किसी गाँव में एक तालाब था – साफ़-सुथरा, सजीला सा। ग्रामीण उसकी पूजा किया करते थे। उसमें नहाकर ख़ुद को धन्य-धन्य समझते थे। बड़ी श्रद्धा से उसके पानी को सर पर लगाते थे। तालाब के पानी से गाँव भर की ज़रूरतें पूरी होतीं थीं। खेतों की सिंचाई होती थी – नहरों को पानी मिलता था।
उस तालाब से हालाँकि केवल सामाजिक हित के ही काम होते थे, ग्रामीण कभी अपने निजी स्वार्थवश उसमें नहीं उतरते थे। आस-पड़ोस के महानतम साहित्यकार, उस तालाब का महात्म्य लिखते न अघाते थे। चारण-भाट भी हमेशा उसकी महिमा गाया करते थे। लेकिन समय सब दिन एक जैसा नहीं होता- समय का पहिया निरंतर घूमता रहता है। कालचक्र के फंदे में एक-एक कर गाँव के बड़े-बुज़ुर्गों की मृत्यु होने लगी। नई पीढ़ी ने विरासत सँभाली। समाज से दया-क्षमा और परोपकार जैसी चीज़ों का लोप होना लगा और उसकी जगह स्वार्थ-दम्भ और द्वेष ने ले ली। गाँव वालों की मति बदलने लगी। तालाब को लेकर उनकी सोच बदलने लगी। और फ़िर बदल गए तालाब के दिन भी। एक दिन अचानक एक रसिक पनडुब्बा तालाब में उतर गया। ग्रामीणों ने यह देखा तो आग-बबूला हो गए। इस कृत्य की उन्होंने कड़ी निंदा की-कड़ा ऐतराज़ जताया। गाँवभर के लोग तालाब किनारे जमा होकर काँव-काँव करने लगे। चारों तरफ़ बढ़ते प्रतिरोध को देखकर भी पनडुब्बा बिल्कुल शांत खड़ा रहा और होंठों पर उँगली रखकर बड़े धीमे स्वर में बोला- “श्शश, मैं आज इस तालाब में खड़े होकर यह शपथ लेता हूँ, कि मैं इसका उपयोग निजी स्वार्थ के लिये कदापि नहीं करूँगा- बल्कि इससे समाज के हर वर्ग की यथायोग्य सेवा करूँगा।”
पनडुब्बे की मधुर वाणी से ग्रामीणों का गुस्सा क्षणभर में पानी हो गया। सब हर्षित होकर कहने लगे-साधो-साधो!
वह पनडुब्बा दिनभर तालाब में हाथ जोड़े खड़ा रहता। हर आने-जाने वाले को वह मुस्कुराकर पानी पिलाता था। बहुत कम समय में ही उसने गाँव के अच्छे-अच्छों को पानी पिला दिया था। लोग उसके सद्कार्य से बड़े प्रभावित रहने लगे। फ़िर रात के अंधेरे में, उसने तालाब का पानी थोड़ा-थोड़ा करके, गाँव से बाहर बेचना शुरू कर दिया। पहले-पहल किसी को संदेह नहीं हुआ- क्योंकि वो अब भी दिन में थके-माँदे यात्रियों को मुस्कुराकर पानी पिलाता था। गाँव वाले उसकी मिसालें दिया करते थे। पर जब धीरे-धीरे तालाब का पानी कम होने लगा- तब लोगों का माथा ठनका। गाँववाले परेशान रहने लगे-ऐसे तो तालाब सूख जाएगा। तब गाँव का एक दूसरा पनडुब्बा आगे आया और थोड़ी भीड़ जुटाकर भाषण देने लगा- भाइयों! जिस तरह से तालाब का पानी दिनोंदिन घट रहा है, वह अपने आप में बहुत चिंताजनक है। इतिहास गवाह है कि आजतक ऐसा कभी नहीं हुआ। जो पहला पनडुब्बा तालाब में उतरा था न, मुझे पूरा विश्वास है कि ये उसी की कारस्तानी है। अगर आप सबकी सहमति हो, तो मैं तालाब में उतरकर उसकी निगरानी करूँगा। भीड़ में से किसी ने यह बात समूचे गाँवभर में फ़ैला दी। ग्रामीणों ने फ़िर इसपर एक बैठक बुलाई और आम सहमति से, नए पनडुब्बे को तालाब में उतरने की इजाज़त दे दी गई।
अगले ही दिन वह पनडुब्बा तालाब में उतर गया। दिनभर वह पहले वाले पनडुब्बे के ठीक सामने ही खड़ा रहा- पहले वाले को इससे थोड़ी असुविधा भी हुई।
रात होते ही दूसरा पनडुब्बा, पहले वाले के कान में जाकर बोला- सुनो जी! मुझे पता है तुम रात में तालाब का पानी ब्लैक करते हो। अब अगर तुम्हें ये बिजिनेस करना है तो मेरी एक शर्त माननी पड़ेगी, वर्ना मैं तुम्हारी सारी पोल-पट्टी खोल दूँगा।”
पहले पनडुब्बे ने मूक भाषा में अपना सिर हिलाया। पूरनमासी के चाँद के ठीक नीचे, झिलमिल करते तालाब के पानी में उन दोनों के बीच कुछ बातचीत हुई, फ़िर दोनों ही पनडुब्बे काहिल हँसी हँस दिये।
वह रात ढल गई, सुबह हुई और फिर रात आ गई।
पहला पनडुब्बा अपना पानी बेचने निकल गया- दूसरा पनडुब्बा अपने घर चला आया। पहला पनडुब्बा जब वापस लौटा तो उसने देखा- दूसरा वाला तालाब में अपनी गाय-भैंसे नहला रहा है। दोनों की नजरें आपस में टकरायीं और दोनों काफ़ी देर तक मुस्कुराते रहे। कालांतर में तालाब की दशा, बद से बद्तर होने लगी। कुछ पानी की कमी से, और कुछ गाय-भैंसों के नहाने से- तालाब का पानी गँदला होने लगा था।
गाँववाले यह भाँप चुके थे कि नया पनडुब्बा भी कमज़र्फ निकल गया है। तालाब की दुर्दशा के मद्देनजर एक आपात बैठक बुलाई गई, जिसमें यह निश्चित हुआ कि तालाब को उसके हाल पर तो नहीं छोड़ा जा सकता- सो अब हमें कोई दूसरा उपाय निकालना चाहिए। अभी इसी बात पर चर्चा हो रही थी कि तभी भीड़ को चीरते हुए, एक नौजवान पनडुब्बा सामने आया और पंचों के सामने नतमस्तक होकर कातर स्वर में बोला- “आप सभी बुद्धिमान हैं, आपने यह जान लिया है कि जो दो पनडुब्बे तालाब में उतरे हैं- वे परले दर्ज़े के घटिया और नीच इंसान हैं। मगर आप लोगों को आदमी की परख नहीं है- आप ही की गलती से उन दोनों ने तालाब को नर्क बना रखा है। अब आप मुझे तालाब में उतरने दीजिये, फ़िर देखिये मैं कैसे इन दोनों की छुट्टी करता हूँ। मैं तालाब को चमका दूंगा-तालाब में फिरसे दूधिया पानी बहेगा। हमारा तालाब; भगवान विष्णु का क्षीरसागर बन जाएगा।” ग्रामीण बेचारे दो दफ़ा गच्चा खा चुके थे, उन्हें पनडुब्बे की बातों पर शुबहा हुआ। लोगों ने कहा- “नहीं भाई, तुमसे पहले जो दो उतरे थे वो भी भलाई के मतलब से ही उतरे थे। और देखो! उन्होंने क्या कर डाला- अब हम तुमपे कैसे आँख मूँदकर भरोसा कर लें। हम कैसे तुम्हारी बात मान लें, आख़िर हो तो तुम भी पनडुब्बे ही- कौन जाने कहीं तुम भी तालाब में उतरने के बाद, अपने असली रंग में आ जाओ?
पनडुब्बा आँखें नम करके याचक स्वर में बोला- “आपने जैसे उन दोनों को मौका दिया है, एक मौका मुझे देकर देखिये। मैं सचमुच तालाब की तस्वीर बदल दूंगा।” इतना कहकर वो पनडुब्बा पंचों के चरणों में लोट गया। सब जन आपस में राय करने लगे- अलावा चारा भी क्या है, एक मौका इसको भी देकर देख लेते हैं।
शाम होने तक पूरे गाजे-बाजे के साथ, नया पनडुब्बा तालाब में प्रवेश कर गया। ग्रामीण कुछ देर तक उसकी जय-जयकार करते रहे, फ़िर अपने-अपने घर को रवाना हो गए। सूरज ढलने तक तीनों में नियमानुसार डील तय हो गई।
अब पहला पनडुब्बा पानी बेचता है, दूसरा अपने मवेशी नहलाता है और तीसरा, तीसरा पनडुब्बा तालाब की कचैटी माटी को औषधि बताकर; शहर में धातु रोगियों को बेचता है।
इस तीन-तरफ़ा मार से तालाब टें बोल चुका है। अब वह तालाब, तालाब नहीं बल्कि एक दलदल है। इस दलदल को साफ़ करने की क़सम लेकर कई धुरन्धर, गाहे-बगाहे इसमें उतरते रहते हैं। मगर जितने भी उतरते हैं वो सब इसमें गहरे उतरते चले जाते हैं, कोई वापस बाहर लौटने नहीं पाता।
आखिरकार, गांववालों ने भी अब यही मान लिया है कि तालाब एक दलदल है और पनडुब्बे, अव्वल दर्जे के नीच और मौकापरस्त होते हैं।
अब भी रह-रहकर कोई पनडुब्बा इसी दावे के साथ- “कि मैं इस दलदल को साफ़ करके ही दम लूंगा,” दलदल में उतरता है- लेकिन ईश्वर साक्षी है कि यह दलदल आजतक साफ़ नहीं हुई। गांववालों को भी अब कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं पड़ता, वे इसे ही तालाब की नियति मान चुके हैं।
समाप्त