हाल ही आई हंसल मेहता की वेबसिरीज ‘स्कैम’ को देखना आधुनिक भारत के आर्थिक इतिहास का एक अध्याय पढ़ लेना है। ‘स्कैम’ अर्जित करने और परिग्रह की लालसा का महाकाव्य है, हो सकता है, जीवन में परिग्रह और अपरिग्रह की उलटबांसी को कथार्सिस के रूप में एक्सप्लोर करने की झीनी सी प्रेरणा हंसल को जैन मंदिरों के लिए ख्यात सुमेरपुर की यात्राओं से मिली हो..
बिना जोखिम का जीवन ठहरा हुआ पानी है। यह बात SonyLiv पर हंसल मेहता निर्देशित ‘स्कैम 1992 : द हर्षद मेहता स्टोरी’ देखते हुए लगातार जेहन में आती है, बनी रहती है। ‘स्कैम’ एक किताब का एडाप्शन है। सुचेता दलाल और देबाशीष बसु लिखित ‘द स्कैम हू वोन, हू लॉस्ट, हू गॉट अवे’ नामक यह किताब साउथ एशिया बुक्स से 1992 में छपी थी। सुचेता दलाल भारत की जानी-मानी बिजनेस पत्रकार रही हैं। खासकर टाइम्स ऑफ इंडिया और इंडियन एक्सप्रेस से उनका प्रोफेशनल जुड़ाव रहा है।
दिन था 22 अप्रैल 1992, जब स्टेट बैक ऑफ इंडिया का शरद बेल्लारी लगभग भागता हुआ, तत्कालीन विक्टोरिया टर्मिनस स्टेशन से वॉकिंग दूरी पर फोर्ट इलाके में स्थित, टाइम्स ऑफ इंडिया के मुम्बई कार्यालय में बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज में पांच सौ करोड़ के घोटाले की खबर बताने दाखिल हुआ। दिलचस्प सूचना यह भी है कि दलाल स्ट्रीट स्थित बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज और टाइम्स बिल्डिंग के बीच की दूरी भी एक किलोमीटर से कम है। इस दिन ने भारत के आर्थिक इतिहास में नया अध्याय लिख और जोड़ दिया। इसी अध्याय की पूर्वकथा और उत्तरकथा है दस एपिसोड की सिरीज ‘स्कैम’।
इसमें प्रतीक गांधी को हर्षद मेहता की भूमिका में लेना! पहली नज़र में मुझे भी संदेह हुआ था कि कैसे चेहरे-मोहरे वाले आदमी को चुन लिया है हंसल मेहता ने। मैं इससे पहले प्रतीक को नहीं जानता था। पर जब देखना शुरू किया तो लगा कि यही हो सकता था ऑनस्क्रीन हर्षद। सीरीज में सुचेता दलाल की भूमिका श्रेया धन्वंतरि ने निभाई है। मनु मूंधड़ा के रूप में सतीश कौशिक ने किरदार को जिंदा कर दिया है, इन दिनों उनकी सक्रियता के अलग रंग देखते ही बनते ही बनते हैं।
यह व्यक्तिगत अनुभव से कह रहा हूं, कि व्यवसायिक समाजों में वित्तीय अपराधों को उस तरह नीची नजर से नहीं देखा जाता जिस तरह अन्य सामान्य अपराधों को। और सामान्य समाज में वित्तीय अपराध या तो सामान्य अपराध जैसे ही गिने जाते हैं या जब तक खुद प्रभावित न हों, उनका संज्ञान ही नहीं लिया जाता।
किताब का रोचक स्क्रीन एडाप्शन सुमित पुरोहित और सौरव डे ने किया है। इस सीरीज के कुछ डायलॉग याद रह जाते हैं, जैसे :
1- रिस्क है तो इश्क़ है
2- If you can’t take the heat, come out of the kitchen
3- बिजनेस में सेचुरेशन आता है, दिमाग में थोड़ी आता है।
यानी, ‘स्कैम’ को देखना आधुनिक भारत के आर्थिक इतिहास का एक अध्याय पढ़ लेना भी है। इतिहास का विद्यार्थी रहा हूं तो कभी भूलता नहीं हूं कि ईएच कार ने कहा था, ‘इतिहासकार अपनी पसंद की मछलियां चुनकर प्लेट सजाता है’। ये सलेक्टिविज्म हमारे यहां के लेफ्ट, राइट सब इतिहासकारों ने भी खूब अपनाया है। मेरी निगाह में पत्रकार ऐसे इतिहासकार होते हैं जो इतिहास को घटित होते हुए देख रहे होते हैं। तो ‘स्कैम’ भी इतिहास की ऐसी ही करवट थी जिसे सुचेता दलाल ने देखा, रिपोर्ट किया और जितना रिपोर्ट किया, उससे ज्यादा किताब के रूप में दर्ज किया, और जैसे-जैसे वक्त बीतता गया, ग्लोबलाइजेशन की आंधी में अर्थजगत भारत के सामाजिक राजनीतिक जीवन में अभूतपूर्व रूप से महत्वपूर्ण होता गया, किताब पुरानी शराब की तरह कीमती होती चली गई है, शायद यही वजह रही होगी कि हंसल को लगा होगा कि तीस साल पहले, आज के मुकाबले बहुत छोटी सी रकम यानी पांच सौ करोड़ के घोटाले की कहानी को स्क्रीन पर लाया जाना जरूरी है, और दिलचस्प भी। इस कहानी में भारत की दिलचस्पी तब भी है, जब भारत उसके बाद हजारों करोड़ के कई-कई घोटाले देख सुन चुका है। और मेरे आसपास के, देश दुनिया की वेबसिरीज सनकी भाव में देखने वाले मित्र इसे भारत की अब तक की सर्वश्रेष्ठ क्राइम सीरिज बता रहे हैं तो मैं उनकी बात को गंभीरता से संज्ञान में लेता हूं।
कोई दस साल पहले राजस्थान के मरूस्थली इलाके सुमेरपुर, पाली में गरीब बालिकाओं के लिए बेहद संजीदगी से काम करने वाले एक एनजीओ ‘एजूकेट गर्ल्स’ में पत्रकारों के एक दल में तीन दिन रहने का अवसर मिला था। हालांकि वहां से लौटते ही बीमार पड़ गया था और उस एनजीओ के काम पर कुछ भी नहीं लिख पाया, पर उस यात्रा से यह जरूर पता चला कि बिना शोरशराबे के हंसल मेहता उस एनजीओ के जरिए वंचितवर्ग की बच्चियों के बेहतर जीवन में योगदान देते हैं, वहां की बच्चियों से मिलना ‘चिल्ड्रन ऑफ हैवन’ के जिंदा किरदारों से मिलना था। सिनेमा प्रेमियों के लिए माजिद मजीदी की ईरानी फिल्म ‘चिल्ड्रन ऑफ हैवन’ सुपरिचित नाम है, जिसमें दो बच्चों – भाई-बहन की कहानी है जो अपने एक जोड़ी जूते खो चुके हैं और ढूंढ़ रहे हैं। ‘एजूकेट गर्ल्स’ के जरिए भी हंसल जिंदगी के दौड़ के लिए वंचित बच्चियों को शिक्षा के जूते पहना रहे हैं। तो ‘स्कैम’ बहुत ज्यादा तेज दौड़ने वाले जूतों के लिए तड़पते हर्षद मेहता की, हासिल करने पर लड़खडाकर औंधे मुंह गिरने की कहानी है। एक संजीदा फिल्मकार दुनिया को बेहतर बनाने के लिए पर्दे का ही इस्तेमाल नहीं करता, पर्दे के आगे, पीछे भी लगा रहता है। हम पत्रकारों को यह अलिखित निर्देश था कि हंसल का जिक्र ना करें। पर आज मैं उस अलिखित निर्देश की अवहेलना करने का नैतिक अपराध करना चाहता हूं। ‘स्कैम’ के रूप में आर्थिक अपराध की दुनिया के नरक की कहानी कहते हुए हंसल का वह रूप मुझे याद आता है, जब वे वंचित बच्चों के लिए इसी दुनिया में स्वर्ग संभव बनाने के लिए गुपचुप अपनी हिस्सेदारी करते हैं। बात कहने का विचित्र संयोग यह भी है कि सुमेरपुर का वह इलाका जैन मंदिरों के लिए ख्यात है, जैन परंपरा अपरिग्रह यानी भौतिक वस्तुओं को संग्रह न करने के दर्शन को जीवन के प्रमुख आचारों में गिनती है, और यह ‘स्कैम’ का घटनाक्रम अर्जित करने और परिग्रह की लालसा का महाकाव्य है, हो सकता है, जीवन में परिग्रह और अपरिग्रह की उलटबांसी को कथार्सिस के रूप में एक्सप्लोर करने की झीनी सी प्रेरणा हंसल को सुमेरपुर की यात्राओं से मिली हो…
सिरीज की एक खास बात यह भी है कि हिंदी सिनेमा के तीन डायरेक्टर्स ने इसमें अभिनय किया है: सतीश कौशिक, अनंत महादेवन और रजत कपूर। अनुराग कश्यप इन दिनों अभिनय में आये ही हैं, तिग्मांशु धूलिया ने कई यादगार भूमिकाएं की हैं, इस लिहाज से हिंदी सिनेमा की यह उल्लेखनीय बात है। इतने डायरेक्टर एक ही समय में शायद ही कभी हिंदी सिनेमा के किसी काल में अभिनय करते रहे होंगे!
‘स्कैम’ नामक किताब का यह विजुअल रूपांतरण शेयर बाजार की अठखेलियों का दस्तावेजीकरण है। इसमें अपने समय को दर्ज करते हुए चकाचौंध के बीच साधारण जीवन की मासूमियत भरी रश्मियों को झिलमिलाते हुए बचा लेना निर्देशक का प्रताप है। मुझे लगता है कि इसके जरिए, ‘अलीगढ़’ और ‘शाहिद’ के मेरे प्रिय निर्देशक हंसल मेहता रचनात्मकता के शीर्ष पर आ गए हैं। आगे की उनकी यात्रा उनके खुद के लिए अब चुनौतीपूर्ण होती चली जाएगी।