रोज़गार की भाषा के सुनामी में डूबती भावनाओं की भाषाएं
श्रीजित मुखर्जी के निर्देशन में बनी बंगाली फ़िल्म ‘जातीश्वर‘ का रीमेक हिंदी में ‘है ये वो आतिश गालिब’ नाम से बनने जा रहा है, चार नेशनल अवॉर्ड विनर ‘जातीश्वर‘ मेरी प्रिय बांग्ला फिल्मों में से है, जो अपने कथ्य यानी कंटेंट में भाषा से प्रेम को इतनी शिद्दत से सेलिब्रेट करती है कि समकालीन भारतीय सिनेमा में ऐसा दूसरा उदाहरण मुझे नहीं मिलता…
अपनी भाषा से प्रेम, शिफ्ट और पीड़ा का रिश्ता मानव सभ्यता ने जितना 20वीं और 21वीं सदी में महसूस किया है, शायद ही पहले कभी किया हो! शायद यही वजह है कि समकालीन भाषाविदों ने नई सदी में इस ख़याल को सैद्धांतिकी देनी शुरू कर दी है कि अपनी भाषा को जीना ही मातृभूमि में रहना है यानी नई दुनिया में आपकी अपनी भाषा ही आपकी मातृभूमि है।
बीसवीं सदी का क्रूर सच और सबसे बड़ा समाजवैज्ञानिक तथ्य विस्थापन और पलायन कहा गया था, एकाधिक आंकड़ों का सर्वस्वीकृत विचार है कि आधी से ज़्यादा दुनिया पिछली एक सदी में विस्थापित हुई है, यानी नई युवा जमात की अधिकतम दो पीढ़ी पहले। इसके अगले पड़ाव के रूप में इक्कीसवीं सदी में विस्थापित लोगों की एकमात्र या अंतिम भावनात्मक शरणगाह उनकी अपनी भाषा ही है।
इस बात को कहने का तात्कालिक संदर्भ यह बन पड़ा है कि, श्रीजित मुखर्जी के निर्देशन में बनी बंगाली फ़िल्म ‘जातीश्वर’ का रीमेक हिंदी में ‘है ये वो आतिश गालिब’ नाम से बनने जा रहा है, चार नेशनल अवॉर्ड विनर ‘जातीश्वर‘ मेरी प्रिय बांग्ला फिल्मों में से है, जो अपने कथ्य यानी कंटेंट में भाषा से प्रेम को इतनी शिद्दत से सेलिब्रेट करती है कि समकालीन भारतीय सिनेमा में ऐसा दूसरा उदाहरण मुझे नहीं मिलता। हिंदी फिल्म को ग़ालिब के जीवन पर आधारित बनाने की बात कही जा रही है। ‘जातीश्वर’ एंटोनियो फिरंगी के जीवन से प्रेरित थी। जो उन्नीसवीं सदी में पुर्तगाली मूल के बंगाली कवि थे। उनका बंगाली भाषा से प्रेम ही फ़िल्म की प्राण कथावस्तु है। जब पहली बार फ़िल्म देखी, तब से यह खयाल रहा कि हिंदी से ऐसे प्रेम की कोई कहानी या किरदार है क्या? फिरंगी न भी हो, तो मुझे भारतेंदु हरिश्चंद्र का जीवन वैसा ही हिंदी प्रेम से भरा, रोमांटिक प्रेम और नाटकीयता से भरपूर दिखता है, जिनके प्रेम प्रसंग को मुख्यकथा बनाकर हाल ही मनीषा कुलश्रेष्ठ ने उल्लेखनीय उपन्यास ‘मल्लिका’ लिखा है। कौन साहस करेगा भारतेंदु पर फिल्म बनाने का? पता नहीं!
‘जातीश्वर’ में समकालीन कथा भी समानांतर प्रवाहित है, कोलकाता में जन्मा, पला-बढ़ा गुजराती लड़का बंगाली भाषी युवती से प्रेम करता है, युवती उसे उसकी कच्ची पक्की बंगाली के लिए ताना देती है, प्रेम स्वीकारने के लिए भाषा की अनिवार्यता जताते हुए। प्रेम और भाषा से प्रेम की यह सिम्फनी हृदय के संगीत को आकार और स्थायित्व देने की सीढ़ी बनते हुए देखना विलक्षण अनुभव है, और हम हिंदीभाषियों के लिए लगभग अकल्पनीय सा भी।
हिंदी रीमेक में यह देखना खासा दिलचस्प होगा कि फिरंगी की विश्वसनीय भूमिका बंगाली सिनेमा के सुपर स्टार प्रोसेनजीत ने निभाई थी, अब ग़ालिब के लिए श्रीजीत किसे चुनेंगे! क्योंकि हिंदी मनोरंजन जगत और दर्शक वर्ग अभी नसीरूद्दीन शाह के गालिब अवतार को भूला ही नहीं है, इतना ही नहीं, वह लगभग मान बैठा है कि उससे इतर या बेहतर कोई ऑन स्क्रीन गालिब मुमकिन भी है क्या?
कबीर सुमन बांग्ला के रॉकस्टार हैं, उन्होंने ‘जातीश्वर’ का संगीत रचते हुए, नेशनल अवॉर्ड जीता था, हिंदी रीमेक में एआर रहमान का संगीत स्वाभाविक चयन है। गुलज़ार साहब को गीत लिखने के लिए चुनना तो मणिकांचन संयोग है, जो ग़ालिब पर यादगार सीरियल लिख-बना चुके हैं। उनका कई भाषाओं से प्रेम और भारतीय भाषाओं के माधुर्य और शक्ति में विश्वास हम सब जानते हैं। वे बंगाली इतनी अच्छी बोलते हैं कि बंगाली लोग उन्हें ग़ैरबंगाली नहीं मानते, उर्दू की मिठास और पंजाबी के सौंदर्य वाली उनकी हिंदुस्तानी अपने आप में लगभग, भारत की अलग भाषा या हिंदी की अलग बोली का दर्जा हासिल कर चुकी है, मैं उसे ‘बोस्कियाना हिंदुस्तानी’ कहना चाहूंगा। जो ऐसा भाषाई समंदर है जिसमें टैगोर, ग़ालिब, कुसुमाग्रज, अमृता प्रीतम, बुल्लेशाह और यशवंत व्यास की भारतीय भाषाई नदियां आके मिलती हैं तो उसकी लहरों का फलक और छटा निहारने लायक हो जाते हैं। वे बड़े पर्दे पर गालिब को उतारना चाहते थे पर गालिब के जीवन का कैनवस उन्होंने तीन घंटे में समेटना नामुमकिन मानते हुए सीरियल रचा, जो गुलजार, जगजीत सिंह और नसीर के स्पर्श की त्रिवेणी से क्लासिक बन गया।
हिंदी का व्यापक रूप हिंदुस्तानी है, वही हिंदुस्तानी तथाकथित हिंदी भौगोलिक बेल्ट से आगे कहीं वृहत्तर सीमाओं तक भारत की भाषा है, हिंदुस्तानी का एक और आधुनिक और भौगोलिक रूप से विस्तृत संस्करण बॉलीवुड की हिंदी है। तो मेरी नज़र में ग़ालिब के जीवन पर हिंदी सिनेमा या बॉलीवुड में ‘जातीश्वर’ का रीमेक उसी हिंदुस्तानी ज़ुबान का सेलिब्रेशन है।
भारत में जितनी जुबानें और सांस्कृतिक विविधता है, उसके कारण कई यूरोपीय चिंतक इसे कई देशों वाला देश कह चुके हैं। इस महादेश की एक राष्ट्रभाषा का खयाल अक्सर विवाद या गर्व पैदा करता है, कहा जा सकता है कि एक क्यों हो, या एक ही क्यों हो?
यह एक अनिर्वचनीय सुख का अहसास रहा होगा कि आज़ादी के बाद कई पीढ़ियां गांधीजी के स्वदेशी के सकारात्मक हैंगओवर और नए भारत के निर्माण की खुमारी में अपनी भाषाओं खासकर हिंदी में और हिंदी के सपने देखती हुई जवान हुईं। पर ग्लोबलाइजेशन की आंधी में पहली बड़ी मार भारतीय भाषाओं पर पड़ी, अंग्रेजी में, अंग्रेजी या अमेरिका के सपने देखती पीढ़ी खड़ी हुई। विदेश में बसी इस पीढ़ी की हमारी नस्ल भारत में रह रहे माता-पिता को जब आधी अंग्रेजी और आधी उसका अनुवाद करके बोली गई हिंदी या भारतीय भाषा में संवेदना या कुशलक्षेम के शब्द कहती होगी, तब वे शब्द कितनी अवशिष्ट शिद्दत से उन तक पहुंचते और महसूस किए जाते होंगे, मैं अक्सर सोचता हूं। पूरा दोष इस नस्ल का भी नहीं, उनके मां-बाप का भी नहीं, जिन्होंने अपने बच्चों को शहर के बेहतरीन अंग्रेजी स्कूलों में एडमिशन से लेकर पढ़ाने तक के लिए जी-जान सब लगा दी, पर भाषा का क्या? सब लोग भाषाविद् न होते हैं, ना हो सकते हैं कि आइसबर्ग थ्योरी जानते हों कि भाषा तहजीब के समुद्री पहाड़ का दिखता हुआ शीर्षभर है। टाइटैनिक ऐसे ही आईसबर्ग से टकराकर डूबा था। हम सब डूब सकते हैं, अपनी भाषाओं को खोकर।
हालांकि, भारतीयता के नारों में तो 2014 के बाद की सरकार हिंदी प्रेमी रूप में दिख रही है, नीयत और ज़मीनी स्तर पर कितनी है, इसका कोई निष्कर्ष निकालना अभी जल्दबाजी ही होगी। अपनी भाषा से प्रेम करने के नए तरीकों और वजहों के संधान का यह बड़ा मुफीद वक़्त लग रहा है, यानी मौका भी, दस्तूर भी, और हम मजबूर भी। हमारी भाषाओं के आइकन्स को फिर से आइडेंटिफाई करने, ग्लोरीफाई करने का भी समय है। वरना हमसे अगली तीसरी पीढ़ी हिंदी जैसी हमारी भाषाओं को संस्कृत की तरह न देखे, कि आदर तो है, पर जीवन में उपस्थिति आटे में नमक से कम रह गई है। जैसा हिंदी पट्टी के बड़े शहरों के मध्यमवर्गीय घरों में होना थोड़ा-थोड़ा शुरू हो गया है, खुदा न करे कि यह कोई बढ़ता हुआ ट्रेंड हो। यूं न जाने क्यों, मुझे हिंदी की तासीर पर एक भरोसा है कि ऐसा होगा नहीं, कोई चमत्कार होगा, या हम हिंदीवाले ही ऐसा नहीं होने देंगे, यह निश्चित रूप से कहना बस अभी मुश्किल लग रहा है।