गरम लहू से लिखा शोकगीत  

सरदार उधमनिर्देशक शुजित सरकार की नई फिल्म है जो अमेज़ॉन प्राइम पर आई है, इस फ़िल्म की पहली खासियत यह है कि देशभक्ति के गुबार की हालिया फिल्मों में मेरी निगाह में यह पहली फ़िल्म है जो इतिहास में बेहद कम चर्चित एचएसआरए के भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में योगदान को बड़े कैनवस पर मुखर होकर लाती है।

जलियांवाला बाग हत्याकांड को पर्दे पर उतारते हुए लगभग 27 मिनट का दृश्य फ़िल्म के क्राफ्ट में अद्भुत प्रयोग है, फ़िल्म के कथानक की इंटेंसिटी को चरम पर ले जाता है। यह दृश्य डॉक्यूमेंट्री का आभास देता है – सजीव, सच, क्रूरतम सच।

इस दुखान्तिका ने भारतीय इतिहास की धारा को कई तरह से प्रभावित किया था, भारत के वे उदारवादी नागरिक जो अंग्रेजों के खिलाफ पुरजोर नहीं खड़े हो रहे थे, उन्हें भी इस घटना ने भीतर तक उद्वेलित किया था।  रवींद्रनाथ ठाकुर ने अंग्रेजों द्वारा दी गई नाइटहुड की उपाधि लौटा दी थी।  इस घटना की जांच के लिए अंग्रेजों द्वारा बिठाए गए हंटर आयोग ने भी 337 मौतें मान लीं थीं, जिनमें 41 लड़के थे और एक 6 हफ्ते का शिशु भी शामिल थे। कॉंग्रेस की जांच कमेटी ने मृतकों की संख्या 1000 बताई तो गाँधीजी जी को स्वामी श्रद्धानंद ने 1500 की संख्या रिपोर्ट की थी।

सरदार उधम सिंह

यानी, पंजाब के गर्वनर माइकल ओ डायर को मारने यूँ ही तो सरदार उधम सिंह लन्दन नहीं चले गए थे। जलियांवाला बाग की इस घटना में एक डायर वह भी था जो ब्रिगेडियर था, और जिसने घटना स्थल पर गोली चलाने का आदेश दिया था, उसका पूरा नाम था रेजीनल्ड डायर। इस घटना के बाद उसे अमृतसर का कसाई कहा जाने लगा। कई बीमारियों और आघातों से 1927 में उसकी मृत्यु हो गई, कहते हैं, मृत्यु पूर्व बिस्तर पर बयान दिया – ‘कुछ लोग कहते हैं मैंने अमृतसर में ठीक किया, कुछ ने कहा कि मैंने गलत किया, मैं मरकर अपने ईश्वर के पास जाना चाहता हूं कि वही तय करे कि मैंने ठीक किया या गलत।’ सलमान रुश्दी के उपन्यास ‘मिडनाइट चिल्ड्रेन’ में इस किरदार को समझने की अलग दृष्टि मिलती है।

निर्देशक शुजित सरकार

‘सरदार उधम’ निर्देशक शुजित सरकार की नई फिल्म है जो अमेज़ॉन प्राइम पर आई है, इस फ़िल्म की पहली खासियत यह है कि देशभक्ति के गुबार की फिल्मों में मेरी निगाह में यह पहली फ़िल्म है जो इतिहास में बेहद कम चर्चित एचएसआरए के भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में योगदान को बड़े कैनवस पर मुखर होकर लाती है, यानी आजादी के आंदोलन में लेफ्ट की भूमिका, देशभक्ति के घटाटोप का यह सकारात्मक दुर्लभ साइड इफेक्ट है।

अविक मुखोपाध्याय मेरी निगाह में इस समय भारत के श्रेष्ठतम सिनेमाटोग्राफर्स में से एक हैं, तो फ़िल्म का वह पक्ष तो कमाल है ही, सुखद है कि इस फ़िल्म के एक दृश्य में अविक बैरिस्टर, विचारक अबीर मुखर्जी के किरदार के रूप में दिखाई देते हैं। पाइप सुलगाते हुए उफ़्फ़!! इसी दृश्य में कोप्पिकर के रूप में फ़िल्म के लेखकों में से एक रितेश शाह को देखना भी भला लगता है। लेखकों की बात चली है तो आईएमडीबी पर लेखकीय श्रेय शुभेंदु भट्टाचार्य और रितेश  शाह को दिए गए हैं, फ़िल्म के क्रेडिट्स में शुभेंदु को स्टोरी का स्वतंत्र श्रेय है। पटकथा में रितेश के साथ साझा। डायलॉग का स्वतंत्र श्रेय रितेश शाह का है। ऐतिहासिक घटनाओं पर बनी ऐसी फिल्म का महत्वपूर्ण क्रेडिट शोध या अनुसंधान का होता है। जो यहां 3 लोगों को है : ओशुन बनर्जी, तुषार शीतल सिंघल और भार्गव ओझा।

विलक्षण संगीतकार शांतनु मोइत्रा ने लगभग बिना गीत वाली इस फ़िल्म में विश्वस्तरीय बैकग्राउंड संगीत दिया है। ठहराव, गति और हृदय चीर देने वाले भावों के अनुरूप जो संगीत रचा है, उसकी थाप लम्बे समय तक रहेगी। वे अपने हर नए काम में नए तरीके से सुखद रूप से चौंकाते हैं।

विचित्र संयोग है कि फिल्‍म बंगालीपन से ओतप्रोत है, इसकी मेकिंग में बंगाली मूल के कलाकार ज्‍यादा दिखाई दे रहे हैं। शायद इसकी वजह यह रही हो कि भारत की आजादी का क्रांतिकारी आंदोलन पंजाब के अलावा महाराष्‍ट्र के साथ सबसे प्रबल बंगाल में ही था। वह अस्मिता एक सकारात्‍मक रूप लेकर फिल्‍म में अवतरित होती है।

प्रसंगवश फ़िल्म समकालीन वैश्विक राजनीति के संकेत भी खूबसूरती से पेश करती है। कई देशी-विदेशी जगह तो फिल्‍माई ही गई है। लिहाजा, फ़िल्म का कथानक यकीनन बहुभाषी होना मांगता था, तो फ़िल्म की भाषा में अंग्रेजी की बहुलता और रूसी का होना वाजिब है, फिर पंजाबी से परहेज़ क्यों किया गया, यह समझ नहीं आया। पर यह बेहद छोटी-सी शिकायत फ़िल्म की गुणवत्ता को मेरी नज़र में कम नहीं करती।

विकी कौशल ने अपने अब तक के करियर का श्रेष्ठ प्रदर्शन किया है, इससे आगे जाना अब खुद उनके लिए चुनौती बन जाने वाला है। फ़िल्म में किशोर से 41 की आयु के अधेड़ तक वे सहज लगते हैं। वे मूलत पंजाबी परिवार से हैं और उधम सिंह के व्‍यक्तित्‍व का पंजाबीपन, ठसक और सरलता को बड़ी स्‍वाभाविकता से उन्होंने जिंदा कर दिया है।

सरदार उधम सिंह पंजाब में सुनाम के रहने वाले थे, संदर्भ बन गया है तो बताते चलें कि राजीव गांधी की पेरुम्‍बुदूर में आत्‍मघाती बम हमले में मौत से पहले 2 अक्‍टूबर 1986 को दिल्‍ली के राजघाट पर उन पर तीन गोली दागकर एक कातिलाना हमला किया गया था, जिसमें राजीव गांधी बाल-बाल बचे थे, इंदिरा गांधी की हत्‍या के बाद हुए दिल्‍ली के सिक्‍ख दंगों से आहत एक 25 साल के युवक ने यह दुस्‍साहस किया था, वह भी सुनाम का ही था – करमजीत सिंह। दंगों के वक्‍त वह अपने एक दोस्‍त के साथ दिल्‍ली में इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा था, दंगाइयों ने उसके दोस्‍त को जिंदा जला दिया गया था।

बहररहाल, फ़िल्म धीमी गति से शुरू होती है, फ़िल्म का मिजाज़ यही है, इसे शायद ऐसे ही होना चाहिए था, कभी-कभी ठहरे हुए पानी में उतरना चाहिए, जैसे सारे इंसान एक जैसे नहीं होते, हर इंसान का मुख्तलिफ किरदार होता है, हर इंसान की अपने आप में एक अलग अहमियत होती है, उसी तरह सारी फिल्में केवल मनोरंजन के निकष पर नहीं होतीं। फिल्‍म एक निर्देशक के रूप में शुजित दा के कद को और ऊंचा करती है।

फिल्‍म नॉनलिनियर है, क्राफ्ट में यह प्रयोग शायद इसलिए भी किया गया होगा कि उधम सिंह पर पहले भी फिल्‍में बनी हैं, सपाट और सीधी फिल्‍मों के बाद नए तरीके से कहानी कहकर ही नई फिल्‍म को ज्‍यादा सार्थक बनाया जा सकता है। हमारी आजादी के बहुत से नायकों की ऐसी कहानियां पर्दे पर आनी चाहिए, उनसे हम भारत और भारतीयता को भी बेहतर तरीके से सीख समझ पाएंगे। यह फिल्‍म हर हिंदुस्‍तानी को जरूर देखनी चाहिए।

पसंद आया तो कीजिए लाइक और शेयर!

आप इसे भी पढ़ना पसंद करेंगे

इस्‍मत की सबसे ‘बदनाम’ कहानी का पुनर्पाठ

Dr. Dushyant

Hope aur Hum (होप और हम) मूवी रिव्यू

Naveen Jain

चार नेशनल अवॉर्ड विनर बंगाली फ़िल्म ‘जातीश्वर’ का हिंदी रीमेक ‘है ये वो आतिश गालिब’ | Bangla Movie in Hindi as Hai Ye Vo Aatish Ghalib

Dr. Dushyant

नोबेल साहित्‍य पुरस्‍कार में भारतीय दावेदारी

Dr. Dushyant

राजाओं की तरह जीने वाली रानी की कहानी

Dr. Dushyant

शहरों के स्‍याह अंधेरों को चीरता जुगनू

Dr. Dushyant