एई तो जीबोन बिस्‍वास बाबू! 

निर्देशक सुजॉय घोष की बेटी दिया अन्नपूर्णा घोष की डेब्यू फिल्म बॉब बिस्वासज़ी5 पर आई है। विद्या बालन की सुजॉय घोष निर्देशित, बहुचर्चित फिल्म कहानीके किरदार बॉब के पर्सपेक्टिव से बुनी गई इस नई फिल्म को कहानीका प्रीक्वल कहा जा सकता है। भारत की सांस्कृतिक राजधानी कहे जाने वाले कोलकाता में स्थित इस सिनेमाई कथा बॉब बिस्वासके नामकरण में ही एक सांस्कृतिक इतिहास छुपा हुआ है

 

बॉब एक बीमा एजेंट है, दो बच्चे हैं, पत्नी की पहली शादी से एक किशोर लड़की मिनी है, जो मेडिकल की तैयारी कर रही है। एक चश्मीश क्यूट बेटा बिनी है। बॉब के रूप में अभिषेक बच्चन ने जो अभिनय किया है, उसकी तुलना मेरी नज़र में उनके फ़िल्म ‘गुरु’ के काम से सम्भव है, लगता है कि इस फ़िल्म से अब वे ‘गुरु’ के अभिनय से आगे निकल आए हैं, जो ऐसा मार्क था, शायद जिसे वे खुद भी नहीं छू पा रहे थे। मातृ पक्ष से, पत्नी पक्ष से बंगाली प्रभाव अभिषेक बच्चन के व्यक्तित्व की पूंजी है, वह सांस्कृतिक पूंजी बॉब बिस्वास के किरदार को जीवंत कर देने में काम आयी होगी, ऐसा मेरा ख़याल है।

कोलकाता हिंदी फिल्मों के लोकेल के लिहाज से यदाकदा ही एक्सप्लोर किया गया है, जबकि मुम्बई और दिल्ली के मुकाबले अभी बहुत सम्भावनाएं लिए हुए है। घटनाएं, जीवन, कहानियां, किरदार और संवेदना की जिन स्थितियों का कोलकाता प्रतिनिधित्व करता है, हिंदी सिनेमा के लिए अतुलनीय बैकड्रॉप है। किसी भी लोकेल की शुरुआती फिल्में तो जगह और किरदारों की कैरिकैचिंग में ही खप जाती है, ठीक वैसे ही जैसे किसी जगह को शुरुआती यात्राओं में टूरिस्ट की तरह ही देखा जा सकता है, जगह की असली धड़कन कुछ यात्राओं के बाद महसूस होनी शुरू होती है। तो फिल्में भी किसी कथानक, लोकेल को गहरे तक महसूस करवाने के लिए कई प्रयासों की मोहताज होती हैं, कोलकाता पिछले कुछ सालों में सुजॉय घोष, शुजित सरकार, दिबाकर बनर्जी, श्रीजित मुखर्जी जैसे कई फ़िल्म निर्देशकों की बदौलत कैरिकैचिंग से बाहर निकलकर सहजता में दिखाई देने, महसूस होने लगा है।

यहां यह भी कहना जरूरी लगता है कि ब्रिटिश भारत के समय का कोलकाता सिनेमाई कहानियों का अजस्र आगार है। और उन कहानियों में सहज ग्रैंडनेस भी है। दक्षिण भारत की कहानियों का जैसा देशव्‍यापी उभार आया है, पूर्वी भारत में भी ऐसी संभावनाओं का समंदर है, और उस समंदर का सबसे महत्‍वपूर्ण पोर्ट कोलकाता ही है। इस कथा समंदर में मानवीय संवेदनाओं के विलक्षण माणिक्‍य निहित हैं।

तो सत्‍यजीत रे के फेलूदा और शरदिंदु बंद्योपाध्‍याय के व्‍योमकेश बख्‍शी जैसे कई कीमती किरदारों की क्रीड़ाभूमि से नया दिलचस्‍प किरदार रचा है सुजॉय घोष और उनकी प्रतिभाशाली बेटी ने।

निर्देशक सुजॉय घोष की बेटी दिया अन्नपूर्णा घोष की डेब्यू फिल्म ‘बॉब बिस्वास’ ज़ी5 पर आई है। विद्या बालन की सुजॉय घोष निर्देशित, बहुचर्चित फिल्म ‘कहानी’ के किरदार बॉब के पर्सपेक्टिव से बुनी गई इस नई फिल्म को ‘कहानी’ का प्रीक्वल कहा जा सकता है।

साउथ पार्क सेमेट्री, कोलकाता
साउथ पार्क सेमेट्री, कोलकाता

फ़िल्म के कुछ बेहद प्रभावी दृश्य कोलकाता के विशाल कब्रिस्तान ‘साउथ पार्क स्‍ट्रीट सेमेटरी’ के हैं, इसके लिए कहा जाता है कि उन्‍नीसवीं सदी में यूरोप और अमेरिका के बाहर दुनिया का सबसे बड़ा ईसाई कब्रिस्‍तान था। इसमें अपने समय के कई नामचीन लोगों की कब्रें शामिल हैं जिनमें एशियाटिक सोसायटी ऑफ बेंगाल के संस्‍थापक विलियम जोंस, मेजर जनरज चार्ल्‍स स्‍टूअर्ट के साथ साथ मशहूर लेखक चार्ल्‍स डिकिंस के बेटे वाल्‍टर डिकिंस की कब्रें प्रमुख हैं। संयोग यह है कि मैंने अपनी एक कहानी के सच्चे एंग्लो इंडियन किरदार की जड़ों को तलाशने के लिए उसी कब्रिस्तान में घण्टों बिताकर कब्रों पर नाम पढ़े थे, कि काश, वह एक नाम दिख जाए…

 

‘बॉब बिस्वास’ के नामकरण में ही एक सांस्कृतिक इतिहास छुपा हुआ है, अंग्रेजों की राजधानी और गतिविधियों के केंद्र कलकत्ते में बंगाली भद्र समाज का बड़ा वर्ग ईसाई हुआ, जिसमें माइकेल मधुसूदन दत्त जैसे लेखक भी शामिल थे, तभी चर्च, ईसाई कब्रिस्तान और बॉब नाम मिले, उस किरदार के पुरखे कभी ‘बिस्वास’ सरनेम के थे, जिन्होंने धर्मांतरण स्वीकार किया… यानी इस किरदार की रचना आधुनिक भारत के सांस्कृतिक इतिहास के एक पृष्ठ का अघोषित पाठ भी है। इस फ़िल्म और इस किरदार में धर्मान्तरण के समकालीन राजनीतिक संदर्भों में एक छुपी हुई कलात्मक टिप्पणी भी ढूंढ़ी जा सकती है।

बॉब की पत्नी मैरी बिस्वास की भूमिका में चित्रांगदा सिंह हैं। कहानी को आगे ले जाने में जितनी इस किरदार की अहमियत है, उसे उन्होंने कायदे से निभाया है। उनकी हर उपस्थिति सार्थक बन पड़ी है।

काली दा का क़िरदार बेहद यादगार बन पड़ा है, बंगाली सिनेमा और रंगमंच के नामचीन वरिष्ठ अभिनेता पारान बंद्योपाध्याय ने इसे निभाने में एक जादू रच दिया है, उनके अभिनय की स्वाभाविकता और चंचलता असाधारण है। उनके मुंह से निकला ‘एई तो जीबोन! बिसास बाबू’ (यही तो जीवन है बिस्‍वास बाबू) दिल भिगो देने वाला, यादगार सूक्ति बनकर हमारे साथ ठहर जाता है। पारान बंद्योपाध्याय के बारे में बताना जरूरी लग रहा है कि पश्चिम बंगाल सरकार के लोक निर्माण विभाग की नौकरी से साठ साल की उम्र में रिटायर हो‍कर सिनेमा और रंगमंच में सक्रिय होकर उन्‍होंने कुछ ही समय में जादुई उपस्थिति दर्ज करवाई है। यूँ फिल्‍म में किरदार चर्च के फादर का भी दिलचस्प है, जो अपनी आवाज से अलग ही हमारे जेहन में दर्ज होता है।

काली दा यानी पारान बंद्योपाध्याय

बॉब बिस्वास के किरदार की रहस्यात्मकता के साथ कथासूत्र में नीले नशे का ट्रिगर है जिसे ब्ल्यू नाम दिया गया है, बॉब और मैरी की थोड़ी असामान्य वैवाहिकी है, बॉब का असाधारण पितृत्व भी है। असाधारणताओं में साधारणता का संधान करती हुई कहानी कोलकाता को हिंदी सिनेमा में अलग भंगिमा और छटा के साथ प्रस्तुत करती है। सुजॉय घोष अपनी कहानियों में यह काम ‘शुन्दोर’ तरीके से करते आए हैं, इस बार उन कहानियों के सिनेमाई रूपांतरण का काम उन्होंने बेटी के हवाले किया है, बेटी ने डेब्यू को जस्टिफाई किया है, आगे के लिए उम्मीदें जगाई हैं। इसे सच में ग्रैंड डेब्यू कहा जा सकता है!!

सुजॉय किसी भी कहानी को थ्रिलर का आस्वाद देने में निष्णात हैं, यह उन्‍होंने अपनी बेहद चर्चित शॉर्ट फिल्‍म ‘अहिल्‍या’ में भी सिद्ध किया था। और यहां तो यह थ्रिलर होना बेहद मुखर है। रोमांच के साथ भावनाओं की ऐसी सिम्फनी अन्यत्र मुश्किल से मिलती है।

इमेज क्रेडिट्स : दुष्यंत (साउथ पार्क सेमेट्री, कोलकाता)

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