तारों के नाम सुनते हुए कैसा लगता है? टाइटैनिक नाम क्यों रखा गया था? वायरस का नाम कोरोना पसंद आया आपको? चांद को तो पता ही नहीं होगा कि पूरी धरती के इतने लोग उसे चांद कहते हैं! सोने और हीरे को भी कहां अपना नाम पता होगा भला! सबसे कीमती कोहीनूर भी अपने नाम की अपार महिमा से अनजान होगा बेचारा! उसे कोई जाके बता दे कि उसके नाम पर विलियम डेलरिम्पल साहब ने प्यारी सी किताब लिख दी है। दुआ ही देगा वह डेलरिम्पल साहब को।
क्या आपको पता चला कि कोरोना वायरस के प्रतिरूपों के नाम फिल्मों के आधार पर रखे जा रहे हैं ! ‘ओमिक्रोन वेरिएंट’ नाम से कम से कम दो फिल्में बनी है, एक इटैलियन में, एक हॉलीवुड में। पृथ्वी के लिए एलियन के खतरे के रूप में। इन फिल्मों के बारे में तफसील जरा सा गूगल करने पर आपको मिल जाएगी। सोचिए, अगर भारतीय फिल्मों पर नाम होंगे तो क्या होंगे? खिलाड़ी, सुल्तान, रईस, मुगल, पठान, बादशाह, सिंह इज किंग, शहंशाह, मणिकर्णिका, थलाइवी…
बच्चों के नामकरण की सनातनी भारतीय प्रक्रिया जानते हैं? पंडित द्वारा जन्म के समय की दशा के अनुसार प्रथम नामाक्षर चुना जाता है, फिर उस अक्षर से 5 नाम सुझाए जाते हैं, उनमें से कोई एक माता-पिता या परिवारजन चुन लेते हैं। आजकल थोड़ा परिवर्तन हुआ है कि प्रथम अक्षर तो मान लिया जाता है, 5 नामों से आगे बढ़कर इंटरनेट या बेबी नेम्स की किताब से चुना जाता है। दूसरे धर्मों में थोड़ी भिन्न प्रक्रियाएं मिलती हैं।
यहां खानदान का नाम आगे बढ़ाने की परंपरा और मिथ को भी देख लेना चाहिए, सोचिए कि आपने अपने जीवन में ऐसे कितने लोग देखे, जिन्हें पांच छह पीढ़ी पहले के अपने मां या पिता के वंश के पुरखे का नाम याद होगा! हां, अगर कोई पुरखा कोई प्रसिद्ध नाम हो और उसके बाद परिवार में उतनी प्रसिद्धि किसी और को हासिल न हुई हो तो जरूर इस पुरखे के नाम को पूरा खानदान याद रखता है, अन्यथा नहीं।
कितनी अजीब बात है कि फैमिली इतिहास को हम इतना इग्नोर भी करते हैं, और खानदान के नाम की परवाह भी करते हैं। कदाचित खानदान के नाम की परवाह और उसे केवल पिता की परंपरा से जोड़ते हुए हम पुत्रमोह पालते हैं, बेटियों को पेट में मार डालते हैं। बताना जरूरी लग रहा है कि यूनान, लेटिन अमेरिका, चीन और जापान जैसे देशों में कुछ समाजों में पारिवारिक इतिहास को नामों से ज्यादा सहेजने, डॉक्यूमेंट करने की प्रथा रही है। जैसे हमारे यहां इसका आंशिक रूप धार्मिक स्थानों पर पंडों द्वारा पारिवारिक वंशावलियां लिखने में दिखाई देता है। बात चली है तो याद आया कि अगर कामकाजी न हो तो हमारे घरों में स्त्रियों के नाम भी हम चाची, मामी, दीदी, बुआ, मौसी, दादी, नानी के रूप में रिड्यूस होते चुपचाप देख रहे होते हैं, जी रहे होते हैं।
भाषा विज्ञानी कहते हैं कि नामकरण में मुखसुख को ध्यान में रखना चाहिए, इसका अर्थ है कि अगर नाम के उच्चारण में बोलने वाले के मुंह को सुख यानी सहजता नहीं हो तो कितना भी अर्थपूर्ण, सुंदर, किसी ऐतिहासिक-धार्मिक महत्ता वाला नाम चुना गया हो, वह प्रचलन में तो नहीं ही आ पाएगा।
धर्म सम्मत नाम तो रखा ही जाता है, कभी-कभार कोई माता-पिता बेटों के लिए समीर, साहिल जैसे थोड़े धर्मनिरपेक्ष नाम चुनते हैं। जाति सम्मत नाम की भी परम्परा रही है, उदाहरण के लिए क्षत्रियों के नामकरण वीरता या विजय बोधक नाम होते हैं, ब्राह्मणों के विद्वता बोधक। पिछले कुछ सालों में इसमें सुखद बदलाव दिखता है, नई पीढ़ी के माता-पिता यह जातीय सम्मतता ध्यान में नहीं रखते।
राजस्थान में एक मीरा दीवानी क्या हुई तो समुदाय विशेष के लोगों ने अपनी बेटियों का नाम मीरा रखना छोड़ दिया। क्या इसे इत्तेफाक ही मानेंगे कि मेरे अनुभव में यादव जाति के परिचितों में जिस नाम को सर्वाधिक पाया वह कृष्ण ही था। कहते हैं कि इमरान खान की कप्तानी में जब पाकिस्तान ने वर्ल्ड कप जीता था, कहते हैं, वहां के लोगों के नवजात बच्चों में सबसे ज़्यादा रखा गया नाम इमरान था। लेखक जोड़ी सलीम-जावेद ने अपनी कम से कम 7-8 फिल्मों में अपने हीरो को ‘विजय’ नाम दिया, ठीक वैसे ही जैसे शाहरुख खान राहुल या राज के रूप में मशहूर हुए। बीआर चोपड़ा की महाभारत में अर्जुन का किरदार निभाने वाले अभिनेता ने खुद को हमेशा के लिए अर्जुन बना लिया, भीष्म का किरदार निभानेवाले मुकेश खन्ना ने अपना नाम तो नहीं बदला, पर किरदार के नाम पर अपनी कंपनी का नाम भीष्म इंटरनेशनल रख लिया। नब्बे के दशक के मशहूर गायक कुमार शानू ने अपनी मेगा हिट फिल्म आशिकी के नाम पर अपने बंगले को नाम दिया।
और क्या ही कहें कि हमारे समाजों के कुछ लोग अपने माता पिता या धार्मिक संस्थानों के रखे नाम स्वीकार नहीं करते, उनमें से कुछ सम्पूरण सिंह कालरा से गुलज़ार हो जाते हैं, कुछ अजय सिंह देओल से सन्नी देओल…
लेखक-कलाकारों ने नाम की बगावत कुछ ज़्यादा ही की है, तभी विरले ही लोग निदा फ़ाज़ली, फ़िराक़, धूमिल, नागार्जुन, ग़ालिब, मीर, ज़ौक़ के असली या मां-बाप के रखे नाम जानते हैं। इनमें से गुलजार साहब के नाम पर कुछ देर ठहरते हैं। गुलज़ार साहब ने गीत लिखा ही – ‘पुकारो मुझे नाम लेकर पुकारो, मुझे तुमसे अपनी खबर मिल रही है।’ मन होता है कि पूछें – उस्ताद! ‘गुलज़ार साहब’ ही कहना है ना? या ‘सम्पूरण सिंह कालरा साहब’ कहने से आपको अपनी खबर मिलेगी! अशोक भौमिक की किताब ‘जीरो लाइन पर गुलजार’ से पता चलता है कि अपना जन्म स्थान दीना (अभी पाकिस्तान) छोड़ने के सत्तर साल बाद गए तो वहां के लोगों ने प्यार और सम्मान में उनके घर की गली का नाम ‘गुलजार स्ट्रीट’ और स्कूल में ब्लॉक का नाम ‘गुलजार कालरा ब्लॉक’ कर दिया, संयोग यह है कि ‘कालरा’ उन्होंने खुद को कभी कहा नहीं, ‘गुलजार’ वे दीना में थे नहीं।
वैसे, पुकारे जाने के लिए ही नाम होता है, आज आधार कार्ड के ज़माने में तो नाम का रिप्लेसमेंट नम्बर में हो जाए तो भी दुनिया का काम चल सकता है।