बेड़ियों से मुक्ति ही घर वापसी है
SonyLiv पर हाल ही रिलीज हुई हिंदी फिल्म ‘वैलकम होम‘ (Welcome Home) पर इसी नाम की 2018 की विदेशी फ़िल्म का कोई असर नहीं है, जबकि इस फिल्म में तो सदियों का शोषक भारतीय पुरुष और शोषित स्त्री की हजार पीढ़ियों का दर्द शिद्दत से दिखाई देता है।
यह फ़िल्म केवल हॉरर फिल्म नहीं है। हिंसा और सेक्स तो हॉरर फिल्मों में अक्सर रहते ही हैं, पर मनुष्य की मूल प्रवृत्तियों को संबोधित करते हुए ऐसी कहानी कह देना नया है। इस फिल्म के बारे में कहा गया है कि कोई वास्तविक जीवन से कथा का सूत्र लिया गया है, मुझे लगता है कि भारतीय जीवन में ऐसे सूत्र सदियों से कोस-कोस की दूरी पर बिखरे पड़े हैं, अब भी भारत का कहीं न कहीं, कोई कोना, कुछ लोग ऐसी घटनाओं का साक्षी होगा, पीड़ित होंगे।
पितृसत्तात्मक, धार्मिक अंधविश्वास की बेड़ियों में जकड़े अर्द्धशिक्षित भारत को ऐसी कहानियों का आगार कह देना गलत नहीं होगा, और भारत ही क्यों दुनिया के कितने ही अविकसित, अल्पविकसित देश इस मामले में भारत के साथी होंगे, और इस साहचर्य पर हम गर्व तो नहीं ही कर पाएंगे।
अंकिता नारंग की लिखी फ़िल्म पटकथा के लिहाज से भी बेशक़ तारीफ़ के काबिल है। पहली जरूरी बात तो यह है कि हिंदी फिल्म ‘वैलकम होम‘ पर इसी नाम की जॉर्ज रेटलिफ निर्देशित अमेरिकन फ़िल्म का कोई असर नहीं है, जिसकी कथा एक युगल की ऐसी इटली यात्रा है जिसमें वे अपने रिश्ते को पुनर्जीवित करना चाहते हैं। हालांकि इसे क्रिटिक्स की ओर से ज्यादा अच्छे रिव्यूज नहीं मिले, पर अगर आप मूवी फ्रीक हैं तो प्रेम के अलग रंग और खुशबू के लिए एक बार तो देखा ही जा सकता है, इतना निराश नहीं करेगी।
हिंदी फिल्म ‘वैलकम होम’ SonyLiv पर रिलीज हुई है। तकनीकी रूप से देखें तो बहुत कम बजट में बनाई गई क्राफ्ट के लिहाज से अपने जॉनर की उत्तम फ़िल्म है ‘वैलकम होम’। निर्देशक पुष्कर सुनील महाबल की समझदारी लगातार महसूस होती है। वे अब तक टीवी की दुनिया में रहे हैं, फ़िल्म संसार में यह फ़िल्म उनका डेब्यू है। और उफ्फ! क्या ही जिंदाबाद डेब्यू है।
कश्मीरा ईरानी, स्वरदा थिगले और टीना भाटिया तीन अभिनेत्रियों की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण है। क्रमश: अपने बाप और भाई से त्रस्त, अनुजा और नेहा नाम की, नागपुर ग्रामीण की, युवा स्कूल शिक्षिकाएं जनगणना के लिए अपनी स्कूटी से जंगल के बीच अकेले सुनसान इलाके में एक घर पहुंचती हैं, जहां सब कुछ सामान्य नहीं है, एक बुढ़िया है, एक अधेड़, एक युवती और एक युवा नौकर। पहली बार लौट जाती हैं, पर उनमें से एक घर की युवती की स्थिति को लेकर परेशान महसूसते हुए वापिस जाने के लिए दूसरी को मना लेती है, और फिर हिंसा, भय का एक निर्मम संसार खुलता है। विकट स्थितियों में खुद को बचाने-निकालने की जद्दोजहद सरवाइवल स्पिरिट का विजुअल एडवेंचर बनती जाती है फ़िल्म। पेट्रिआर्की, घरेलू हिंसा की उपकथा या सबटेक्सट को न भी समझें तो यही मूलकथा पर्याप्त रोमांचक है, सांस रोके देखने, देखते जाने को प्रेरित कर देने वाली। हिंसा के हाई पॉइंट्स तो उफ़्फ़, रौंगटे खड़े कर देते हैं। हिंसक पुरुष के रूप में शशि भूषण सदियों का शोषक भारतीय पुरुष नि:शब्द साकार कर देते हैं। और शोषित स्त्री की हजार पीढ़ियों का दर्द टीना भाटिया के चेहरे और अल्पभाषी अभिनय में इतनी शिद्दत से दिखाई देता है कि आपके भीतर जरा सा भी इंसान बचा है तो यकीनन आपका दिल कराह उठेगा।
इस फिल्म के निर्देशन की सार्थकता माना जा सकता है कि सिनेमा के विद्यार्थी के रूप में इसे देखते हुए मुझे मास्टर स्टोरीटेलर अल्फ्रेड हिचकॉक याद आते हैं, और भारत में हॉरर फिल्मों के बादशाह रामसे ब्रदर्स हमारी छोटे शहरों की परवरिश में शामिल हैं ही, इनसे मिलकर बनी समझ में हॉरर का जॉनर इस फ़िल्म को देखते हुए केवल अपने जॉनर से बाहर निकलकर व्यापक सिनेमाई दृष्टि बनाता दिखता है।
मनुष्य मन के अंधेरों का ब्लैकहोल हमें ऐसी कहानियों में उजागर होता दिखाई देता है। छोटे-मोटे ऊबड़-खाबड़ जीवन की बजाय ऐसी ध्रुवस्थ अतिरेकी जीवन स्थितियां हमारे विवेक और समझ के भी उन द्वारों को खोलती हैं जिन्हें हम अक्सर बन्द ही रखना चाहते हैं, या डरते हैं, और इसलिए उन द्वारों के खुलने के बाद के मानवीय व्यवहार और मानसिक परिवर्तनों को भी हम देख, समझने से वंचित ही रहते हैं। लेखिका अंकिता नारंग ने जिस सहजता से, इस फ़िल्म में एक घर की चहारदीवारी को स्त्री के विविध शोषण और गैरबराबरी के मैटाफ़र के रूप में परिकल्पित कर दिया है, और निर्देशक पुष्कर ने उसे जीवंत कर दिया है, यह साधारण नहीं है। पेट्रिआर्की की सदियों की मौन क्रूरता का बिंब अतिवादी हिंसक दृश्यों और स्त्री के सर्वाइवल स्ट्रगल की सिम्फनी में ही कहा जा सकता था। और यह भी कि उन्हें बचाने कोई पुरुष नहीं आएगा, और वे, जब तय कर लें तो, खुद ही इस क्रूरता के मोहपाश से निकलने में सक्षम भी हैं, फिल्म लगातार डराते हुए भी यह प्रेरणा दे जाती है। फिल्म की दिलचस्प ‘प्रेरणा’स्पद बात यह भी है कि प्रेरणा यानी टीना भाटिया अभिनीत किरदार का एक शेड है कि लगातार बेड़ियों में रहना बेड़ियों से प्रेम करने की वजहें भी ढूँढ़ लेता है। तस्लीमा नसरीन की किताब ‘लज्जा’ (हिंदी संस्करण : वाणी प्रकाशन) याद आती है, जिसमें वे कहती हैं कि पैरों में पायजेब भी इसलिए पहनाई जाती है कि घर की चारदीवारी में उसकी छम-छम की ध्वनि के उतार-चढ़ाव से स्त्री का मूवमेंट पता चलता रहे, और स्त्री भ्रम में रहती है कि यह उसके श्रृंगार के लिए है।
बहुत सटल तरीके से फिल्म भारतीय धर्म के कर्मकांडीय स्वरूप को भी बहस के लिए प्रस्तुत करती है, मुझ जैसा, भारतीय इतिहास का साधारण से साधारण अध्येता भी यह जानता है कि हमारा ऋग्वेदीय धर्म प्रकृति को धन्यवाद स्वरूप यज्ञ विधान का धर्म था, हमारे लालच और कामनाओं के लिए कर्मकांड की धारणाएं बाद में शामिल हुईं और उत्तरोत्तर हमारे धर्म का बेहद सुंदरपक्ष धूसर होता चला गया, और स्त्री एक अर्जित संपति, वस्तु और भोग्या की तरह उन कर्मकांडों का निर्मम, अमानवीय हद तक मानसिक शारीरिक रूप से हिंसक उपादान बनीं। और इसीलिए यह फिल्म मेरे लिए हॉरर से ज्यादा क्राइम थ्रिलर प्रतीत होती है, वह भी ऐसा जो सामाजिक जड़ता का कलात्मक प्रतिकार करने वाला।
कहानी कहने के लिए निर्देशक ने मुख्य भूमिकाओं में जाने-पहचाने किसी चेहरे को न लेकर भी अपनी कहानी को बेहतर तरीके से कह देने का मार्ग चुना है, यानी अपनी कहानी में अपने ही किरदार, जैसे अपनी इमेज खुद गढ़ रहे हैं।