200 हल्ला हो – अंधेरा जीतते जुगनुओं की दास्‍तां सुनिए

‘200 हल्ला होओटीटी प्लेटफार्म ज़ी5 पर आई नई फिल्म है। फ़िल्म 2004 की सत्य घटना पर आधारित है जिसमें तथाकथित रूप से, 200 नकाबपोश दलित औरतों ने नागपुर कोर्ट परिसर में लाए गए यौन शोषण, बलात्कार के आरोपी को क्रूरता से मार दिया, अंगभंग कर दिए थे।

 

“एफएफसी रिपोर्ट से कुछ होगा क्या? मतलब ये जो अन्याय हुआ है, दलितों के साथ, ये तो हज़ारों सालों से चल रहा है… छोटी-मोटी रिपोर्टों से समाज की बीमारी खत्म होगी? …अरे, मैं कई कमेटियों का मेम्बर रहा हूँ, बहुत सारी रिपोर्टें देखी हैं, उनका हश्र भी देखा है… इसलिए न, दिमाग़ में सवाल उठते हैं।” प्रोफेसर अभिनव अवसारे यानी अभिनेता इश्तियाक खान का यह वक्तव्य या डायलॉग मुझे इस फ़िल्म का सबसे अहम कथार्सिस लगता है।

इस मायने में फ़िल्म प्रथम दृष्टया हाल के समय में जाति के प्रश्‍न पर सर्वाधिक चर्च‍ित फिल्‍म ‘आर्टिकल 15’ का हिंदी सिनेमाई उत्तरपाठ लग सकती है, पर मुझे लगता है कि समकालीन भारतीय सिनेमा जगत से दलित संवेदना का यथार्थवादी चित्रण याद करते हुए ये दोनों फिल्में बराबर रखी जानी चाहिए और साथ रखकर देखने से  संभव है कि हम दलित डिस्कोर्स को ठीक से समझ सकें, बेहतर भारत के लिए कोई रास्ता ढूंढ़ सकें!

मॉब लिंचिंग हाल के सालों में चर्चा का विषय है, अलवर का पहलू खान मॉब लिंचिंग केस सब जानते हैं। अलग-अलग मुद्दों पर मॉब लिंचिंग के लिए अलग-अलग राय होती है, जब तक कि मरने वाला अपना करीबी या जाति-मजहब का न हो! मॉब लिंचिंग के पक्ष में लोग अजीब-अजीब व्यवहारिक किस्म के तर्क रचते और देते हैं, इसमें इतनी रचनात्मकता होती है कि कवि भी शरमा जाए। पोशीदा चेहरों के हाथ से न्याय भी न्याय नहीं है, अगर वे लोकतांत्रिक राज्य की न्यायिक प्रणाली का हिस्सा नहीं है। फ़िल्म इस बहस को फिर से खड़ा करती है कि क्‍या कोई वैध तर्क मॉब लिचिंग को स्‍वीकार्य बना सकता है। सजा देना राज्‍य की न्‍याय व्‍यवस्‍था ही कर सकती है या जनता भी, और इसके साइड इफेक्‍ट्स क्‍या हो सकते हैं। क्‍या कोई बहुसंख्‍यक का वैध तर्क बिना न्‍यायिक प्रक्रिया के हर मॉब लिंचिंग को न्‍याय बना देगा?

निर्देशक सार्थक दासगुप्ता

नेटफ्लिक्स फ़िल्म ‘द म्यूजिक टीचर’ के निर्देशक सार्थक दासगुप्ता की नई फिल्म है : ‘ 200 हल्ला हो’ ओटीटी प्लेटफार्म ज़ी5  पर आई है। वे नाम को सार्थक करते हैं, सार्थक फिल्में बना रहे हैं। ‘द म्यूजिक टीचर’ देखना भी मेरे लिए असाधारण अनुभव था। उस फिल्म का ठहराव कमाल का था, नई फिल्म की गति खास है। दोनों को साधने का काम सार्थक जैसे निर्देशक ही कर सकते हैं।

फ़िल्म 2004 की सत्य घटना पर आधारित है। यह भी कड़वा अनुभव है कि दलित जीवन का सच जब-जब बाहर आता है,  भयावहता का नया रूप लेकर आता है, दिल को पहले से ज़्यादा दहलाता है। यह फ़िल्म भी इसका अपवाद नहीं है, कई बार वह भयावहता मनुष्य के रूप में हमें शर्मसार भी करती है, कि हम सदियों से अपने ही समाज के एक हिस्से के साथ कितनी बुरी तरह से व्यवहार करते रहे हैं।

अमोल पालेकर इस फ़िल्म में रिटायर्ड जज विट्ठल डांगळे हैं, किरदार दलित है, जांच कमेटी के मुखिया बनाए गए हैं। उनके फैन्स के लिए तो फ़िल्म ट्रीट है ही। अपने किरदार में जैसे ढले हैं, कि उफ़्फ़, क्या ही कमाल लगे हैं!

तथाकथित रूप से, 200 नकाबपोश औरतों ने नागपुर कोर्ट परिसर में लाए गए यौन शोषण, बलात्कार के आरोपी को क्रूरता से मार दिया, अंगभंग कर दिए। फिल्‍म बताती है कि पुलिस बस्ती राही नगर से 5 स्त्रियों को पकड़कर उन्हें मुजरिम साबित करने में लग जाती है।

आशा सुर्वे का किरदार अहम है, दलित लड़की जो ब्राह्मण लड़के उमेश से प्यार करती थी, पर ब्राह्मण लड़के के परिवार के संभावित अस्वीकार को मानकर पीछे हटते हुए एकदम से बिना बताए लड़के की ज़िंदगी से बाहर जाना चुन लेती है। बल्ली की क्रूर हत्या की घटना के बाद वह लड़का मददगार वकील की तरह आ जाता है,  दलित लड़की की यह भूमिका मराठी फिल्म ‘सैराट’ से चर्चा में आई रिन्कू राजगुरु ने निभाई है। उसका एक संवाद दिल चीरते हुए निकलता है : ‘तुम नहीं समझ सकते, दलित होना क्या होता है। मैं क्यों न बोलूं, मैं दलित हूं, जब ये समाज हमें रोज़ याद दिलाता है कि मैं दलित हूं।’ संयोग है कि नैशनल अवॉर्ड विजेता निर्देशक नागराज मंजुले की सुपर डुपर हिट मराठी फिल्म ‘सैराट’ भी दलित मसले पर एक कमाल कलात्मक हस्तक्षेप था।

आशा सुर्वे की भूमिका में रिंकू राजगुरु

आशा सुर्वे की दोस्त नेहा की भूमिका निभाने वाली सहाना वासुदेवन आंगिक अभिनय से जादू रचती हैं, उन्हें अब तक जहां भी देखा है, लगा है कि वे बड़ी रेंज की अभिनेत्री हैं, उन्हें शायद पहली बार अपनी क्षमता के अनुरूप किरदार मिला है, और संक्षिप्त भूमिका में पुनीत तिवारी जब-जब दिखते हैं, कम बोलकर ज़्यादा कहते हैं। वहीं, इंद्रनील सेनगुप्ता बंगाली सिनेमा के जाने-माने अभिनेता हैं, एसीपी की भूमिका में उन्हें देखना सुखद है। पर्दे पर उनकी उपस्थिति मात्र ही मुझे रोमांचित कर देने के लिए पर्याप्त है।

 

हालांकि दक्षिण की फिल्‍म ‘असुरन’ हाल में दलित प्रश्‍न पर उल्‍लेखनीय हस्‍तक्षेप है, सार्थक दासगुप्‍ता का नजरिया अलग है। उस नजरिए को संजीदगी से समझने, सहेजने की जरूरत लगती है। पूरी फिल्म कहीं सतही नहीं होती और मनोरंजन का धागा अटूट है। इस दुधारी तलवार पर चलना आसान नहीं होता, और ऐसी फिल्में कम ही दिखती हैं, जिसमें यह नदी-नाव संयोग बन जाए। ‘आर्टिकल 15’ से फ़िल्म इस मामले में अलग है कि वहां उद्धारक, मुख्य मददगार जैसी भूमिका में एक ब्राह्मण किरदार है, पर 200 हल्ला हो में दलित अपनी लड़ाई खुद ही लड़ते हैं, वे खुद पीड़ित भी हैं, अपने उद्धारक भी।

स्त्री शोषण और उस पर यौन क्रूरता पिछले कुछ समय में लगातार विमर्श और कला माध्यमों में विषय बने हैं, पर कम ही होता है कि उसमें भी दलित स्त्रियों की द्वैत त्रासद स्थिति को विषय बनाया जाए, और उसे संजीदगी और संवेदना से निभा भी लिया जाए। यह फ़िल्म वैसा ही उदाहरण है। सदियों की त्रासदियां कुछ सालों की संजीदगी और कोशिशों से तो धुलने से रही, स्त्री और उसमें भी दलित स्त्री के जीवन के अंधेरों में तो अभी कलाएं दाखिल ही हुई हैं, उनके भीतर का सच न जाने कितना भयावह होगा, और उनकी बेहतर स्थितियों के लिए कितना इंतज़ार करना होगा।

आप इसे भी पढ़ना पसंद करेंगे

अपराध कथाओं का उत्‍तरकांड

Dr. Dushyant

सुर की बारादरी के फूल और कांटे

Dr. Dushyant

शहरों के स्‍याह अंधेरों को चीरता जुगनू

Dr. Dushyant

चार नेशनल अवॉर्ड विनर बंगाली फ़िल्म ‘जातीश्वर’ का हिंदी रीमेक ‘है ये वो आतिश गालिब’ | Bangla Movie in Hindi as Hai Ye Vo Aatish Ghalib

Dr. Dushyant

ब्योमकेश बख्‍शी की बहन कौन थी?

Dr. Dushyant

इतिहास के दुख में लिपटा कहानी का सुख

Dr. Dushyant