हाल के सालों में कुछ उच्च कोटि के नीच बाबाओं के जो भ्रष्टाचार और व्यभिचार के कांड खुले हैं, उन सबको एक कथासूत्र में बांधकर, फिक्शनल कस्बे काशीपुर के बाबा निराला उर्फ मोंटी को रचा है प्रकाश झा ने। पहली नजर में गुरमीत राम रहीम सिंह से ज्यादा प्रेरित लगता है, ट्रिगर के लायक तो वह है ही, पर धीरे-धीरे कथा जब आगे बढ़ती है तो हमारे समय के सारे कुख्यात बाबाओं के जीवन का कोलाज बन जाता है ‘आश्रम’…
फ्रांज काफ्का ने कहा था – ‘हर महान किस्मत के पीछे अपराध होता है’। धर्म, अध्यात्म और आस्था ये तीनों कुल मिलाकर किसी पारलौकिक सत्ता के प्रकाश में इहलौकिक जीवन को बेहतर बनाने की कोशिशे हैं। ओटीटी प्लेटफॉर्म एमएक्स प्लेयर के लिए प्रकाश झा निर्देशित वेबसिरीज ‘आश्रम‘ देखे कई दिन हो गए। लिखने का मन बनाने में वक्त लगा, शायद इसलिए कि यह आस्था का विषय है। धर्म और दर्शन का अंतर बहुत कम लोग जानते हैं, धर्म और अध्यात्म का अंतर भी विरलों को पता होता है। कल्चर में इनकी वाजिब अहमियत और जगह को ठीक से पहचानने वाले लोग हजारों में कोई एक-दो ही मिलते हैं। हमारे देश में यह अज्ञानता इतनी पसरी है कि इसका साइड इफेक्ट भयावह रूप ले लेता है।
9 एपिसोड वाली इस सिरीज की कहानी का क्रेडिट हबीब फैजल को दिया गया है, और तेजपाल रावत जैसे इंडस्ट्री के बेहतरीन स्क्रिप्ट राइटर्स की पूरी टीम है। हिट किस्म के मजेदार डायलॉग पूर्व पत्रकार संजय मासूम ने लिखे हैं।
यहां एक पर्सनल ट्रिगर को आपसे शेयर करना चाहता हूं कि गुरमीत राम रहीम सिंह को करीब से देखा है, उसकी आस्था का कारोबार खड़े होते और फलते-फूलते देखा है, गुरमीत का जन्म उत्तरी राजस्थान में मेरे गृह जिले श्रीगंगानगर में ही एक गांव श्रीगुरूसर मोडिया में हुआ, और श्रीगंगानगर पाकिस्तान, पंजाब और हरियाणा की सीमा पर स्थित है। किसान परिवार के घर जन्मा था, माता-पिता सिरसा के डेरा सच्चा सौदा के संत सतनाम सिंह के अनुयायी थे। केवल सात साल के गुरमीत को सतनाम सिंह ने दीक्षा दी थी। अपने गांव में गुरमीत ने अपने गुरू सतनाम सिंह के नाम पर लड़के और लड़कियों के लिए अलग-अलग स्कूल और एक गर्ल्स कॉलेज बनाए हैं। हरियाणा के सीमावर्ती जिला मुख्यालय सिरसा में उसका आश्रम यानी डेरा रहा है। समझ नहीं पा रहा हूं कि इसे संयोग या दुर्योग कहा जाए, उसी जिले में मेरी ननिहाल है। वेबसिरीज ‘आश्रम’ के वे रेफरेंस जो गुरमीत के जीवन से प्रेरित हैं, उन्हें बचपन से अपने आसपास, ज्यादा ठोस, क्रूरतम और अमानवीय रूपों में घटित होते देखा है। ‘पूरा सच’ नामक अखबार के संपादक रामचंद्र छत्रपति की हत्या का आरोप गुरमीत पर सिद्ध हुआ है और यहां विडंबना देखिए कि बाबा गुरमीत का डेरा ‘सच कहूं’ नाम से अपना अखबार निकालता रहा है।
‘बरसात’ से ‘बाबा’ तक की यात्रा में बॉबी देओल के कई पड़ाव दिलचस्प रहे हैं, पर उनको इस तरह के किरदार में देखना व्यक्तिगत रूप से मेरे लिए सुखद है, जब वे परंपरागत बॉलीवुडिश रोमांटिक या एक्शन हीरो के किरदार से बाहर निकलकर चैलेंजिंग भूमिका में उतरे हैं, तो मुझे यकीन है कि एक अभिनेता के रूप में यह उनके करिअर का नया प्रस्थानबिंदु माना ही जाएगा। वे टेलरमेड बॉलीवुडिश स्टीरियो टाइप से बाहर निकले हैं, और क्या खूब निकले हैं! उनकी यह दूसरी पारी मुझे लगता है, पहली से कहीं ज्यादा लंबी और सार्थक होगी।
‘आश्रम’ वेबसिरीज एक कुबाबा की धार्मिक दुकानदारी, कम पढ़े-लिखे लोगों द्वारा घोर अंधभक्ति और उससे निपजी अमानवीय त्रासदियों का एपिकल विस्तार है। अधर्ममूलक धर्म, सत्ता की मदांध राजनीति और अपराध का लीथल कॉकटेल।
‘आश्रम’ में बॉबी देओल के बाद जिस किरदार पर हमारी नजर ठहरती है, उसे खूबसूरती से कंसीव किया गया है, बहुत कायदे से निभाया गया है, वह है भोपास्वामी का, चंदन रॉय सान्याल ने निभाया है, इधर कुछ समय से फिल्मों और सिरीजों की कई भूमिकाओं में सान्याल ने खुद को साबित किया है, अपने होने का अहसास करवाया है। भोपास्वामी दरअसल बाबा उर्फ मोंटी का पुराना दोस्त है जो बाबा के धवल आवरण में लिपटे कलुषित एम्पायर को यथार्थ की जमीन पर खड़ा करता है, उसमें ओशो रजनीश की सचिव मां आनंद शीला की झलक मिलती है, शीला को जानने के लिए नेटफ्लिक्स पर डॉक्यूमेंट्री ‘वाइल्ड वाइल्ड कंट्री’ (2018) में देखिए। वेबसिरीज आश्रम के भी कई कथासूत्रों के जिंदा रेफरेंस आपको वहां मिलेंगे।
वहीं, ‘आश्रम’ में त्रिधा चौधरी जिस किरदार को निभा रही हैं, पहले सीजन में धीरे-धीरे खुलता है और वे अपने आंगिक अभिनय से यादगार बन जाती हैं। बंदिश बैंडिट्स में भी राधे की मंगेतर के रूप में छोटी सी भूमिका होने के बावजूद उनका होना महसूस होता है।
‘आश्रम’ ने हमें सोचने का अवसर दिया है कि हम जिस देश में रहते हैं, उसकी धार्मिक लिगेसी क्या है, और हम कहां आ पहुंचे हैं। हड़प्पा सभ्यता से लेकर वेदों और उसके बाद पुराणों के लिखे जाने के युगों में हमारी जिस दार्शनिक, आध्यात्मिक परंपरा की नींव पड़ी, उसे हमने लगभग भुला दिया है, कुछ पश्चिम के मूल्यों की अंधी नकल में हमारे पुरखों द्वारा अर्जित बौद्धिक उपलब्धियों के लिए हम इतने लापरवाह हो गए हैं कि इसके आगे भी अंधेरा है, और पीछे का उजाला देखना हमने छोड़ दिया है। ऋग्वैदिक धर्म ग्रेटीट्यूड का धर्म था। कर्मकांडविहीन, कुदरत को दिल से शुक्राना अदा करने का धर्म। बारिश का देवता, आग, जल, वायु के देवता यानी कुदरत की देन वाले देवता, ऋग्वैदिक समय के देवताओं की सूची में कहानियों के हीरो प्रकार के देवता नहीं मिलते। बाद में रची गई कहानियां और उनमें से निकले देवता तथा उनसे इच्छापूर्ति के लिए कर्मकांड के आडम्बर भारतीय धर्म और दर्शन की परंपरा के साइड इफेक्ट्स हैं। उन्हें चुनौती देते हुए जब दसवीं सदी में केरल के कालड़ी में शंकराचार्य आते हैं, खास तौर पर दो बातें कहते हैं – ब्रह्म सत्यं जगत मिथ्या जीवोब्रमैहव नापरह, अर्थात् ब्रह्म सत्य है, जगत मिथ्या है तथा जीव ही ब्रह्म है, अन्य कोई नहीं है। और कालड़ी के शंकर ने जो दूसरी बात कही, वह दरअसल याद दिलाना था, ‘अहम ब्रह्मास्मि’ जो उपनिषदों के चार महावाक्यों में से एक है, इसका व्यवहारिक अर्थ था कि किसी बिचौलिए की जरूरत नहीं है, हर जीव में ब्रह्म है। तो आदि शंकराचार्य के आने से हमारे धर्म के ठेकेदार और उनकी दुकानें हिल जाती हैं, और उनसे निर्भय होकर शंकर भारतीय धर्म या सनातन धर्म की पुन: प्राणप्रतिष्ठा करते हैं। 13वीं – 14वीं शताब्दी में जब यूरोप का पुनर्जागरण पारलौकिक सत्ता को खारिज करते हुए इस जगत को और व्यक्ति को अकेला सच बताता है, उससे तीन सौ – चार सौ साल पहले भारत में आदि शंकराचार्य, पारलौकिक सत्ता यानी ब्रह्म के समक्ष इस जगत को खारिज ( मिथ्या) करते हुए व्यक्ति को पारलौकिक सत्ता के यथारूप बताते हैं। यह विलक्षण इहलोकपरकता है, जिसके गहरे अर्थ हैं, जिसे पश्चिम के मानदंडों पर न समझा जा सकता है, न ही व्याख्या की जा सकती है।
‘आश्रम’ को जरूर देखा जाना चाहिए, और उसके बाद फिर हम भारतीयों को अपने भीतर देखना चाहिए।