात थी। रास्ते में एक हमारे परम मित्र मिल गए। मेरे हाथ में काली पन्नी देखकर सोचते होंगे कुछ खाने का सामान है, सो लपककर मेरे हाथों से उन्होंने पन्नी झटक ली। सामान तो वैसे खाने का ही था पर जूतों की जो दशा देखी तो मुँह बना लिया। बोले, ‘अबे, रहम कर य्यार। अब एके कहां बनवावे जा तरे, कुछ बचल नईखे एम्मे। नया ले ले अब, हेके रिटायर क दे। (इसको बनवाने क्यों ले जा रहे, इसमें कुछ बचा नहीं है। इसे रिटायर करके नया लेलो।)’
हालांकि वो समझदार व्यक्ति हैं। अगर चाहते तो मुझे इन जूतों को दान करने की नेक सलाह भी दे सकते थे, पर उस हालत में, इन जूतों का दान लेने वाला उल्टे मुझी को दो-चार सौ रुपए देकर कहता, ‘भाई, नया ले लेना।’ शायद यही सोचकर उसने यह मशविरा नहीं दिया।
बात सुनकर मुझसे चुप नहीं रहा गया। नए जूते ले लूं? अजी साहब मैंने कच्ची गोलियां नहीं खेलीं। बात चाहे उसने जैसी कही हो अपन ने भी पलटकर जवाब दे दिया, ‘भाई रिटायरमेंट की अर्जी दी थी, पर जूतों की कर्तव्यनिष्ठा को देखते हुए इनको एक्सटेंशन मिल गया है। अब मैं क्या करूं?’
मेरे जवाब पर उसने मुझे बड़ी काइयां नज़रों से देखा, परोक्ष रूप से मुझे कंजूस कहना चाहता होगा। हम भी मगर मोटी चमड़ी के बने हैं बेटे, ठेंगा फ़र्क नहीं पड़ता। क्या करें भाई, हिंदी का लेखक ठहरा- ‘कंजूसी आदत नहीं, मजबूरी होती है हमारी।’
ख़ैर, मैं वहां से तेज़ कदमों से चलता हुआ सीधा मोची की दुकान पर पहुंच गया। दुकान नहीं थी। प्लास्टिक के दो बोरे बिछाकर बैठा था वो। वही उसका काउंटर था, वही उसकी कुर्सी। सामने कई तरह के जूते रखे थे-लाल-काले-भूरे। जूतों के रंग से मिलती-जुलती डिब्बियां भी रक्खी थीं और दो-तीन छोटे-बड़े शू-ब्रश। जुलाई का महीना था और सिर पे कोई साया नहीं। उसकी ग़रीबी उसके झुर्रीदार माथे से टप-टप चू रही थी। पन्नी उसके हवाले करते हुए मैंने कहा, ‘चाचा! देख लीजिये जहां-जहां जरूरत हो, सिलाई मार दीजिये।’ चाचा ने पन्नी में हाथ डाला और जूते निकालकर सामने रख लिये। पहले तो जूतों को उलट-पलटकर बड़ी देर तक देखता रहा, फ़िर जब आश्वस्त हो चुका कि ये जूते अंग्रेज़ों के ज़माने के नहीं हैं, तो फिर मेरी तरफ़ देखने लगा। मैं समझ नहीं पाया कि बेचारा हँसना चाहता है या रोना। मुंह घुमाकर मैं दूसरी तरफ़ देखने लगा।
बड़ी हिम्मत जुटाकर वो बोला, ‘बाबू, पचास रुपिया लागी।’
मैंने राहत की सांस ली। नहीं, दाम सुनकर नहीं, यह जानकर कि इनकी मरम्मत भी की जा सकती है।
जूतों की जो दशा थी, मरम्मत के वैसे तो पचास रुपये भी कम थे, फिर भी मैंने ‘रेस्त्रां में टिप देने वाली और मोचियों से मोलभाव करने वाली’ हम भारतीयों की शाश्वत परम्परा के अनुसार, उससे जब मोलभाव किया तो अगला चालीस पर जाकर तैयार हुआ।
मुझे आधे घन्टे बाद आने का बोलकर, उसने जूतों में अपना सिर दे दिया।
मैं, जूतों की दशा और मोची की उम्र का लिहाज़ करते हुए, लगभग अढ़ाई घन्टे बाद पहुंचा। जूते सिलकर तैयार रखे थे। बूढ़े के हाथों में सचमुच कारीगरी थी। बेजान जूतों को प्राणदान मिल गया था। कई जगह चिप्पियां लग जाने के बावजूद, जूते अब चमकने लगे थे। मुझे देखते ही उसने जूते उसी काली पन्नी में डाल दिये। चालीस रुपये अदा करके, मैं पन्नी झुलाता हुआ घर चला आया।
शाम को मैं अपने उसी दोस्त के पास, उसकी दुकान पर बैठा था जब मैंने देखा कि वही बूढ़ा मोची, सब्ज़ी के झोले में एकाध किलो का वजन लिये चला आ रहा है। उसके दूसरे हाथ में एक हवा-मिठाई भी थी। गरीबों को मिठाइयां बहुत खट्टी पड़तीं हैं। दाल-भात-साग खाने वाले घर में जिस दिन मिठाई आ जाए, उस दिन ये मान लेना चाहिए कि आज कमाई अच्छी हुई है। मिठाई के वजन से, कमाई की रक़म तय की जा सकती है। बूढ़े ने हवा-मिठाई शायद अपने नाती-पोतों के लिये ख़रीदी है। उसकी चाल में तेजी है, और थके हुए बूढ़े चेहरे पर; घर जाने की अकुलाहट। मैं किसी सोच में डूबने लगा-किन्हीं ख़यालों में तैरने लगा। मेरा ध्यान तब टूटा जब दोस्त ने मुझे धौल मारके पूछा, ‘केतना पड़ल सियाई? (सिलाई कितने की पड़ी?)’
मैंने बेफ़िक्री से कहा, ‘चालीस।’
उसने चौंककर पूछा, ‘चालीस?’ फिर हँसकर बोला, “ठगा गईले!”
जवाब में मैं कोई लंबी-चौड़ी, वज़नदार बात कह सकता था, पर मेरे सामने अभी हवाई मिठाई के बाल उड़ रहे थी। मैंने हँसकर सिर्फ़ इतना कहा, ‘जाए दे।’