हाल ही बड़े पर्दे पर आई ‘गंगूबाई काठियावाड़ी‘ दरअसल कहानी नहीं है, स्वाभिमान के इतिहास का कीमती वरक है। एस हुसैन ज़ैदी की किताब के विवरण उसे शब्दों में जीवंत करते हैं, फ़िल्म निर्देशक संजय लीला भंसाली उसे दृश्य–श्रव्य में रचते हैं तो अलग संसार का बनाते हैं। फ़िल्म में गंगूबाई का कोठा न तो भंसाली द्वारा पूर्वरचित देवदास और चुन्नीलाल का कोठा है, न श्याम बेनेगल की ‘मंडी‘ का। यह अलग है…
‘गंगूबाई काठियावाड़ी’ को सिनेमा की तरह मत देखिए। एक वंचित के संघर्ष की तरह देखिए, भारतीय समाज के आख्यान की तरह देखिए, भारतीय सिनेमा की लोक रुचि की तरह देखिए। एस हुसैन ज़ैदी शायद इस समय, इस दृष्टि से, देश के सर्वाधिक सफल , पत्रकारों में से एक हैं, कि (अपराध) पत्रकारिता के तजर्बे को पहले किताब और फिर उस पर बनते सिनेमा को लगातार सम्भव बनाया है। यह फ़िल्म भी उनके शोध और किताब पर आधारित है। निर्देशक संजय लीला भंसाली खामोशी से ही मेरे प्रिय निर्देशकों में से एक बन गए थे, उनकी शैली अलग है, उनका सिनेमाई संसार अलग है। उनके अलग होने का वैभव किसी के लिए ईर्ष्या का विषय है तो किसी के लिए प्रेरणा का भी। पर यह अवश्य है कि वे अपने समय के सिनेमा को प्रभावित, विचलित करने वाले फिल्मकार हैं।
यह नेहरुयुगीन भारत की दास्तान है। उस कमाठीपुरा की, जो होने को तो आज भी है, ऊंघता हुआ। जीवन की वो रौनक जो कभी हुआ करती थी, जिससे कुछ किताबों के सफ़हे झिलमिलाते हैं, अब उजड़ी-उजड़ी सी लगती है। किताबों और स्मृतियों की गलियों से उसे कभी-कभार उचककर छलकते हुए बाहर आते फ़िल्म या सीरीज के पर्दे पर देखा है हमने! वह एक समय था, यह भी एक समय है, समय की रेखा पर इंसान वैसे ही चलता है, जैसे दो खड़े डंडों के ऊपरी सिरों से बंधी रस्सी पर चलकर करतब दिखाती भूखी लड़की।
कभी मंटों कमाठीपुरा की उन बदनाम गलियों में कहानियों की तलाश में भटका करते थे। इसलिए गंगूबाई को देखना मंटो को याद करना है। मंटो के नैरेटिव्ज इन गलियों और अंधेरे कोनों को लेकर बेहद यादगार हैं, अगर आपने मंटो को पढ़ा है तो मंटो को भूलकर गंगूबाई देख ही नहीं सकते! अगर नहीं पढ़ा है, गंगूबाई देखने के बाद पढ़िए, मंटो आपको समृद्ध करेंगे।
दिल्ली के जीबी रोड या कोलकाता के सोनागाछी से कमाठीपुरा अपने मिजाज़ और तेवर में अलग है, एस हुसैन ज़ैदी की किताब के विवरण उसे शब्दों में जीवंत करते हैं, भंसाली उसे दृश्य-श्रव्य में रचते हैं तो अलग संसार का बनाते हैं। फ़िल्म में गंगूबाई का कोठा न तो भंसाली द्वारा पूर्वरचित देवदास और चुन्नीलाल का कोठा है, न श्याम बेनेगल की मंडी का। यह अलग है, उससे आप रिलेट कर भी सकते हैं, नहीं भी कर सकते हैं।
आलिया भट्ट इस फ़िल्म से अभिनेत्री के रूप में एक नई लीग में प्रवेश करती हैं। यह निःसंदेह नई आलिया है। इस फ़िल्म में उनकी हर उपस्थिति में एक विशिष्ट बोध है। क्रमशः उभरती हुई शक्ति है, एक प्रतिकार, एक प्रतिरोध है। पहली नज़र में एक प्रतिष्ठित परिवार की लड़की के नाटकीय घटनाक्रम से कोठे पर पहुंचने और बाहर-भीतर के संघर्ष के बाद कोठे की प्रमुख और अपने समाज की जिम्मेदार मुखिया होने की कहानी है, पर अस्मिता इस कहानी का बुनियादी सूत्र है, वही आलिया के किरदार और अभिनय की ऊंचाई है। उस ऊंचाई को आलिया ने साहस, श्रम और जुनून से फतह किया है।
दुनिया का प्राचीनतम पेशा कहे जाने वाले जिस्मफरोशी के कर्म की त्रासदियों का शोकगीत नहीं बनती फ़िल्म, बल्कि उनकी अस्मिता का स्वर और आलाप बनती है। यह आलाप कातर-करुण नहीं है, इसमें शिद्दत और ज़िद है, प्रार्थना नहीं है , हक़ के लिए तनी हुई मुट्ठी है। आलिया अपनी भूमिका से आपकी आत्मा का परिष्कार करती हैं।
मुझे इस संदर्भ में पाप, पुण्य, प्रेम और जीवन के प्रश्नों की व्याख्या के लिए भगवती चरण वर्मा का क्लासिक हिंदी उपन्यास ‘ चित्रलेखा’ याद आ रहा है। मनुष्य-जीवन के वस्तुनिष्ठ सच की परीक्षा लेखक मौर्यकाल में राजा, सन्यासी और गणिका के जीवनों से करता है। जीवन में परिस्थितियों की अहमियत को जिस तरह यह उपन्यास स्थापित करता है, अद्भुत है। राग, विराग, तृप्ति के भावों का जीवन की स्थितियों, परिस्थितियों को आकार देने में योगदान उपन्यास की घटनाओं में सजीव होता है। गंगूबाई देखते हुए मुझे यह उपन्यास बरबस कौंधता रहा। उपन्यास 1934 में छपा, उपन्यास का कथानक प्राचीन भारत का है, गंगूबाई का काल नेहरू युग है, हम फ़िल्म मोदी युग मे देख रहे हैं, यह टाइम ट्रेवलिंग मूल प्रश्नों से टकराने में हमें बाधा नहीं डालता। अपितु वस्तुनिष्ठताओं को समझने में मदद करता है। गंगूबाई और चित्रलेखा किसी सतह पर मुझे आमने-सामने नहीं, साथ-साथ खड़ी दिखाई देती हैं। चित्रलेखा के किरदार और गंगूबाई के किरदार में साम्यताएं हैं, उनकी संवेदना की भावभूमि समान है।
फ़िल्म का सबसे भावुक दृश्य मुझे वह प्रतीत होता है जब आलिया यानी गंगूबाई कोठे की सहकर्मियों के साथ बैठी है, एक सहकर्मिणी अपने पिता को पत्र लिखने की इच्छुक है, यह दृश्य एक यादगार मैटाफ़र है, जैसे सब अपने पिताओं को संबोधित कर रही हैं। अभिनेत्रियों एकताश्री और इंदिरा तिवारी से होते हुए उस मैटाफोरिकल पत्र की पंक्तियां जिस भावोद्रेग के साथ आलिया भट्ट के कंठ से फूटती हैं, भावुकता का ऑर्गेज्मिक क्षण है। सामाजिकता, मानवीयता, वात्सल्य और त्रासद करुणा की वह सिम्फनी बनती है कि आह! घनीभूत पीड़ा के पंचम स्वर को इन लड़कियों ने कैसे मूर्त किया है इस दृश्य में! उसके लिए क्या ही कहा जाए क्योंकि लिखने-रचने से ज़्यादा अहम है उसे हिस्सा होकर दृश्य में साकार कर देना कि देखने वालों की आत्मा चीत्कार उठे!
दूसरा महत्वपूर्ण दृश्य है जब गंगूबाई अपने प्रेमी यानी शांतनु माहेश्वरी के साथ कार की बैक सीट पर है, मौन है, देह और आत्मा की लय है, इनकार है, इकरार है, देहकर्मी स्त्री की प्रेम में देह को प्रेमी के समक्ष आत्मा की प्रतिकृति या सब्सिट्यूट बना देने की शिद्दत है। इस दृश्य में आलिया द्वारा प्रेमी की छुअन का जो आंगिक अभिनय है, जो रसायन है, जो मनुहार-कामना-हिचक-समर्पण का ग्राफ है, उसे वही समझ सकता है जो प्रेम को केवल देह से न समझता हो! देहात्म की वह रासायनिक क्रिया गूंगे का गुड़ है, जिसे गंगूबाई हम सबको चखाती है।
इस लोक में, अलौकिक-लौकिक रूप से अर्जित कुछ न कुछ बेचकर हम अपनी आजीविकाएं कमाते हैं, पर देह को इस लौकिक उपस्थिति के बावजूद आजीविका के साधन के रूप में अपनाने वाली स्त्रियों को डिजरविंग रेस्पेक्ट तो दूर की बात है, मनुष्य होने के बुनियादी आदर से भी वंचित कर देते हैं, हालांकि सोचने वाली बात तो यह है कि सदियों से सामान्य स्त्रियों को भी भला हमने कब प्रॉपर बेसिक इक्वल रेस्पेक्ट दिया है? तो यह डबल ट्रेजिक है!