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गीतकार जब फिल्‍म बनाए तो उसे ‘बुलबुल’ कहते हैं

नेटफ्लिक्‍स पर आई फिल्‍म ‘बुलबुल’ को इस तरह भी देखना चाहिए कि गीतकार द्वारा निर्देशित पहली फिल्‍म है। उस गीतकार को हम ‘लंदन ठुमक दा’ और ‘किनारे’ जैसे क्‍वीन के गानों से जानते हैं, धर्मा और यशराज की कई हिट फिल्‍मों के गीत और संवाद लिखने के बाद अड़तालीस साल की उम्र में अन्विता दत्‍त ने निर्देशक के रूप में अवतार लिया है। फिल्‍म की निर्माता के रूप में अनुष्‍का शर्मा को शुक्रिया कहना बनता है कि उन्‍होंने अन्विता में इस नई जिम्‍मेदारी के लिए भरोसा जताया है, और इस भरोसे पर वह खरी उतरी हैं। वैसे भी हिंदी सिनेमा के इतिहास में गीतकार और संगीतकार के रूप में कम ही स्त्रियां दिखाई देती हैं, गीत लेखन में दो-एक दशक पहले रानी मलिक होती थीं, अब अन्विता के साथ कौसर मुनीर जैसे दो-तीन नाम हैं। वहीं अन्विता दत्‍त जैसी अच्‍छे गीत लिखनेवाली का गीतकार से निर्देशन में उतर जाना, मुझे थोड़ा सा डराता है कि कहीं उन्‍हें गीत लेखन से दूर न कर दे।

गीत लेखन और फिल्‍म निर्देशन की यह अन्विति नई नहीं है, गुलजार शायद हिंदी सिनेमा में इस परंपरा के सबसे उज्‍ज्‍वल नाम हैं।

अस्‍सी के दशक से गीतकार का करिअर शुरू करने वाले अमित खन्‍ना ने कुछ साल पहले एक फिल्‍म बनाई थी। स्‍वानंद किरकिरे ‘हजारों ख्‍वाहिशें ऐसी’ के एसोशिएट डायरेक्‍टर रहे थे, सुनता रहा हूं कि जल्‍दी अपनी पहली फिल्‍म के साथ आने वाले हैं। हमारे समय के पहली पंक्ति के हिंदी फिल्‍म गीतकार इरशाद कामिल के बारे में भी खबर आई थी कि बडे़ प्रॉडक्‍शन हाउस ने उन्‍हें डायरेक्‍टोरिअल डेब्‍यू का अवसर देना स्‍वीकार किया है, आमीन। गुजरे जमाने में शैलेंद्र ने फिल्‍म निर्देशित तो नहीं की, बनाई जरूर- ‘तीसरी कसम’, और फरहान अख्‍तर के दादा यानी जावेद अख्‍तर के पिता जांनिसार अख्‍तर ने भी कुछ फिल्‍मों का निर्माण किया, ऐसा पता चलता है। गीतकार मजरूह सुल्‍तानपुरी ने तो शायद निर्देशक नहीं बनना चाहा पर उनके बेटे अंदलीब ने आमिर के साथ अपनी पहली फिल्‍म बनाई थी, फिर उनकी कोई फिल्‍म शायद नहीं आई। कहीं कुछ निर्देशक भी हमारे यहां कभी-कभी गीत लिखते हैं, ऐसी भी परंपरा है। जैसे जॉली एलएलबी पार्ट वन में सुभाष कपूर ने लिखे, (दारू पी के नचणा) या अविनाश दास ने ‘अनारकली ऑफ आरा’ में।

अब जरा बुलबुल की बात कर लें, उन्‍नीसवीं सदी के अंतिम दशकों के अविभाजित बंगाल की कथा ‘बुलबुल’ का ट्रिगर हालांकि मुझे टैगोर के निजी जीवन से लगा। जिस पर बांग्‍ला में ‘कादम्‍बरी’ नाम से अच्‍छी फिल्‍म बनी है, कोंकणा सेन शर्मा ने टाइटल भूमिका निभाई है। बालिका वधु का समवय देवर से मित्रवत् और आत्‍मीय हो जाना, पर इस ट्रिगर को अन्विता दत्‍त अपनी समझ से आगे ले जाती हैं, उसे कहानी में उत्‍तरोत्‍तर सामाजिक विद्रूप का रूपक गढ़ने में इस्‍तेमाल करती हैं। कथा का जॉनर हॉरर चुना है, यह उनका व्‍यक्ति‍गत चयन है, इससे इतर होता तो भी फिल्‍म का रिलेवेंस जिस बिंदु से बनता, वह यथावत है; यह जरूर संभव था कि मेरे जैसे कम हॉररप्रेमी फिल्‍म को थोड़ा ज्‍यादा पसंद करते। फिल्‍म झीनी सी रेखा के रूप में स्‍त्रीत्‍व का मानचित्र भी खींचती है, और यही मेरी पसंद का बिंदु है। बिना लाउड हुए कैसे स्‍त्री जीवन के स्‍याह पहलुओं पर प्रकाश डाल देती हैं, अन्विता दत्‍त। मुझे लगता है कि यह उनके लिए एक अच्‍छे गीतकार के रूप में आसान था, क्‍योंकि गीत यानी कविता इशारे का आर्ट है। कम शब्‍दों में ज्‍यादा कह जाना, अनकहे में कहे का जादू ले आना। शब्‍दों के मध्‍य का सन्‍नाटा कितना अर्थपूर्ण होता है, वह समझ विजुअल्‍स में उनको कितनी काम आई होगी, और उसे उन्‍होंने एक ताकतवर हथियार के रूप में इस्‍तेमाल किया है।

बुलबुल में एक और बात रेखांकित किए जाने लायक है, मेरी समझ में हर रचनात्‍मक व्‍यक्ति अपने आर्टपीस में नैतिक प्रश्‍नों को खड़़ा जरूर करता है या उनसे रूबरू होता है पर समय और देशबद्ध निकषों पर तौलकर जजमेंट नहीं देता, और बेशक यही पहलू किसी भी आर्टपीस को समय और देश की सीमा से आगे ले जाकर प्रासंगिक और मूल्‍यवान बनाते हैं कि उनकी अनुगूंज ठहरे हुए समाजी कानों को दूर तक और देर तक सुनाई पड़े। अन्विता इसे भी निभा ले गई हैं। हैरान करने वाली बात है कि खुद फिल्‍म बनाते हुए अन्विता अपने गीतकार को छुपा ले गई हैं, यह आत्‍मनियंत्रण भी गजब का ही साधा है उन्‍होंने! यह मेरा व्‍यक्तिगत लालच है कि उनके लिखे दोचार गाने फिल्‍म में होते तो फिल्‍म और मधुर हो जाती।

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