भारत गुरुओं और गुरुघंटालों का देश है। गुरुओं को शिक्षक दिवस के सिवा अब कौन याद करता है भला ! हम अमेजोन पर हाल ही आई हंसल मेहता की फिल्म ‘छलांग’ के कारण उनकी बात कर रहे हैं …
हमारा देश विश्वगुरु था या नहीं, और फिर से बनेगा कि नहीं, यह बहस का विषय हो सकता है। पर जीवन में गुरुस्वरूप उपस्थितियों की अहमियत निर्विवाद होती है। किससे क्या सीखा, कितना सीखा, हम अक्सर भूल जाते हैं। और सीखना विनीत भाव और सुनने की सलाहियत मांगता है, यह इसकी पहली शर्त है। गुरुओं को शिक्षक दिवस के सिवा अब कौन याद करता है भला। हम अमेजोन पर हाल ही आई हंसल मेहता की फिल्म ‘छलांग’ के कारण उसकी बात कर रहे हैं। ‘शाहिद’ और ‘अलीगढ़’ के जरिए हिंदी सिनेमा में उन्होंने बड़ी लकीर खींच रखी है। इतनी बड़ी लकीर के इस दशक में हिंदी सिनेमा के सबसे कामयाब और सार्थक पांच-सात फिल्ममेकरों में से एक गिने जाते हैं। तो मेरे लिए ‘छलांग’ सबसे पहले हंसल मेहता की फिल्म है, उसके बाद राजकुमार राव और जीशान अयूब की। लगातार यह पाया है कि हंसल का सिनेमा देखकर तुरंत कुछ कह देने से बचता हूं, उनका सिनेमा देखने के बाद कुछ समय जेहन के दरीचों में रखकर भी देखना, समझना होता है।
‘छलांग’ में हरियाणा में एक निजी स्कूल में पीटीआई हैं मोंटी हुड्डा यानी राजकुमार राव, पर पीटीआई के लिए निर्धारित शैक्षणिक योग्यता उनमें नहीं है। स्कूल की प्रिंसिपल उषाजी की भूमिका में इला अरूण हैं, जिन्होंने एक क्वालीफाइड शारीरिक शिक्षक के रूप में सिंह यानी जीशान अयूब को नियुक्त कर दिया है। अब दोनों में कॉनफ्लिक्ट शुरू होता है। मोंटी के सहकर्मी शिक्षक हैं उषाजी के पूर्व प्रेमी शुक्लाजी यानी सौरभ शुक्ला। उनके साथ एक प्यारा संवाद सतीश कौशिक का है, जो मोंटी के वकील पिता की भूमिका में हैं। जब सतीश उन्हें कहते हैं- ‘आप रंडुवे है श्रीमान!’, तो कोई दर्शक शायद ही गुदगुदाए बिना रह जाए।
बतौर अभिनेता राजकुमार राव की सहजता मुझे तब भी इतनी पसंद थी जब वे अपना नाम राजकुमार यादव लिखते थे, ‘छलांग’ में वही सहजता नए आयाम तक पहुंच जाती है। जीशान अयूब इस फिल्म में मेरे दिल को छू लेने वाला किरदार बन गए हैं। सौरभ शुक्ला तो अपनी विधा के निष्णात हैं ही। सतीश कौशिक इन दिनों नई तरह से सामने आ रहे हैं। इस फिल्म में वे ऐसे कस्बाई पिता, जो अपने बेटे और उसकी ‘हाफ गर्लफ्रेंड’ के साथ चीयर्स करते हुए उन्हें सहज करते हैं, के रूप में अपनी भूमिका को ऐसे निभाते हैं कि भारतीय मध्यम वर्ग की मौलिकताओं, खूबसूरतियों और विसंगतियों को अकेले ही पर्दे पर जिंदा कर देते हैं।
फिल्म की कहानी में अपनी छोटी सी नौकरी और बड़ा सा ईगो बचाने के लिए मोंटी खुद को सिंह से ज्यादा काबिल साबित करने की कोशिश करता है, स्पोर्ट्स स्पीरिट के साथ कहानी आगे बढ़ती है। सिनेमा के परपंरागत ढांचे में जैसे हीरो और एंटी हीरो की रोमांचक उपस्थिति रहती है, पर ‘छलांग’ ऐसी कहानी है जहां सिंह का किरदार एंटी हीरो तो है पर विलनिश नहीं है, कमोबेश हमारा जीवन भी ऐसा ही होता है, सब अपने हिस्से का जीवन जीते हुए किसी अन्य के लिए एंटी हीरो हो जाते हैं। भारतीय सिनेमा में इस खयाल को अभी ठीक से एक्सप्लोर किया जाना बाकी है, मुझे लगता है कि इसकी बहुत संभावनाएं हैं और भारतीय जनजीवन में इससे जुड़ी अनेक कहानियां भी बिखरे पड़े मोती हैं, जिन्हें अब तक कायदे से सहेजा ही नहीं गया है, उनकी माला बनाना तो दूर की बात है।
मोंटी वर्सेज सिंह के इस स्पोर्ट्स स्पीरिट गेम के साथ मोंटी का अपनी सहकर्मी टीचर नीलिमा उर्फ नीलू यानी सुंदर नई अभिनेत्री नुसरत भरूचा से प्रेम का भी छोटा सा एंगल है, जो कहानी में फिलर की तरह ही है, यह न भी होता तो फिल्म इतनी ही सार्थक और सुंदर होती, जितनी अभी बन पड़ी है।
एक बात को कहना जरूरी लग रहा है कि हिंदी सिेनेमा में भाषा के स्थानीय लहजों की उपस्थिति पिछले कुछ सालों में बढ़ती चली गई है, वरना दशकों तक बंबई के सिनेमा की भाषा ऐसी थी जो भौगोलिक रूप से दुनिया में कहीं नहीं बोली जाती थी, कभी हिंदुस्तानी तो कभी खालिस उर्दू होती थी। ‘छलांग’ का कस्बाई हरियाणवी लहजा कहानी को प्रामाणिकता देता है। लोकल होकर ही ग्लोबल होने की धारणा का यह सिनेमाई रूप है। भाषा का बदलता स्वरूप यूं भी है कि हरियाणा में सैट कहानी के नायक-नायिका क्लाईमैक्स के बाद प्रमोशनल गीत में पंजाबी बोलते हैं, तो हालांकि फिल्म के लोकेल की भाषाई प्रामाणिकता आंशिक रूप से आहत होती है, पर हिंदी सिनेमा और उसके दर्शक वर्ग में पंजाबी की बढ़ती यूनिवर्सलनैस निश्चित रूप से जाहिर होती है।
विधिवत प्रशिक्षण या शिक्षा बनाम रूचि और सेल्फ टॉट या करते-करते सीखने के खयालों पर बहस फिल्म खड़ी करती है, ‘थ्री इडियट’ बनने से बचते हुए, फिल्म कुलमिलाकर दोनों में से एक का पक्ष नहीं लेती, दोनों की खूबसूरतियों और सीमाओं को संबोधित करती है, यह निष्पक्षता हंसल मेहता की पूर्व स्थापित और सिद्ध गंभीरता का नया सुकोमल अध्याय है। भारत शताब्दियों से गुरुकुल परंपरा की धरती है, औपचारिक डिग्रीनुमा एजुकेशनल क्वालिफिकेशंस शायद 1858 में अंग्रेजों द्वारा कलकत्ते, मद्रास और बंबई में तीन विश्वविद्यालय बनाने के बाद का फिनोमिना है और हम पांच हजार साल की भारतीय सभ्यता के बरक्स इस बहुत नए से यानी महज दो सौ साल के फिनोमिना के गुलाम हो गए हैं। चिकित्सा आदि एक-दो क्षेत्रों को छोड़ दिया जाए तो बाकी ऐजूकेशन के लिहाज से हमने डिग्रियों को ओवररेट ही किया है। असहमतियां हो सकती हैं पर मुझे तो अपने आसपास ज्यादातर मामलों में सामान्य बारहवीं पास और सामान्य स्नातक पास के आईक्यू लेवल, जीवनदृष्टि में कोई फर्क नजर नहीं आता, हैरानी होती है कि तीन साल में डिग्री के कागज और कुछ सतही सूचनाओं के सिवा कुछ अर्जित भी किया है या नहीं! हां, एक चीज जरूर से सब अर्जित कर लेते हैं कि वैस्ट में सब कुछ अच्छा है, वहां का ज्ञान सर्वश्रेष्ठ है। हमने अपने ही पुरखों के ज्ञान, समझ, दर्शन और उपलब्धियों को गौण मान लेना कुशलता से सीख लिया है, इतनी कुशलता से कि अब हमें इसका बोध होना भी पीछे छूट गया है।
बेशक डिग्रियां व्यवस्थित अध्ययन और उसके अनुसार नौकरी-छोकरी के लिए सुंदर और जरूरी परिकल्पना है, यानी दूसरे शब्दों में नई जीवन स्थितियों की अनिवार्य बुराई है डिग्रियां। पर हम उसके चक्कर में पढ़ाई के व्यवहारिक पहलुओं और सीखने की सलाहियत-अहमियत को ही भुला बैठे हैं। ‘छलांग’ का कथार्सिस भी यही है।