एमएक्स प्लेयर पर आई फिल्म ‘पंचलैट‘ फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी ‘पंचलाइट’ का एडाप्शन है, विडम्बना है कि इतने महान कथाकार की कहानियों पर यह दूसरी ही फिल्म है, पहली फिल्म बासु भट्टाचार्य के निर्देशन में बनी ‘तीसरी कसम’ थी, जिसमें राजकपूर, वहीदा रहमान मुख्य भूमिका में थे। और, पहली और दूसरी फिल्म के बीच पचास साल का फासला है।
‘पंचलैट’ देखी, प्रेम मोदी के निर्देशन में बनी है, हिंदी के कालजयी कथाकार फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी ‘पंचलाइट’ का एडाप्शन है, फिल्म एमएक्स प्लेयर पर आई है, और आपसे गुजारिश है कि तुरंत देख लीजिए, ये हिंदुस्तान का सलीमा है, हमारा सलीमा। हमारी सोच, हमारे सवालों, हमारे सरोकारों का सलीमा। यह पश्चिम का निर्लज्ज पिष्टपेषण नहीं है, ना ही फूहड़ हास्य का उत्सव है। यह हमारी जमीन की कहानी है, और मेरी नजर में स्टोरी टेलिंग भी पूरी तरह भारतीय क्योंकि नाटक और सिनेमा के पश्चिमी सिद्धांतकारों की बजाय भारतीय मनीषा खासकर भरत मुनि के नाट्यशास्त्र की प्रेरणा इस फिल्म में ज्यादा दिखती है। इसके लिए फिल्म के निर्देशक के साथ पटकथाकार राकेश कुमार त्रिपाठी के लिए दिल से शुक्रिया बनता है।
इक्कीसवीं सदी में जबकि हर हाथ में मोबाइल है और उसमें टॉर्च है तो उन्नीसवीं सदी में ऐसे गांव की कहानी कहना जहां पहली बार पंचलाइट आई है, रोमांचक तो है, बाजार के नियमों का निषेध या प्रतिकार, प्रतिरोध भी है। पागल निर्माता, निर्देशक ही यह कर सकते हैं। पर देखते हुए उन पर घना सारा लाड़-प्यार आता है।
तो रचनात्मक रूप से फिल्म का जादू ‘ जहाज के कैप्टन’ यानी निर्देशक प्रेम मोदी की माया है। मेरी राय में, फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी के साथ उन्होंने न्याय ही किया है, इस जरूरी डिस्क्लेमर के साथ कि एक पाठक और दर्शक की तरह ही मेरी राय को लिया जाना चाहिए। रेणु का प्रेमचंद के साथ हिंदी में वही स्थान है जो उर्दू में मंटो, क्रिश्न चंदर, बेदी का है, बांग्ला में टैगोर, विमल मित्र या शरदचंद्र का है या विश्व कथा साहित्य में चेखोव, ओ हेनरी या मोपांसा का है। रेणु की कथाएं अब भारतीय जनमानस में लोककथाओं का मेयार हासिल कर चुकी हैं। विडम्बना है कि इतने महान कथाकार की कहानियों पर यह दूसरी ही फिल्म है, पहली फिल्म बासु भट्टाचार्य के निर्देशन में बनी ‘तीसरी कसम’ थी। हम जानते ही हैं कि राज कपूर, वहीदा रहमान मुख्य भूमिका में थे, मशहूर गीतकार शैलेंद्र इस फिल्म के निर्माता थे। कमोबेश यह स्थिति हिंदी के कई महान कथाकारों के साथ है। संदर्भवश कहना ठीक रहेगा कि आकार में बहुत छोटा होने के बावजूद बांग्ला सिनेमा में हर साल एक या एक से ज्यादा फिल्में किसी न किसी बांग्ला साहित्यिक कृति का एडाप्शन होती है।
और हिंदी फिल्मों में हिंदी साहित्य की उपस्थिति तो नगण्य रही है, लोकप्रिय साहित्य से भी फिल्मी एडाप्शन कम ही दिखता है। भारतीय परिवेश की अंग्रेजी फिल्में फिल्मकारों तक जल्दी और आसानी से पहुंचती हैं और वही हिंदी सिनेमा के लिए ज़रूरी ईंधन दे देती है, तो अंग्रेजी माध्यम से देश-विदेश में पढ़कर आया फिल्मकार हिंदी साहित्यिक या लोकप्रिय लेखन की किताब क्यों ही खोजे!
बहरहाल, पंचलैट की ही बात करें, निर्देशक प्रेम प्रकाश मोदी के होने से यह कलकत्ते की फ़िल्म भी है। कभी कलकत्ते में, मद्रास की तरह खूब हिंदी सिनेमा बनता था, उस युग की वापसी की आहट अगर ‘पंचलैट’ दे रही है तो इसे सुखद संकेत की तरह लेना चाहिए। प्रासंगिक बात है कि रीता झंवर और सुदीप रंजन सरकार भी वहाँ से वैश्विक हिंदी सिनेमा बनाने की कोशिशों में जुटे हैं।
यूँ मैंने यह फ़िल्म दुबारा देखी है, पहली बार संयोग से थिएटर में देखी थी। खास बात दर्ज करने लायक है कि अब ओटीटी पर देखने पर वह पहली बार का जादू और सुख कम नहीं हुआ है।
सबसे पहले, ऐसी प्यारी फिल्म के खयाल पर भरोसा करके पैसा लगाने वाले प्रोड्यूसर्स को बड़ा सलाम बनता है। एक प्यारी बात, मुम्बई PVR Infinity के ऑडी 2 में जब दाखिल हो रहा था, तो उसके बाहर एक सज्जन अपने साथियों के साथ एंट्री के लिए बात कर रहे थे, जितनी विनम्रता से उन्होंने कहा कि ”यार, मैं इस फ़िल्म का प्रोड्यूसर हूं”, वह बड़ा दुर्लभ है.. इतने विनम्र प्रोड्यूसर कहां होते हैं! सच में ऐसे प्रोड्यूसर्स ही इतनी ग्रासरूटेड फ़िल्म और रेणु जी की कहानी पर पैसे लगा सकते हैं।
फेस्टिवल प्रीमियर के बाद सीमित थियेट्रिकल रिलीज हुआ था, कायदे से फ़िल्म एमएक्स प्लेयर जैसे लोकप्रिय ओटीटी पर आने से ही अपने डिजरविंग ऑडिएंस तक पहुंच रही है।
फिल्म के मुख्य अभिनेता अमितोष नागपाल ने तो कमाल किया है। बहुत मुहब्बत। हालांकि इन सालों में वे हिंदी मीडियम और सरदार का ग्रैंडसन से हिंदी सिनेमा के संवाद लेखक के रूप में खासे सफल और चर्चित हो रहे हैं पर उनका एक्टर का यह रूप मेरी पहली पसंद रहेगा। उनके बाद, ज़िक्र बनता है, युवा प्रतिभाशाली अभिनेता पुनीत तिवारी एक प्यारे से किरदार में हैं, उतने ही प्यारे जितने वे असल जिंदगी में हैं। उनसे उम्मीदें भी बहुत हैं और भरोसा भी कि हिंदी सिनेमा में अभिनेता के रूप में यादगार और लम्बी पारी खेलेंगे।
फिल्म की नायिका अनुराधा मुखर्जी ने पिछली सदी के पचास के दशक की लड़की को इस फ़िल्म में मासूमियत के साथ साकार किया है। अतिशयोक्ति अलंकार का सहारा लेकर कहूं तो अनुराधा ने ‘तीसरी कसम’ की वहीदा की मासूमियत और अदाकारी को टक्कर दे दी है। वे इस मासूमियत भरी दारुण, दुर्लभ सुंदरता के अलावा इस बात के लिए भी याद रह जाती हैं कि उनके अभिनय में ठहराव और संजीदगी भी है। ऐसी अभिनेत्रियां हिंदी सिनेमा में अब कहाँ हैं!! उनकी आगे की यात्रा दिलचस्प होने वाली है। हिंदी फिल्म क्रिटिक्स की यक़ीनन उन पर निगाह रहेगी।
अन्य किरदारों में, यशपाल शर्मा, राजेश शर्मा, रवि झांकल, बृजेंद्र काला ने कहानी को खूब संभाला है। कोलकाता के हिंदी रंगमंच की जानी-मानी अभिनेत्री कल्पना झा ने कम बोलकर ज्यादा अभिनय किया है। अच्छी अदाकारा तो वे हैं ही, मेरा यकीन है कि वे लगातार हिंदी सिनेमा में दिखेंगी तो असरदार अभिनेत्री साबित होंगी, वे अपने होने भर से किसी फिल्म को कलाकृति बना सकती हैं।
यहां, हाल ही आई एक पंजाबी फिल्म का जिक्र भी जरूरी है– ‘लाट्टू’। मानव शाह निर्देशित इस फिल्म का कथा सूत्र यह है कि गांव में पहली बार बल्ब आया है। कैसे उस किरदार और परिवार की अहमियत बढ़ जाती है, बल्ब वाले परिवार से शादी का रिश्ता जोड़ने की कहानी बनती है। बेशक यह एक मीठी फिल्म है, अमेजोन प्राइम पर देखी जा सकती है।
यह भी कड़वा सच है कि गांव हाल के दशकों में हमारे मुख्य धारा के सिनेमा में लगभग अदृश्य ही है, ऐसे में ‘पंचलैट’ एक विनम्र जुगनू की तरह ही आयी है। यह गांव का मासूम जुगनू शहरों के स्याह अंधेरों को भी चीरता है। समकालीन हिंदी सिनेमा में विशाल भारद्वाज जैसे विरले फिल्मकार ऐसी कामयाब कोशिशों में लगे रहते हैं।
‘पंचलैट’ को दुबारा देखते हुए अहसास होता है कि अच्छी फ़िल्म पुरानी शराब और पुरानी दोस्ती की तरह ही असर करती है। उन्हें सहेजना चाहिए।