नेटफ्लिक्स पर हाल ही रिलीज वेबसिरीज ‘अ सूटेबल ब्वाय’ विक्रम सेठ के उपन्यास का रूपांतरण है। कहा जा रहा है कि बीबीसी द्वारा बनाई गई सबसे महंगी सिरीजों में से एक है…
प्रसिद्ध हिंदी लेखिका मन्नू भंडारी की एक कहानी है ‘यही सच है’, पूर्व प्रेमी और वर्तमान प्रेमी के बीच मानसिक, भावनात्मक रूप से झूलती नायिका की कहानी। जिस पर फिल्म बनी है ‘रजनीगंधा’ (1974)। निर्देशन किया था बासु चटर्जी ने। अमोल पालेकर, विद्या सिन्हा, दिनेश ठाकुर मुख्य भूमिका में हैं। समकालीन लोग बताते हैं कि कहानी हिंदी जगत में तहलका मचा देने वाली कहानी थी, जब सिनेमाई रूपांतरण हुआ तो सरलता का जादू साफ दिख रहा था।
इतनी पुरानी कहानी और फिल्म का जिक्र हम क्यों कर रहे हैं भला!
नेटफ्लिक्स पर हाल ही रिलीज वेबसिरीज ‘अ सूटेबल ब्वाय’ विक्रम सेठ के उपन्यास ‘अ सूटेबल ब्वाय’ (1993) का रूपांतरण है। कहा जा रहा है कि बीबीसी द्वारा बनाई गई सबसे महंगी सिरीजों में से एक है। जब यह किताब आई थी, हंगामा बरपा था। विक्रम सेठ ने माना था कि लगभग 1400 पृष्ठों के इस वृहद उपन्यास को लिखने की प्रेरणा उन्हें चीन के चार महानतम क्लासिक उपन्यासों में से एक गिने जाने वाले ‘ड्रीम ऑफ द रेड चेम्बर’ से मिली थी, चीन में इन चारों को वही दर्जा हासिल है जो होमर के ‘इलियड’ और ‘ओडिसी’ को है।
वेबसिरीज के रूप में इसे मीरा नायर ने डायरेक्ट किया है, सेकिंड यूनिट डायरेक्टर के तौर पर शिमीत अमीन का नाम देखना भी सुखद है। हम उन्हें ‘चक दे इंडिया’ से जानते हैं। तो कथासूत्र यह है कि आजादी के बाद के दिनों में लता मेहरा नाम की लड़की ब्रह्मपुर नाम के फिक्शनल शहर की यूनिवर्सिटी में पढ़ती है, एक मुस्लिम सहपाठी से प्रेम करती है, मुस्लिम लड़के से प्रेम विवाह में तब्दील होगा या मां लड़कों की खोज करते हुए जिस लड़के पर नजर टिकाती है वह लड़का या फिर उसकी बंगाली भाभी अपने जिस कवि भाई से उसकी शादी करवाना चाहती है, कौन सूटेबल ब्वाय साबित होगा, यही इस कथा का बुनियादी संघर्ष या कॉनफ्लिक्ट है, बाकी कई उपकथाएं हैं। प्रेम विवाह बनाम परंपरागत अरेंज विवाह को भी विक्रम सेठ यहां अपने तरीके से जेरेबहस ले आते हैं जिसे मीरा नायर कायदे से दिखा देती हैं और जाहिर करने से बचा जाता है कि वे किस तरफ हैं। कहानी प्रकट करती है, वह अलग बात है, और इस प्रकटीकरण में देशकाल का भी हाथ रहा होगा।
कहानी की प्रोटेगनिस्ट लता मेहरा के रूप में तान्या मानिकताला ताजगी भरा चेहरा है। किरदार को जिंदा कर देने वाली मासूमियत से लबरेज ताजगी। उनका अभिनय में यह डेब्यू बेशक आगे के लिए बड़ी उम्मीदें जगाने वाला है। उसका किरदार प्रेम की खोज, पहचान, ठहराव और निरंतरता को समझने की कोशिश करने वाला किरदार है। विक्रम सेठ के लिए पचास के दशक में भारत में ऐसे किरदार को सोचना और रचना दोनों ही बहुत चुनौतीपूर्ण रहे होंगे, और उसे पर्दे पर उतारना मीरा और तान्या दोनों के लिए कहीं बहुत ज्यादा मुश्किल रहा होगा।
हिंदुस्तान की आजादी, भारत-पाकिस्तान विभाजन, जमींदारी का पतन, पहले आम चुनाव कहानी के जिंदा तूफानी किरदार हैं, जिनसे कहानी समंदर की लहरों की तरह प्रभावित होती है। लता मेहरा की हिचकोले खाती नाव किस सूटेबल ब्वाय के साहिल लगेगी, यही इस समुद्री यात्रा का रोमांच है।
उपन्यास और इस सिरीज की बात करते हुए इसके किरदार सईदा बाई फैजाबादी की बात न करें, ऐसा हो नहीं सकता। एक तवायफ भर का किरदार नहीं है, कहानी में उसकी मुकम्मल अहमियत है। तब्बू इसे निभाते हुए उमराव जान की रेखा की याद दिलाती हैं। मेरी नजर में उमराव के किरदार में इतने शेड्स नहीं थे, जितने सईदा में है। उनके किरदार में नफासत और नजाकत को जिस तरह गूंथा गया है, अवध की तवायफों की उस तहजीब और रवायत का अक्स दस्तावेजी मेयार के साथ ऐसे झिलमिलाता है जैसे शरद पूर्णिमा की रात झील में चांद उतरे तो हम उसका दाग कहां याद रखते हैं, और ऐसे किरदार के इस मेयार का श्रेय बेशक विक्रम सेठ से ज्यादा मीरा नायर को जाएगा। और यहां, सईदा बाई का मान कपूर यानी ईशान खट्टर को ‘दाग साहब’ कह कर पुकारना, उफ्फ! गोया, वे मशहूर शायर दाग देहलवी को भी एक अच्छा खासा ट्रिब्यूट दे देती हैं।
सिरीज की क्रेडिट लाइन में एक नाम और देखना भी सुखद हैरानी और सुकून देता है, वह है संगीत में अलेक्स हेफ्स के साथ अनुष्का शंकर। उनके पिता महान सितारवादक पंडित रविशंकर ने तो कई भारतीय और विदेशी फिल्मों में सगीत दिया ही था, अनुष्का को इस भूमिका में देखना सुखद तो है ही, बीबीसी की इस सिरीज में खालिस भारतीय वाद्यों की तान को सुनना मीठी सी उम्मीद भी जगाता है।
पिछले कुछ दशकों में बेहद चर्चित बीबीसी सिरीज ‘हाउस ऑफ कार्ड्स’ के लेखक एन्ड्रयू डेविस ने इस सिरीज की पटकथा लिखी है, उनका सार्थक होना सिरीज में बराबर महसूस होता है। प्राइड एंड प्रिजुडिस और वॉर एंड पीस जैसी क्लासिक किताबों के टीवी एडाप्शन भी उन्होंने लिखे हैं।
प्रेम का इकहरापन या एककोणीय पर्सपेक्टिव हमारे यहां गीतों, कविताओं, नाटकों, कहानियों और सिनेमा में अटा पड़ा रहता है, इसके विविध रूप और उनके आयाम कोई विरला ही छूने की कोशिश करता है, क्योंकि वह नितांत जोखिम का इलाका है, मनुष्य की सहज प्राकृतिकता के बरक्स नैतिक-अनैतिक, सामाजिक-असामाजिक, वैधानिक-अवैधानिक के जोखिम। जो कला रूपों के व्यवसायिक हितों को प्रभावित करते हैं। इन जोखिमों के अभाव में बनता जाता ‘क्लीशे’ अंतत: कलाओं के लिए ही बड़ा जोखिम बन जाता है, कलाओं के डार्क जोन वाला जोखिम जो नए उजालों से खौफ खाते-खाते कला का ब्लैकहोल रचने लगता है।
विवाह संस्था अपनी परिकल्पना और स्थापना से ही पितसत्ता की पोषक और स्त्रीविरोधी रचना है, और इसी बुनियादी खामी ने इसे मनुष्योचित स्वाभाविक प्रेम की क्रीड़ास्थली बनने नहीं दिया, प्रेम के लिए उर्वर जमीन और फूल तो क्या कांटे ही ज्यादा बोए हैं। प्रेम और सहजीवन जैसे सुंदर विचार अभी हमारे विकासशील और अविकसित समाजों में यूटोपियन खयाल ही हैं, क्योंकि उसके लिए पर्याप्त परिपक्वता अभी हमारे जेहनों ने अर्जित ही नहीं की है। और यही बिंदु है जो मेरी नजर में ‘यही सच है’ और ‘अ सूटेबल ब्वाय’ को जोड़ता है। यही वजह है कि ‘अ सूटेबल ब्वाय’ को देखते हुए लता मेहरा के किरदार पर ‘रजनीगंधा’ फिल्म का योगेश लिखित खूबसूरत गीत मेरे कानों में बजता रहा- ‘कई बार यूं भी देखा है, ये जो मन की सीमा रेखा है, मन तोड़ने लगता है..’।