उड़ने की कला : चैताली थानवी की लिखी

बाहर तेज़ बारिश हो रही थी। ऋतु खिड़की के पास कुर्सी लगाए गुलमोहर के पेड़ को देख रही थी, जो उसके खिड़की के बहुत करीब था। ऋतु के एक हाथ में डाइरी थी और दूसरे हाथ में पेन। वो खिड़की के बाहर देखती और डायरी में  लिखती-

“मेरे खिड़की के पास एक गुलमोहर का पेड़ है। उसपर एक घोंसला बना हुआ है। कुछ दिन पहले ही अंडों में से छोटे-छोटे चिड़िया के बच्चे निकले थे। सारे बच्चे उड़ गए पर अब एक ही बचा है जो उड़ नहीं रहा। काफी दिनों से वो वहीं है। घोसले के बाहर नहीं जा रहा। चिड़िया अपने बच्चे के साथ ही दिखती थी। शायद वो अभी तैयार नहीं है बाहर जाने के लिए। जब तैयार ना हों तो नहीं निकलना चाहिए। आप बाहर की दुनिया के लिए तैयार नहीं तो फिर क्यूँ अपने आपको ज़बरदस्ती उस तरफ धकेलें। क्यूँ मैंने अपने आपको धकेला? यह खुले आसमान में उड़ने को बहुत ज़्यादा romanticize कर दिया मैंने? ऐसे ही थोड़ी निकल जाते हैं उड़ने? उड़ना आज़ादी नहीं, उड़ना एक कला है, जिसे सीखे बिना आप अगर संभल नहीं पाओगे तो गिर जाओगे। मेरा जयपुर आने का ही फैसला गलत था। शायद मैं तैयार नहीं थी। शायद मुझे और इंतज़ार करना चाहिए था।”

लिखते हुए उसकी आँखें भर आयीं थीं। सोच में डूबी वो चिड़िया के उस घोंसले को एक टक निहारे जा रही थी। तभी उसके मोबाइल की रिंग बजी और उसका ध्यान टूटा। उसने देखा माँ का कॉल था। वो उस वक़्त बहुत उदास महसूस कर रही थी। वो ऐसे मूड में माँ से बात नहीं करना चाहती थी। उन्हें अपनी प्रोब्लम्स बताकर परेशान नहीं करना चाहती थी।

अभी कुछ पाँच-छह महीने हुए थे उसे जयपुर आए। छोटे शहर बूंदी से निकलकर जयपुर में एक बड़ी publication कंपनी में काम करना। वहाँ एडजस्ट करना। सब मुश्किल तो था लेकिन जब यह आपका सपना होता है, तो उस तरफ बढ़ता हर एक कदम मुश्किल नहीं लगता बल्कि आपको बिलकुल एलिस इन वंडरलैंड वाली फील देता है। हम जब अपने घोंसले से बाहर निकलते हैं तो बड़े मासूम होते हैं। बाहर की दुनिया की छवि भी हमारी आँखों में बड़ी मासूम होती है।

शुरू-शुरू में ऋतु को अपना काम खुद करना, ज़िम्मेदारी लेना अच्छा लग रहा था। उसके कॉन्फ़िडेंस को बूस्ट मिल रहा था। वो अपने आप पर ज़्यादा ध्यान देने लगी थी। अब जबकि वर्क फ्रम होम था तो उसने भी अपने दोस्तों की तरह फ्री टाइम में कोई ना कोई ऑनलाइन कोर्स जॉइन कर लिया था।  यहाँ पर हर कोई  सिर्फ ऑफिस से घर तक नहीं सीमित था। सुबह को अलग कोर्स और शाम को अलग। वो बहुत खुश रहती थी। बिज़ि रहती थी। पूरा दिन उसके मोबाइल पर notifications आते रहते थे। घर का काम, खाना, ऑफिस और क्लासेस सब मैनेज कर रही थी।

उसको ऑफिस से बहुत इंपोर्टेंट प्रोजेक्ट मिला था। उसे विश्वास था, इसके बाद उसका प्रमोशन ज़रूर होगा। लेकिन उसकी एक लापरवाही से उसका यह सपना टूट गया था। उसका दिमाग बार-बार यही बात सोच रहा था। उसका मोबाइल फिर बजा, इस बार कॉल उसकी कलीग अंजली का था। अंजली कलीग होने के साथ उसकी दोस्त भी थी। उसे लगा अंजली से बात करके शायद वो कम उदास महसूस करे। वो हमेशा motivational बातें ही करती है तो शायद वो उसे ठीक कर पाये। उसने कॉल उठाया और, दूसरी तरफ से आवाज़ आई –

हैलो! ऋतु कहाँ है तू? इतने दिन से न कोई कॉल न कुछ।

ऋतु बोली-

तुझे पता है ना, ऑफिस में क्या हुआ? मैं बहुत लापरवाह हूँ।

अंजली ने पूछा-

पर यह बहुत बड़ा प्रोजेक्ट था ऋतु और तूने मुझे दिखाया भी था तेरा काम। बस थोड़ी प्रूफ रीडिंग ही करनी थी, बाकी तो तैयार था तेरा। फिर क्यूँ किया तूने ये?

ऋतु ने जवाब दिया –

मैंने जानबूझकर थोड़ी किया। देख deadline दी गयी 23 की। मैंने अपना पूरा शेड्यूल उस हिसाब से बनाया हुआ था। मैंने सारा काम टाइम पर पूरा किया था। बस 1 रीडिंग करके थोड़ी फिनिशिंग बाकी थी जो मैंने सोचा मैं कभी भी कर सकती हूँ। फिर deadline चेंज हो गयी। 23 से 21 हो गयी। उसका नोटिफ़िकेशन मुझसे मिस हो गया। पर फिर भी यह बहुत बड़ी opportunity थी और अब मैं बस इसी के बारे में सोच रही हूँ, मुझे इतना नहीं सोचना चाहिए ना?

वहाँ से अंजलि का जवाब आया –

देख बात सिर्फ नोटिफ़िकेशन की नहीं है, हमारी विडियो कॉन्फ्रेंसिंग भी हुई थी। वो भी तूने attend नहीं की, ना ही उसका फॉलो अप लिया। यह बहुत बड़ी opportunity थी जो तूने मिस कर दी।  चल कर दी तो कर दी। इसे हम जाने भी दें फिर भी कंपनी तो नहीं जाने देगी न। तेरी अब यह इमेज बन गयी कि तू है थोड़ी लापरवाह। अब कंपनी तुझे कोई बड़ा प्रोजेक्ट दे, यह मुश्किल है।

अंजली की यह बात सुनकर ऋतु को बहुत बड़ा झटका लगा। उसकी यह इमेज बन गयी है! मतलब अब सब ऑफिस में उसके बारे में अब यही सोचेंगे? कॉन्फ्रेंस attend ना करने की इन्फॉर्मेशन तो उसने पहले ही दी थी। उस दिन उसके ऑनलाइन orientation कोर्स का प्रेजेंटेशन था। उसे क्या पता था उसमें deadline चेंज होने की इन्फॉर्मेशन आएगी। वो वैसे ही परेशान थी अंजली से बात करके और परेशान हो गयी। उसने सोचा था कि वो उससे बात करके अच्छा महसूस करेगी। लेकिन हो उसका उल्टा गया। बाहर बादल गहरा गए थे और ऋतु का मन अंदर और अंदर धंसता जा रहा था।

बूंदी जैसे छोटे शहर से निकलना मुश्किल था। परिवार के लगभग सब लोगों ने यही कहा कि लड़की को अकेले कैसे भेजें बड़े शहर? यह अपना ध्यान कैसे रखेगी? यह अभी बच्ची है। लेकिन ऋतु के पैरेंट्स ने डिसिशन ऋतु के ही हाथ में दिया और कहा वो जो भी डिसाइड करेगी वो उसके साथ खड़े रहेंगे। उन्होंने परिवार की बातों के विरुद्ध जाकर ऋतु पर विश्वास किया। यह विश्वास कि वो सब सही करेगी, वो सब खुद संभाल लेगी।

पर वो कहाँ कुछ संभाल पा रही थी। अब वो ऑफिस की कोई कॉन्फ्रेंस मीटिंग attend करती तो चुप ही रहती। यह सोचकर कि सब लोग वैसे ही उसे लापरवाह मानते है। उसे इंपोर्टेंट नहीं समझते। उसे अब वाकई कोई प्रोजेक्ट मिलना बंद हो गया था और deadline मिस करने के बाद की पहली मीटिंग में सबके सामने बॉस ने उससे कहा था कि he got disappointed with her.

ऑफिस में तो सच में उसकी इम्पॉर्टेन्स खतम होती जा रही थी। वो जीतने भी अपने कलिग्स को अपनी सिचुएशन बताती वो उसे sympathy देते और बात जल्दी बंद कर देते। उसे लगने लगा जैसे सब उसे दया की ही नज़रों से देख रहे थे, कि बेचारी नहीं कर पाती काम। वो बेचारी नहीं बनना चाहती थी। लेकिन वो बेचारी बन गयी थी। उससे कोई कोई बात नहीं करता शायद इसलिए भी क्यूंकी वो सबको बस उसी गलती के पछतावे के बारे में ही बात करती रहती। सबके सामने अपनी हालत बताकर वो और बेचारी बनती और लोग उसे और इग्नोर करते। पर अब वो इस बारे में कुछ कर भी नहीं पा रही थी क्यूंकी उसने भी मन ही मन यह मान लिया था कि वो बेचारी है। वो सच में किसी काम की ज़िम्मेदारी नहीं ले सकती। उसका बोझिल होता मन काम में भी नहीं लगता।  उसका अब ऑनलाइन क्लासेस में भी मन नहीं लग रहा था। वो पूरा-पूरा दिन बस सोयी रहती थी।

फिर उसे पता चला कि जो प्रोजेक्ट वो सबमिट नहीं कर पायी थी वो अब अंजली को दे दिया गया था और उसकी प्रेजेंटेशन बिलकुल वैसी थी जैसी उसने बनाई थी और अंजलि को दिखाई भी थी। मतलब उसका आइडिया अंजली ने ले लिया था। अब वो अपने आपको बेचारी ही नहीं बेवकूफ भी समझने लगी थी। उसने अपनी डायरी निकली और लिखने बैठ गयी-

मैं बहुत बड़ी बेवकूफ हूँ। लोगों की परख भी नहीं मुझे। कितने वक़्त से हम दोस्त थे। मैं समझ भी नहीं पायी कि किसके साथ मुझे अपनी प्रॉब्लम्स शेयर करनी चाहिए और किसके साथ नहीं। यह दुनिया बहुत मतलबी है। यह लाइन बहुत फिल्मी पर सच है। अंजलि तो ठीक है, पर मैं अपने आप का क्या करूँ? मैं जैसे अपने ही मकड़जाल में फँसती जा रही हूँ। बूंदी में सब कितना अच्छा था। वहाँ के तो नुक्कड़ के दुकान वाले भी हम पर भरोसा करके बिना पैसे के सामान दे देते थे, कि ये कल पक्का हिसाब दे देंगे और हम भी भरोसा नहीं तोड़ते थे, हिसाब पूरा देते थे। उस दुकान वाले से हमारा रिश्ता थोड़ी था, बस भरोसा था। यहाँ तो कोई दो मिनट पेन भी उधार न दे। इतना भी भरोसा ना करे और मैं दोस्तों पर कितना भरोसा कर बैठी थी। सोच-समझकर दोस्त बनाने चाहिए। मैं इतनी बेवकूफ हूँ कि मैं किसी लायक ही नहीं हूँ। अब नौकरी बदलने भी हो तो रिस्क कैसे लूँ? इतनी जल्दी नहीं मिलेगी कहीं नौकरी। पर यहाँ जैसे दम घुटता है। मुझसे ज़्यादा समझदार तो वो चिड़िया का बच्चा है जो अब भी घोंसले में ही हैं कम से कम सुरक्षित तो है।   

यह लिखकर उसने ज़ोर से डायरी बंद की और बेड पर जाकर लेट गयी। वो कितनी देर से लेटी हुई थी पर उसे नींद ही नहीं आ रही थी। वो घर से दूर तो थी, अब मन से भी अकेली महसूस कर रही थी। सुबह के ग्यारह बज गए थे और वो अब भी पलंग पर निढाल पड़ी हुई थी। तभी उसे एक कॉल आया। उसके ऑनलाइन orientation classes से, वो कह रहे थे कि उसकी performance बहुत अच्छी थी और वो उसे उनके अगले बैच को लैक्चर देने के लिए इनवाईट करना चाहते थे। पर ऋतु अपनी नज़रों में अब भी बेचारी और बेवकूफ ही थी। उसे वो लोग भी बेवकूफ लग रहे थे जो उसे लैक्चर देने के लिए बुला रहे थे। वो क्या लैक्चर देगी? कैसे लापरवाह होना चाहिए? कैसे बेवकूफ़ों की तरह अपना बेचारापन सबको बताना चाहिए ताकि हर कोई आपको incompetent समझे। नहीं! उसने बिज़ी होने का बहाना करके मना कर दिया।

वो उठकर खिड़की के पास आ गयी। बाहर उसने देखा कि आज चिड़िया के घोंसले में बहुत हलचल हो रही थी। चिड़िया उड़-उड़कर अपने बच्चे को उड़ना सिखा रही थी। वो उसे आगे की तरफ धक्का दे रही थी ताकि वो उड़े। बच्चा पीछे हो रहा था पर चिड़िया उसे बार-बार आगे की ओर खींच रही थी। उसे चिड़िया के बच्चे के लिए बुरा लग रहा था। वो नहीं उड़ पा रहा था। मन को शांत करने के लिए उसने चाय पीने की सोची।

जब वो किचन में गयी तो उसे पता चला कि चाय की पत्ती खतम हो गयी है। उसे यह भी ध्यान नहीं रहा, यह सोचकर उसे बहुत गुस्सा आया और उसने अपना हाथ ज़ोर से किचन स्लैब पर दे मारा। उसके हाथ में बहुत दर्द होने लगा। वो आह! करते हुए किचन से बाहर आई, मास्क पहना, पर्स लिया और मार्केट के लिए निकल गयी। नीचे घर के बरामदे में कुछ बच्चे क्रिकेट खेल रहे थे। एक बच्चा रन लेते हुए गिर गया। फिर उठकर वो दौड़ने लगा।

यह देख ऋतु उनपर चिल्लाने लगी-

क्या है ये? Passage में क्रिकेट कौन खेलता है? Allowed है? कम्प्लेंट करूंगी तो बाहर भी नहीं निकल पाओगे। जब देखो उधम मचाते हो। देखो! गिर भी रहे हो। समझ नहीं रहे? मत खेलो।

बच्चे ने जवाब दिया –

क्या दीदी? बस गिरने के डर से खेलना बंद कर दूँ। ये तो होता रहता है। इतना गुस्सा करने की क्या ज़रूरत है? फालतू में राई का पहाड़ बना रही हो, दीदी।

ऋतु यह सुनकर वहाँ से भुनभुनाते हुए चली गयी-

आजकल के बच्चे बहुत होशियार हो गए हैं। कैसे पलट कर जवाब देते हैं?

पर वो मन ही मन सोचने लगी कि उस बच्चे ने गलत क्या कहा? वो तो रोज़ ही गिरता होगा, लगती रहती है खेलते वक़्त तो उसने ओवर रिएक्ट क्यूं किया? शायद अब वो ज़्यादा ही चिड़चिड़ी हो रही है, उसने सोचा। पर क्या वो अपनी सिचुएशन पर भी ओवर रिएक्ट तो नहीं कर रही।

उसे अचानक हाथ में तेज दर्द महसूस हुआ और उसे याद आया कि कैसे उसने कुछ देर पहले गुस्से में आकर अपना हाथ किचन स्लैब पर दे मेरा था। गलत किया था उसने। घर वापस आकर उसने सामान की थैली रखी और अपने हाथ को पकड़ कर बैठ गई। उसे बहुत दर्द हो रहा था। उसने ये क्या कर दिया था? अपनेआप को चोट पहुंचाने की क्या ज़रूरत थी? वो लापरवाह और बेवकूफ के साथ अब फ्रस्ट्रेटेड भी हो गई थी।

ड्रेसिंग टेबल के ड्रॉअर में वो पैन रिलीफ़ की ट्यूब ढूंढने लगी। ट्यूब उठाकर जब उसने ड्रेसिंग टेबल के आइने में अपनेआप को देखा तो वो हैरान रह गई। क्या कर दिया था उसने अपने आपको? इतना उदास, इतना बेजान चेहरा हो गया था उसका।

क्या सिर्फ एक नोटीफिकेशन मिस करने की अपने आप को इतनी बड़ी सज़ा देनी चाहिए?

पर वो सिर्फ नोटीफिकेशन नहीं उसके प्रोमोशन का बहुत बड़ा चांस था।

पर आखिर था तो नोटीफिकेशन ही।

लेकिन उस गलती से उसकी इमेज ही खराब हो गई।

तो अब क्या करे? उसपर बैठकर रोए, ये तो सॉल्यूशन नहीं है।

उसका दिमाग खुद ही सवाल कर रहा था और खुद ही जवाब दे रहा था। उसका सिर घूम रहा था। उसने आंखें बंद कीं, अपने दिमाग को शांत किया और अपने लिए एक कप चाय बनाई।

वो चाय के साथ डायरी लेकर फिर खिड़की के पास बैठ गई। वो लिखने लगी –

“मैं राई का पहाड़ बना रही हूं। ठीक है! हो गई गलती। सब करते हैं। कोई परफेक्ट नहीं। एक्चुअली कोई हो या ना हो, मैं नहीं हूं और मैं जैसी भी हूं, सही हूं। मैं अच्छी चाय बना लेती हूं। मैं एमए में यूनिवर्सिटी में सेकंड आयी हूं। मैं घर की पहली लड़की हूं जो घर से बाहर निकली, जिसने जॉब किया। ये मेरे achievements हैं। उन्हें मुझसे कोई नहीं छीन सकता। मेरा गिरता आत्मविश्वास भी नहीं। हां ! यह एक और बात । मैंने जो पहले लिखा था वो ग़लत लिखा था, मैं नहीं गिरी, मेरा आत्मविश्वास गिरा। जिसे मैं अब और नहीं गिरने दूंगी। अपनी प्रोब्लम्स का सॉल्यूशन ढूंढने दूसरों के पास नहीं जाऊंगी। मैं खुद उन्हें सॉल्व कर सकती हूं। मुझे बस अपने आपको वक़्त देना है। आराम से, ठंडे दिमाग से उस सिचुएशन के बारे में सोचूं कि यह क्यूं हुआ और मैं इसे कैसे ठीक कर सकती हूं? बस मुझे थोड़ा अलर्ट रहना है और कुछ नहीं। मिल गया सॉल्यूशन। सीख मिलने के बाद सिर्फ सीख याद रखते हैं, गलती नहीं। फ़ालतू में सौ लोगों को बताया इस बारे में। अब वो लोग भी मुझे बेचारी समझ रहे होंगे। कोई बात नहीं, मैंने एक प्रॉब्लम फिक्स कर दी तो मैं यह भी कर लूंगी। दुनिया की सोच बदलती रहती है, कल को मेरे बारे में भी उनकी सोच बदल जाएगी। मुझे बस खुश रहना है और मन से काम करना है। मैं जब इतना सब कुछ कर सकती हूं तो क्या इस सिली सी सिचुएशन को हैंडल नहीं कर सकती? मैं कर सकती हूं। मैं इस लायक हूं!”

यह लिखते हुए उसकी आंखें नम हो गईं पर इस बार सिर्फ नमी नहीं हल्की सी चमक भी थी उसकी आंखों में। खिड़की के बाहर उसने देखा चिड़िया अब भी बच्चों को उड़ने के लिए आगे धकेल रही थी। वो हारी नहीं थी। उसने अपना मोबाइल उठाया और कॉल लगाकर बोली –

“आपने कॉल करके इन्वाइट दिया था ना लेक्चर देने को, I am accepting that.”

यह कहकर उसने फोन रखा और उसके चहरे पर हल्की सी मुस्कुराहट आ गई। उसने सोचा, कल सुबह यह लेक्चर है और दिन को ऑफिस का वीडियो कॉल तो कल कुछ अच्छा सा पहनना पड़ेगा। वो खिड़की के पास से उठी और अपना कपबोर्ड खंगालने लगी। कपड़े ढूंढ़ते वक़्त वो हल्के से कोई गीत गुनगुना रही थी। खिड़की से दिख रहे उस घोंसले में बैठा चिड़िया का बच्चा अब पंख फैलाकर उड़ रहा था।

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