नेटफ्लिक्स पर हाल ही आई फिल्म ‘द वाइट टाइगर’ इसी नाम के उपन्यास पर आधारित है। हम सब जानते हैं कि ‘मद्रास’ मूल के अरविंद अडिगा को इस किताब के लिए 2008 में किताब छपने के साल ही बुकर पुरस्कार मिला था। रमिन बहरानी ने फिल्मी एडाप्शन और निर्देशन दोनों किए हैं।
‘द वाइट टाइगर’ देखिए तो, ‘स्लमडॉग मिलेनियर’ जैसा भी है, और उससे अलग भी है, अलग इस मायने में है कि वहां साधारण के ‘ओवर नाइट’ सितारा बनने के पीछे चमत्कार था, यहां अनैतिक-अवैधानिक चतुराई है। दोनों में एक कॉमन विशेषता यह भी है कि भारत को अंग्रेजी नज़रिए से देखने की किताबी कोशिशें हैं, जो बाद में सिनेमा में रूपांतरित की गईं हैं। ‘स्लमडॉग’ अब सिंड्रोम ही नहीं, फिक्शन का एक लोकप्रिय जॉनर है, जिसका लिटरेरी जॉनर के रूप में तार्किक और सार्थक विस्तार ‘द वाइट टाइगर’ ने किया है। ये लगभग रोमियो-जूलियट जैसा जॉनर बन गया है, जैसे दो परिवारों के संघर्ष के बीच उन परिवारों के बच्चे आपस में प्रेम करने लगें, वैसे स्लमडॉग जॉनर है – साधारण का किसी सायास, अनायास घटना या परिस्थिति से असाधारण बन जाना।
आदर्श गौरव और राजकुमार राव दोनों कमाल के अभिनेता हैं, राजकुमार राव ने पिछले सालों में साधारणता के जादू को सिनेमा में फिर से पुनर्जीवित किया है, पर इस फ़िल्म में आदर्श उन पर भारी पड़े हैं। कोई हैरानी नहीं हुई, जब आदर्श गौरव का यह अभिनय बाफ्टा में बेस्ट एक्टर के अवॉर्ड के लिए नॉमिनेशन तक ले गया। यक़ीनन वे इस नॉमिनेशन के वाजिब हक़दार हैं। आदर्श गौरव बलराम हलवाई के रूप में एक ज़िंदा किरदार बन जाते हैं।
फ़िल्म किसी स्पष्ट घोषित लोकेल की फ़िल्म नहीं है, छुटपुट संकेत बिहार-झारखंड के हैं, पर फ़िल्म विदेशी दर्शकों के लिए भारत के किसी स्टीरियोटाइप लोकेल का आलम्बन लेती हुई कहानी कहती है। यानी लेखक, निर्देशक के लिए जगह से ज़्यादा कहानी महत्वपूर्ण है। और इसमें कोई बुराई भी नहीं है।
सब जानते हैं कि ‘मद्रास’ मूल के अरविंद अडिगा को इस किताब के लिए 2008 में किताब छपने के साल ही बुकर पुरस्कार मिला था। रमिन बहरानी ने फिल्मी एडाप्शन और निर्देशन दोनों किए हैं। वे कोलंबिया यूनिवर्सिटी में फ़िल्म डायरेक्शन के प्रोफेसर हैं, मेरी जानकारी में समकालीन तो शायद नहीं, पर अरविंद अडिगा भी इस यूनिवर्सिटी में कुछ वक़्त पढ़े हैं। कुलवक्ती यानी फुलटाइम फिल्ममेकर से ज्यादा कंसर्न ओरिएंटेशन ऐसे फिल्ममेकर्स में मिलना जो आजीविका के लिए किसी और पेशे से जुड़े हैं, मेरा हाल के दिनों का जाती अनुभव है। मेरी राय है कि आजीविका का सवाल अगर कला माध्यमों में साथ जुड़ा रहता है तो आपसे वे काम भी करवा लेता है जो आपको हमेशा कंसर्न के आसपास नहीं रहने देते।
फ़िल्म शहरी उच्च या अंग्रेजीदां वर्ग के इस पूर्वाग्रह से भी मुक्त नहीं है, जो मूल किताब का विषय है कि गरीब या गांव के लोग अमीर या बड़ा बनने के लिए फाउल गेम खेलने के लिए तैयार रहते हैं। यह पैराशूट या दूरबीन से भारत को देखना है। यह एम्पेथी नहीं, सिम्पेथी का फिक्शन है। सिम्पेथी के फिक्शन की खूबियां भी होती हैं, सीमाएं भी हैं। उपन्यास की जिस कथा को सिनेमा पर विश्वसनीय तरीके से एडाप्ट किया गया है, डार्क ह्यूमर के सांचे में वह गल्प सहानुभति का रसायन आरोपित करते हुए जिस स्पेस में ले जाती है, वह मानवीय मन की परतों का वायवीय सा कोलाज ही बनता है, गहरे न उतरना शायद लेखक की प्रथमिकता ही नहीं रही हो, या उनका पत्रकारीय भाव इस सीमा का स्वाभाविक कारण रहा हो कि पत्रकार को थोड़ा सतही, थोड़ा मासी (पॉपुलर) रहना ही पड़ता है और वह आदत में आ जाता है, इसे निजी अनुभव के रूप में कह सकता हूँ। कहा भी जाता है कि लेखक और पत्रकार दोनों कलम से काम लेते हैं, लेखक एक सुई की तरह और पत्रकार तलवार की तरह। जब पत्रकार लेखक का काम करता है, उसके लिए चुनौती यही होती है कि अपनी तलवार कलम को सुई कैसे बनाए। बहुत अभ्यास और साधना से कुछ पत्रकार यह अर्जित कर लेते हैं, अरविंद अडिगा भी उन्हीं में गिने जाएंगे।
विचित्र किंतु सत्य किस्म का संयोग यह है कि अडिगा का यह डेब्यू उपन्यास था, जिसने 33 साल की उम्र में उन्हें बुकर दिलवाया, यानी इस उपन्यास से अरविंद का लेखकीय कद बढ़ना भी स्लमडॉग का मिलेनियर होना ही है, आदर्श की लीड रोल में डेब्यू फिल्म है, कहानी भी बलराम हलवाई के इसी तरह बड़ा बनने की कहानी है।
बड़ा बनने का सपना देखना बुरा नहीं, उन सपने को पूरा करने के लिए जिन रास्तों को एक इंसान इख्तियार करता है, उन रास्तों का प्रश्न बड़ा है कि क्या वे नैतिक है, क्या वे वैधानिक है? यह गांधीवादी प्रश्न भी है कि कहीं पहुंचने के लिए साध्य और साधन दोनों की पवित्रता होनी चाहिए, इसका अर्थ यह है जहां हम पहुंचना चाहते हैं, वह भी पवित्र हो और जिस मार्ग से आप पहुंचना चाहते हैं, वह मार्ग भी पवित्र हो यानी साधनों का पवित्र होना भी उतना ही जरूरी है जितना आपकी मंज़िल या साध्य का पवित्र होना है। कुछ दशकों से इस मूल्य में बड़ा बदलाव आया है, हम केवल साध्य को पाना चाहते हैं, जल्दी भी, किसी भी तरह। क्या पता अंधी दौड़ आज साधन की पवित्रता को दरकिनार बैठी है, कल साध्य को भी उसी तरह पवित्र चुनने के खयाल को छोड़ दे, वह समय हमारी मानवता और हमारी पूरी कायनात किस अंधे कुएं जा लगेगी, कहना मुश्किल है, आशंका से ही रौंगटे खड़े हो रहे हैं। कहना चाहिए कि फ़िल्म इसी ख़्याल को जेरे बहस लाती है। यह मेरे लिए फ़िल्म का सबसे बड़ा ‘टेक अवे’ है। इसके लिए निर्देशक का शुक्रिया कि लेखक के इस बेशकीमती खयाल और भावना को बड़े कैनवस पर लाकर ज्यादा लोगों तक पहुंचाया है। और लेखक को तो इस ‘टेक अवे’ के लिए बहुत सारा प्रेम और आदर अपरिहार्य है ही।
राजकुमार राव की संगिनी के रूप में प्रियंका चोपड़ा जोंस छोटी सी भूमिका में हैं, वे याद रह जाती हैं। वे समकालीन भारतीय अभिनेत्रियों में स्थायी ‘टेक अवे’ हैं, कभी निराश नहीं करती हैं।
सिनेमा को मानव के बाहर-भीतर के विरोधाभासों का विजुअल कोलाज जब कहा जाता है, तो यूं ही नहीं कहा जाता है, मानवीय मन की गुफाओं के रहस्य जितने खुलते हैं, उससे ज्यादा आगे नए बनते जाते हैं, कहानियां यानी अलग-अलग तरह की स्टोरी-टेलिंग उन रहस्यों को समझने और सुलझाने के वे जरूरी सूत्र देती आई हैं जो ज्ञान के किसी अन्य अनुशासन के बूते की बात अब तक तो नहीं ही रही है। ‘द वाइट टाइगर’ देखते हुए भी यह बात शिद्दत से महसूस होती है।