नेटफ्लिक्स पर ‘ Salam – The First ****** Nobel Laureate’ नाम से एक डॉक्यूमेंट्री आयी है, पाकिस्तान के पहले नोबल विजेता अब्दुस सलाम पर। उनके बेटे अहमद कहते हैं -“वे ‘सायंटिस्ट बाई माइंड‘ और ‘पोएट बाई हार्ट‘ थे”, तो उनका धार्मिक होना अपने उच्चतम, और श्रेष्ठतम रूप में परिभाषित और प्रकट हो जाता है।
डॉक्टर सलाम धार्मिक थे, इस्लाम को दिल से मानने वाले, नोबल पुरस्कार के समय दिए भाषण में कुरान को उद्धृत करने वाले वैज्ञानिक जिन्हें 1979 में दो अन्य वैज्ञानिकों के साथ यह पुरस्कार दिया गया था। नेटफ्लिक्स पर ‘ Salam – The First ****** Nobel Laureate’ नाम से एक डॉक्यूमेंट्री आयी है, पाकिस्तान के पहले नोबल विजेता अब्दुस सलाम पर। फ़िल्म के नाम में 5 स्टार किसी अश्लील शब्द को म्यूट करने के लिए नहीं हैं, हां जिस बात को कहने के लिए यह पोएटिक ढंग चुना गया है, वह ज़रूर अश्लील कही, मानी जा सकती है।
वे पार्टिकल फिजिक्स के साइंटिस्ट थे। नोबल विजेता के नाम को गूगल करने पर हजारों लिंक और सूचनाएं मिल जाती हैं, उनके दोहराव के लिए यह लेख नहीं है, कम से कम शब्दों में बेसिक बात जो आपको बिना गूगल किये उनसे जोड़ दे, वह यह है कि अहमदिया समुदाय को पाकिस्तान सरकार ने गैर मुस्लिम घोषित कर दिया, इससे दुखी सलाम को उसके बाद मृत्यु तक विदेश रहने का फैसला करना पड़ा। इसी गैर मुस्लिम कहे जाने को, अब्दुस्सलाम के लिए Muslim शब्द को 5 सितारों से संकेत किया गया है।
जिस बेहद साधारण जीवन स्थिति से, झांग के ग्रामीण सरकारी स्कूल से आरंभिक शिक्षा अर्जित करके नोबल तक पहुंचे, वह उनके व्यक्तित्व को पांच सितारा यानी श्रेष्ठतम कहे जाने के लिए पर्याप्त तो है ही, मुझे लगता है कि भारतीय उपमहाद्वीप में शिक्षा अभी भी बहुत सुलभ नहीं है और शिक्षा में अफ़ोर्डिब्लिटी के भेदभाव अंतहीन हो गए हैं, केवल पहाड़ जैसी प्रेरणा और जुनून ही उसे लांघ सकते हैं, तो अब्दुस सलाम के किरदार में वह काबलियत है, रोशनी है।
सीवी रमन, हरगोविंद खुराना, वेंकी रामकृष्णन, सुब्रमण्यम चंद्रशेखर और रोनाल्ड रॉस वो नाम है जिन्हें विज्ञान के अनुशासनों में नोबल पुरस्कार मिला और वे भारतीय उपमहाद्वीप से किसी न किसी गर्भनाल ( नागरिकता, निवास, जन्म या पूर्वजों के कारण) से जुड़े थे।
मेरी विनम्र राय है कि बीसवीं सदी के हिंदुस्तान की साझी विरासत के नायक के रूप में भारत को डॉक्टरअब्दुस सलाम को मरणोपरांत ही सही, यथोचित सम्मान और आदरणीय स्थान देना चाहिए।
अब्दुस सलाम साहब की मातृभाषा पंजाबी थी। झांग ( अब पाकिस्तानी पंजाब में) की पैदाइश, आज़ादी से पहले की। तो तार्किक रूप से, मेरी नज़र में, मैं उनको, पंजाबी कहना चाहूंगा जिसे नोबेल मिला। पहला मुस्लिम से मुस्लिम शब्द उनकी कब्र के शिलालेख पर पेंट से मिटा दिया गया, मुझे लगता है कि पंजाबी लिखा गया होता तो भी सच भी होता और पेंट करने की ज़रूरत भी नहीं होती, सरहद के इस पार, उस पार के पंजाबी, पूरा उपमहाद्वीप और विदेशों में बसे पंजाबी मुहब्बतों से अपनी मिट्टी के इस लाल को नवाज़ते, क्योंकि पंजाबियत की अंतरराष्ट्रीय आइडेंटिटी है, और पंजाबियत धार्मिक नहीं, भाषाई और सांस्कृतिक पहचान है। हालांकि पंजाबियत के नजरिए से उनका नोबेल दूसरा होता, पहला तकनीकी रूप से मुल्तान में जन्मे हरगोविंद खुराना का होता तो अब्दुस सलाम से ठीक एक साल पहले 1978 में मेडिसिन में दिया गया। पर सेंस ऑफ बिलॉगिंगनैस के लिहाज से दोनों में एक फर्क किया जा सकता है कि खुराना 1970 में ही अमेरिकी नागरिकता स्वीकार चुके थे। अब्दुस सलाम पंजाबियों की स्वाभाविक भूमि भारतीय उपमहाद्वीप या ज्यादा विशेष संदर्भित करें तो पंजाब के ही नागरिक रहे। पंजाबियों में सरहद के इस पार और उस पार के पंजाब के लिए चढ़दा पंजाब यानी उगते सूर्य की तरफ का पंजाब और लहंदा पंजाब यानी छिपते सूरज की तरफ का पंजाब शब्द प्रचलित हैं। पर दोनों के नागरिकों को सरहद और धर्म की दीवारों से ऊपर एक मजबूत अदृश्य धागा बांधे रखता है। तो वे सबसे पहले पंजाबी थे, फिर मुस्लिम, फिर अविभाजित हिंदुस्तानी, फिर पाकिस्तानी, और वैज्ञानिक होने के नाते पूरी मानवता के तो हो ही गए।
गणित और फिर भौतिकी के इस धुरंधर की यह बात हैरान ज़रूर करती है कि वे विज्ञान और धर्म में कोई अंतर्विरोध नहीं मानते। जैसे सलाम इस्लाम के प्रतिबद्ध अनुयायी थे, भारतीय गणितज्ञ रामानुजन हिन्दू धर्म के, यह समानता सोचने को विवश करती है कि क्या भारतीय उपमहाद्वीप की मिट्टी में धर्म और अध्यात्म इतना रचा बसा है कि ईश्वर और पारलौकिक जगत को असिद्ध मानते हुए लगभग नकारने वाले विज्ञान के अनुशासन के जीनियस अगर इस मिट्टी के हों तो धर्म का दामन नहीं छोड़ते!
विज्ञान जब हमारे देश में केवल डॉक्टर, इंजीनियर बनने का जरिया रह गया है, इस डॉक्यूमेंट्री की अहमियत यह है कि वैज्ञानिक शोध मानव सभ्यता को आगे ले जाते हैं, इस डॉक्यूमेंट्री से सलाम का एक कथन यादगार है, जब वे नोबल विजेताओं की कॉन्फ्रेंस में हैं, कहते हैं – ‘विकासशील देशों को विज्ञान की ज़्यादा ज़रूरत है।’ मुझे लगता है कि विज्ञान के शोध में, नई पीढ़ी को बेसिक साइंसेज और गणित में उच्च अध्ययन के लिए प्रेरणा के स्रोत प्रायः सूख गए हैं। शायद उन दिनों जब सनातन धर्म की ध्वजा निर्बाध, निर्विरोध, एकल फहरा रही थी, पुराणादि धर्म ग्रंथों का लेखन हो रहा था, तब भी विज्ञान की बात आज से ज़्यादा होती होगी, ब्रह्मांड के रहस्यों को जानने और उन्हें मानवता के हित में इष्टतम अनुकूल प्रयोग की चेष्टा हो रही होगी। डर यह भी है कि बहुसंख्यक के अधिनायकवादी राजनीतिक समय में धर्म की जो लहर प्रवाहमान है, उसमें विज्ञान और तर्क आंधी में उड़ते तिनकों की तरह न हो जाएं कहीं!
जब यह कहा जाता है कि किसी भी धर्म के सच्चे मानने वाले के लिए पूरी मानवता एक बराबर हो जाती है, वे दूसरे धर्म को मानने वालों को नफरत से नहीं देखते, और अपने आध्यात्मिक सुख को निजी भाव के रूप में बरतते हुए सबके हितचिंतक हो जाते हैं। मुझे लगता है कि डॉक्टर सलाम का धार्मिक होना भी वैसा ही है। जब डॉक्यूमेंट्री में एक जगह उनके बेटे अहमद कहते हैं – “वे ‘सायंटिस्ट बाई माइंड’ और ‘पोएट बाई हार्ट’ थे”, तो उनका धार्मिक होना अपने उच्चतम, और श्रेष्ठतम रूप में परिभाषित और प्रकट हो जाता है।
सुखद संयोग है कि भारतीय उपमहाद्वीप के इस जीनियस पर डॉक्यूमेंट्री बनाने वाले आनंद कमलाकर भारतीय हैं, जो अमेरिका में रहते हैं, फ़िल्म चुपके-चुपके विज्ञान में रुचि जगाती है, विज्ञान और वैज्ञानिकों की अहमियत को दर्शक के मन-मस्तिष्क में कोमलता से अंकित करती है, निर्देशक आनंद ने इस फ़िल्म के ज़रिए सलाम के जीवन को तमाम गूगल लिंक और पब्लिक प्लेटफॉर्म पर पहले से मौजूद सूचनाओं से आगे जाकर बहुत कुछ नया जोड़ा है, हमारे जेहनों के कई जाले साफ किए हैं, नई दृष्टि से उन पर सोचने के लिए वजहें दी हैं, एक फ़िल्म इससे ज़्यादा क्या कर सकती है भला!