डी डी डी डी ई ई ई… डी डी डी डी ई ई ई… इस तरह की मस्ती भरी योडलिंग जब भी कहीं सुनते हैं तो सीधा एक ही नाम मन में आता है, किशोर कुमार। ये उनका ट्रेडमार्क ही नहीं उनकी रियासत है, जिस पर अब तक भी कोई और हुकूमत नहीं कर पाया। वैसे योडलिंग आयी तो सेंट्रल यूरोप से थी, लेकिन इसे हिन्दी फिल्म जगत में लाये किशोर दा।
योडलिंग यूरोप के गावों में बकरियाँ चराने वाले अपनी बकरियों को इकट्ठा करने के लिए इस्तेमाल करते थे, जिसे सुनते ही सारी बकरियाँ दौड़ते हुए चरवाहों के पास आ जातीं। फिर धीरे-धीरे यह हुनर उनके लोक गीतों में झलकने लगा।
किशोर दा को यह अंदाज़ बहुत पसंद आया। किशोर दा जैसे थे, मदमस्त और खुशमिज़ाज वैसी ही चीज़ें उन्हें पसंद आती थीं। वो भी घूमते-फिरते अपनी धुनों और गीतों के साथ कभी टहलने निकलते तो सबको इकट्ठा करने के लिए मीठी सी तान छेड़ देते। सब लोग उनकी आवाज़ सुन खिंचे चले आते थे। उनके बारे में कहा जाता है कि वे trained सिंगर नहीं। भगवान ने उन्हें खुद ये गुण दिया। उन्होंने संगीत का बकायदा कोई प्रशिक्षण नहीं लिया| फिर भी उनके सुरों की दुनिया कायल है। उनके गाने सबसे अलग और अंदाज़ सबसे निराला रहा।
अगर हम किसी चीज़ की ट्रेनिंग लेते हैं तो हमें एक सिस्टम से वो चीज पढ़ाई जाती है। हम उस स्ट्रक्चर से बाहर मतलब ‘आउट ऑफ द बॉक्स’ सोच ही नहीं सकते। अगर हम बिना किसी नियम में बंधे, सिर्फ अपने नज़रिये से कुछ समझते हैं, तो उसके अलग आयाम दिखाई देते हैं जो पहले कभी किसी ने देखे ही नहीं। वो बिलकुल हमारा नज़रिया, हमारी सोच की उपज होती है जो हर बार कुछ नई दिखती है। किशोर दा भी एक ढर्रे पर चलने वालों में से नहीं थे। संगीत बन्दिशों में नहीं सीखा जा सकता, ना ही किसी एक शख्स से। संगीत उनके लिए हर जगह था, उन्होंने तो चरवाहों से भी संगीत सीख लिया।
किशोर दा सिर्फ संगीत तक ही नहीं बंधे थे, उनमें अदाकारी के बेमिसाल गुण होने के साथ-साथ गीतकार, संगीतकार, निर्माता और निर्देशक की प्रतिभाएं भी थीं|
गागर में सागर मुहावरा उन्हीं के लिए बना था शायद!
उनके बारे में लिखना कहाँ से शुरू करें? चलिये स्कूल से शुरू करते हैं। किशोर दा का स्कूल का उनका नाम था, आभास कुमार गांगुली। उनका बचपन खंडवा, मध्य प्रदेश में बीता। जब वो मुंबई आए तो फिल्म जगत में नाम कमाने के लिए उन्हें शायद किशोर कुमार ज़्यादा सुरीला लगा। उनके नाम बदलने के बाद उनकी किस्मत काफी बदली। अशोक कुमार जी के मुंबई आने के बाद वो भी मुंबई पहुंचे और उन्होंने बॉम्बे टॉकीज में बतौर कोरस सिंगर काम करना शुरू किया। उन्हें धीरे-धीरे फिल्में मिलने लगीं। उन्हें लगा कि उनकी किस्मत पलटने वाली है। पर उनकी शुरुआती सोलह फिल्में फ्लॉप रहीं। वो एक्टिंग करके थक चुके थे। इसके बाद उन्होंने एक्टिंग छोड़ने की सोच ली। उन्होंने जानबूझकर ऐसी हरकतें करना शुरू कीं जिनसे कोई डाइरेक्टर खुद उन्हें फिल्म से निकाल दे।
फिर जब उनकी फिल्में हिट होने लगीं जैसे – लड़की, नौकरी, चार पैसे, फिर जाकर उन्होंने एक्टिंग के बारे में गंभीरता से सोचना शुरू किया। ऐसे ही जब कोई प्रोड्यूसर उन्हें गंभीरता से नहीं लेता और उन्हें पूरी फीस नहीं देता तो वो हर बार सेट पर अलग-अलग तरह से मूंछें और बाल काटकर आते ताकि फिल्म की continuity खराब हो और तंग आकर प्रोड्यूसर उन्हें पूरी फीस दे दे। घर पर तो वो बोर्ड भी लगाते थे, “Beware of Kishore”। उन्होंने जितनी भी फिल्मों में अदाकारी की, ज़्यादातर कॉमेडी रहीं। वो टिपिकल बॉलीवुड हीरो नहीं थे। उन्होंने अपने अंदाज़ से अपनी अलग पहचान बनाई।
उन्होंने हिन्दी के साथ-साथ बंगाली, मराठी, असमी, गुजराती, कन्नड़, भोजपुरी, मलयालम और उर्दू में भी गाने गाये। वैसे फिल्मों में गाने और स्टेज पर गाने में बहुत फर्क होता है। फिल्म में आप किसी और के लिए गाते हो, चेहरा किसी और का होता है और आवाज़ किसी और की। आपके सुर तो पक्के होने ही चाहिए, साथ ही जिस सिचुएशन पर गाना है उसके जज़्बात आपकी आवाज़ में होने चाहिए और जिस हीरो या हीरोइन के लिए गाया जा रहा है उससे भी आपकी आवाज़ मेल खानी चाहिए| इस लिस्ट की हर एक शर्त किशोर दा अपने गानों में बखूबी पूरी करते थे। उसमें भी वो एक्सपरिमेंट करते रहते।
आजकल हम जो गानों की परोडी सुनते हैं उसका चलन भी शायद किशोर दा ने ही शुरू किया। मैंने सबसे पुरानी परोडी जो सुनी वो है, ‘पाँच रुपैया बारह आना’, ‘तेरी गठरी में लगा चोर मुसाफिर जाग ज़रा’, ‘धीरे से जाना बगियाँ में’, उनके पसंदीदा गायकों के गानों को पिरोकर उन्होंने बनाया था ‘पाँच रुपैया बारह आना’। वो ट्रेंड को फॉलो नहीं करते थे, अपनी धुन में चलते थे।
जब भी वो अमिताभ बच्चन के लिए गाते थे तो उनकी आवाज़ में अलग खनक होती थे, ऐसा खड़ापन होता था, जैसे खुद अमिताभ बच्चन ही गा रहे हों। जब वो राजेश खन्ना के लिए गाते थे तो उनके आवाज़ में नरमी आ जाती, मुलायम से सुर यूं लगते, मानो राजेश खन्ना खुद गा रहे हैं। संगीत की बारीकियाँ तो गुरु सिखा देते हैं लेकिन यह बारीकी और यह समझ तो इंसान खुद ही पैदा कर सकता है; जो हर किसी के बस की बात नहीं होती। इसलिए किसी और में किशोर दा जैसी बात नहीं होती। हो ही नहीं सकती!
इस तरह के मस्तमौला इंसान अब कहाँ… जो उनकी तरह गाकर, गुदगुदाकर जीवन के फलसफे सुना सके। इंसान के लिए सबसे ज़रूरी चीज़ है – खुश रहना और हर बार, हर गीत, हर फिल्म में किशोर दा ने यही बताया। जैसे उन्होंने गाया, वैसे ही जिया, ‘चाहे कोई खुश हो या चाहे गालियां हज़ार दे, मस्तराम बन के ज़िंदगी के दिन गुज़ार दे।’