अमेज़न प्राइम पर हाल ही आई फ़िल्म ‘लुनाना : ए याक इन द क्लासरूम‘ धीमी गति का जीवनराग है। यह फ़िल्म इस साल ऑस्कर पुरस्कार में अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म की श्रेणी में चुनी गई अंतिम 5 में से एक थी। भूटान की यह फ़िल्म अंतिम 5 में भारतीय उपमहाद्वीप से अकेली फ़िल्म भी थी। यह भूटान की भी पहली फ़िल्म है जो श्रेष्ठ 5 की सूची में शामिल हुई है।
इस फ़िल्म का खास भारतीय रिश्ता भी है कि निर्देशक पाओ चौरिंग दोरजी का जन्म भारत में दार्जिलिंग में हुआ, शुरुआत की पढ़ाई भी, फिर वे अपने देश भूटान लौट गए। यह उनकी पहली फीचर फिल्म है, किसी निर्देशक की पहली फ़िल्म का इस प्रतिष्ठित पुरस्कार की अंतिम 5 की सूची में जगह बना लेना ही बड़ी बात है, चाहे अंत में पुरस्कृत न भी हुई हो।
सामान्यतः इस बात का किसी के कलाकर्म से सीधा सम्बन्ध नहीं होता, पर इस फ़िल्म के दर्शन को समझने के लिए ज़रूरी है कि आपको बताया जाए कि निर्देशक बौद्ध धर्म के अनुयायी हैं, इतना ही नहीं, उनकी अभिनेत्री पत्नी फानयुन स्टेफनी लाई भी जो ताइवान के प्रसिद्ध नाटककार लाई शेंग चुआन उर्फ स्टैन लाई की बेटी हैं, स्टैन लाई भी तिब्बती बौद्ध धर्म को मानती हैं। लाई ने अपने प्रसिद्ध नाटक ‘सीक्रेट लव इन पीच ब्लॉसम लैंड’ पर इसी नाम से फ़िल्म बनाई थी, वह फ़िल्म 1993 में ताइवान से ऑस्कर के लिए आधिकारिक प्रविष्टि थी। खासकर भारतीय उपमहाद्वीप, और थोड़ा और विस्तार दें तो वृहत्तर भारत की सांस्कृतिक एकसूत्रता को समझना ही नहीं, सेलिब्रेट किया जाना चाहिए। भूटान भी उसी एकसूत्रता का अपरिहार्य भागीदार है। पश्चिम के समक्ष पूर्वी दुनिया की यह साझेदारी इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि पूर्व के संदेश हज़ारों सालों से अलग हैं, मानवता के लिए सकारात्मक हैं।
यूँ ‘लुनाना’ भूटान से ऑस्कर अवार्ड के लिए भेजी गई दूसरी फिल्म है, पहली फ़िल्म 1999 की ‘द कप’ ( तिब्बती भाषा में) थी, संयोग यह है कि ‘द कप’ का निर्देशन खिंतसे नोरबू ने किया था, नोरबू पाओ दोरजी के आध्यात्मिक गुरु भी हैं, फ़िल्म मेकिंग के भी मेंटोर हैं। अपने इस गुरु को फ़िल्म में ट्रिब्यूट देने का विलक्षण तरीका पाओ ने यह निकाला है कि जो याक क्लास में आता है, उसे नोरबू नाम दिया है।
भूटान की एक बोली के शब्द लुनाना का अर्थ है : अंधेरी घाटी ( डार्क वैली), फ़िल्म बताती है कि आधुनिकता की रोशनी से दूर, हमारी दुनिया से कटे हुए अनटच्ड लोग दरसअल कितना उज्ज्वल और सुंदर, खुशियों भरा जीवन जी रहे हैं।
‘लुनाना : ए याक इन द क्लासरूम ‘ सरकारी स्कूल के एक युवा अध्यापक उग्येन दोरजी की कहानी है, जो इंटर्नशिप पर है और अपनी नौकरी से नाखुश है, थिम्पू में अपनी दादी के साथ रहता है, माता-पिता दोनों गुजर चुके हैं, अन्य समकालीन युवाओं की तरह ऑस्ट्रेलिया जाकर बेहतर जीवन और गायक के रूप में करियर बनाना चाहता है। पर दरअसल कहानी यह नहीं है। कहानी यह है कि उसका तबादला भूटान के सबसे रिमोट गांव लुनाना में हो गया है, केवल 56 लोगों की आबादी। आखिरी बस स्टॉप से ऊपर 6 दिन की पैदल चढ़ाई से इस गांव तक पहुंचना सम्भव है। यहां उसका नई जीवनस्थितियों से परिचय होता है, अध्यापन के पेशे से नया रागात्मक तादात्म्य स्थापित होता है, पहली बार महसूस करता है कि यह पेशा कुछ लोगों की नज़र में कितना आदरणीय है। उसका एक विद्यार्थी जब पहले दिन के परिचय सत्र में यह पूछने पर कि वह भविष्य में क्या बनना चाहता है, जवाब में कहता है कि अध्यापक। उग्येन पूछता है कि क्यों, तो जवाब मिलता है – क्योंकि अध्यापक के पास भविष्य की चाबी होती है। सुनकर कहता है कि जब मैं पढ़ रहा था, मुझे किसी ने यह क्यों नहीं बताया !
यह बात केवल उपदेशात्मक भर नहीं है कि शिक्षा में शिक्षक और शिक्षार्थी के बीच के संबंध को वस्तु और उपभोक्ता में सीमित करते हुए हमने कितना कुछ खोया है, यह भारतीय उपमहाद्वीप का निजी नुकसान है, और कौन इनकार करेगा कि यह पश्चिम की शिक्षा के असर में हुआ है।
फ़िल्म बिना स्वर ऊंचा किए बहुत कुछ कहती है, बात में वजन हो और कहने का सलीका हो, तो धीमे स्वर में कही बात ज़्यादा गहरे उतरती है। फ़िल्म ठहराव लिए हुए है, निर्देशक किसी जल्दबाजी में नहीं है, फटाफट बात कहके आगे नहीं बढ़ना चाहता। जल्दबाजी की ज़िद, चिल्ला कर बात कहने के फैशन ने संजीदगी का जो हाल हमारे समाज मे किया है, उसके साइड इफेक्ट इफ़रात में हैं, और हम उनको न देखने की ज़िद भी पाले हुए हैं। निदा फ़ाज़ली का एक दोहा इस फ़िल्म को देखते हुए याद आता रहा :
छोटा करके देखिए, जीवन का विस्तार।
बाहों भर आकाश है, आंखों भर संसार।
मुख्य भूमिका में शेरब दोरजी हैं, अभिनेता के रूप में उनकी भी पहली फ़िल्म है। वे अपनी भूमिका से पूरा न्याय करते हैं। हमारी ‘सभ्यता’ से दूर के गांव की उसकी एकल यात्रा उसके आध्यात्मिक प्रबोधन का मार्ग प्रशस्त करती है, बिलकुल पूर्व अपरिचित लोगों के आनंदलोक में उसका धीमे-धीमे रूपांतरण करती है, ठीक उसी देह में पुनर्जन्म। सुंदर, संतुष्टिपरक जीवन बहुत भौतिक संसाधनों को अर्जित कर लेने से नहीं मिल जाता, लुनाना के निवासियों का जीवन इसकी मिसाल है, और निःशब्द सन्देश भी। यह भी देखने समझने लायक है कि जड़ों से कटकर पेड़ कितना ऊंचा जा सकता है, यह सोचने वाले कम लोग बचे हैं। यह फ़िल्म जड़ों से रिश्ते की अहमियत भी बताती है और मासूमियत को चुपके से बड़ा जीवन मूल्य सिद्ध कर देती है। यहां सूफी गायक सतिंदर सरताज के एक पंजाबी गीत को याद करना ज़रूरी लग रहा है : ‘सब तों महंगी हुन्दी है मासूमियत, सोहणे एन्झ लोक बथेरे हुंदे ने’ यानी सुंदर लोग तो बहुत मिल जाते हैं, सबसे महंगी होती है मासूमियत।
फ़िल्म के तकनीकी पहलुओं में गौर करने लायक है कि फ़िल्म का साउंड डिजाइन दू चिह तू ने किया है, वे मेरे प्रिय समकालीन निर्देशक वॉन्ग कार वाई जैसे फिल्मकारों के साथ काम करते रहे हैं। एकांत के मौन को एक पात्र की तरह सोचना और सम्भव बना देना उनकी और निर्देशक की साउंड योजना और समझ से ही सम्भव हुआ है।
पाओ दोरजी ने एक इंटरव्यू में बताया है कि कहानी कहने के लिए भूटान में कहते हैं – गाँठ खोलना। सच है, ऐसी कहानियां जीवन की अनसुलझी, उलझी गांठे खोलती हैं। पहली फुर्सत में देख लीजिए, मेरा यह सब कहना, लिखना सार्थक महसूस करेंगे, मुझे शुक्रिया ही कहेंगे!