देह गगन में समंदर हज़ार

हाल ही नेटफ्लिक्स पर रिलीज हुई स्पेनिश फ़िल्म डांस ऑफ द फोर्टी वन‘  एक ऐतिहासिक घटना का फिक्शनल अकाउंट है जो 1901 में घटी, मेक्सिको के मीडिया में, सार्वजनिक जीवन में पहली बार समलैंगिक संबंध ख़बर बने थे। यह स्‍कैंडल की तरह प्रसिद्ध हुआ।

1901 की ख़बर

मेक्सिको में यह घटना घटे सौ साल से ज़्यादा हो गए हैं।

क्‍या थी यह घटना? 1901 की बात है, एक घर में रेड पड़ी, जहां 42 पुरुष थे, उनमें से 19 जनाना लिबास में थे, दरअसल यह समलैंगिक गैट टूगेदर था, इसमें बयालीसवाँ युवक वह था,  जिसकी शादी वहां के राष्ट्रपति पोर्फिरिओ डियाज की बेटी से हुई थी, उस रेड के 42 पुरुषों में से एक नाम हटा दिया गया, यानी ख़बर और सज़ा 41 को ही होनी थी। मेक्सिको के मीडिया में, सार्वजनिक जीवन में पहली बार समलैंगिक संबंध इस तरह ख़बर बने थे। बड़ी घटना थी कि मेक्सिको में पहली बार पुरुष समलैंगिकता पर खुलकर बात हुई थी। यही ऑफिशियली रिकॉर्डेड 41 पुरुषों की पार्टी और 42वें पुरुष इग्नेशियो दा ला तोर का जीवन इस फ़िल्म का कथानक है।

 

मोनिका रेविला ने पटकथा लिखी है और डेविड पाब्लॉस इस फ़िल्म के निर्देशक हैं। मुख्य भूमिका में अलफोंसो हेरेरा रोड्रिग्ज हैं।

समलैंगिकता और लैंगिकता दोनों को ही संजीदगी से पर्दे पर उतारना बहुत महीन बुनाई का काम है। इसे तुरपाई का काम भी कहा जा सकता है क्योंकि दिखने लगे तो अश्लील हो जाता है। राहुल रामचंदानी की एक शॉर्ट फिल्म भी पिछले दिनों आयी है – ‘भ्रांति‘। इसमें बलात्कार जैसे गम्भीर विषय के लेयर्ड सत्यों को वे बेहद गंभीरता से निभाते हैं। इसमें मुख्य भूमिका में स्नेहा उलाल हैं, जो बहुत दिनों बाद नज़र आई हैं, उनके ऑनस्क्रीन होने की अहमियत होती ही है, उनकी प्रतिभा का निर्देशकों ने कम ही दोहन किया है।

मुझे यह कहते हुए कोई संकोच नहीं है कि समलैंगिकता और लैंगिकता को बारीकी से देखने और संजीदगी से पर्दे पर लाने के लिए ऋतुपर्णो घोष जैसी सेंसिबलिटी की ज़रूरत होती है। यह सेंसिबलिटी अर्जित करने में श्रम ही नहीं, संस्‍कार और मानसिक परिष्‍कार की भी जरूरत होती है। यह सेंसिबलिटी कभी-कभी ही गिफ्टेड होती है।

मनुष्‍य देह केवल भूगोल नहीं है, मनुष्‍य देह एक अंतहीन रहस्‍य भी है, देह की अपनी संस्‍कृति और सामाजिकता है। देह मन के साथ जुड़कर एक विलक्षण रसायन बनाती है। मनुष्‍य मन और देह के सारे रहस्‍य अभी मानव सभ्‍यता ने शायद जाने ही नहीं है। जिन रहस्‍यों को हम जान पाए हैं, उन्‍हें ही अंतिम सत्‍य मान लेते हैं और इसी सीमित अनुभवजनित पूर्वाग्रह में हम देह की अबूझी क्रीड़ाओं को अप्राकृतिक कहते-कहते अनैतिक और पाप तक कह देते हैं। यहां सैनी अशेष और स्‍नोवा बार्नो लिखित ‘देह गगन के सात समंदर’ नामक गैरपारंपरिक हिंदी पुस्‍तक की याद आती है। कहने को तो यह उपन्‍यास है, पर मनुष्‍य देह, आत्‍मा और मन की कई गुत्थियों को समझने में यह किताब बहुत मदद करती है। संवाद प्रकाशन से छपी यह किताब हर संवेदनशील मनुष्‍य को पढ़नी चाहिए। जब मुझे यह किताब मिली और पढ़ना शुरू किया तो हिंदी में ऐसी किताब पाकर रोमां‍च और खुशी से भर गया था। और लेखक के रूप में ईर्ष्‍या भी हुई कि ऐसी किताब लिख दी गई है।

हम मुश्किल से ही मान पाते हैं कि हर व्‍यक्ति को देह की अनसुलझी गुत्थियों से जुड़ाव का अपना निजी वृत मिलता है, उसे वृत के पार का एक अनंत आकाश भी है। समलैंगिकता या गैरपरंपरागत यौनिकता के रूपों को हमारा समाज 21वीं सदी में भी सहजता से ग्रहण नहीं करता है। संसार बदल रहा है पर इस लिहाज से संसार के बदलने की गति बेहद धीमी है।

समलैंगिकता के इसी नैतिक-अनैतिक निजी भाव को यह फिल्‍म हमारे सामने रखती है। निर्देशक ने इसे असाधारण संजीदगी और संवेदना से बुना है। कहानी कहने में, संवादों में, भाव पहुंचाने में सतहीपन कहीं नहीं है। अंतरंग दृश्‍यों की अवधि कम होती तो भी बात पहुंच ही जाती। पर कुलमिलाकर उनका काम बहुत सही और तार्किक है। इस निर्देशकीय क्षमता के आसपास तो  समकालीन हिंदी फिल्‍म संसार में मुझे ओनीर ही लगते हैं। हालांकि, हिंदी और भारतीय सिनेमा, भारतीय समाज के नैतिक या सेंसर बोर्ड के दायरों में अभी तक इस विषय को अधिक छू नहीं पाया है। जब भी बात कही गई है, इशारों में ही कही गई है, और मेरी राय है कि इशारों में कहना अकसर बात को पूरी संवेदना से संप्रेषित नहीं कर पाता है।

फिल्‍म का मुख्‍य कथानक बयालीस का यह नृत्‍य, कामुकता का नृत्‍य भर नहीं है, यह कामुक प्रेम का उत्‍सव है, तदनुसार यह जीवन का उत्‍सव है, हम अपने अनुभवों और संस्‍कारजनित आग्रहों के प्रकाश में उससे सहमत या असहमत हो सकते हैं, इसलिए यह निजी चयन का उत्‍सव है, और कथा, वह भी सत्‍यकथा के रूप में ग्रहण करते हुए कथा आस्‍वादन के रूप में लेना चाहिए।

1901 की पार्टी की घटना पर एक चित्रकृति

ऐतिहासिक रूप से प्राचीन यूनान की सभ्‍यता में पुरुष समलैंगिकता के उदाहरण मिलते हैं। प्‍लेटो की रचनाओं में कुछ उल्‍लेख मिलते हैं। अब्राहम धर्म में इसके संकेत मिलते हैं। ईसाई धर्म सोडोमी का वजूद तो स्‍वीकारता रहा है पर इसे कुदरत के खिलाफ भी बताया गया है। जापान और चीन में हजार साल पहले इसके होने के उदाहरण मिलते हैं। भारत में मनु स्‍मृति में गैरपरंपरागत यौन व्‍यवहार वाले वर्ग का उल्‍लेख मिलता है और कामसूत्र में एक खास यौन मुद्रा। यह बानगी भर है, इसके विपुल इतिहास को जानने के असंख्‍य स्रोत गूगल करने पर आपको मिल जाएंगे। उनका सार यही है कि दुनिया के सब इलाकों में, सब कालों में इसकी प्राय: छिटपुट, कहीं- कहीं ज्‍यादा उपस्थिति मिलती है, यह अलग बात है कि इसे कहां, किस नजरिए से देखा जाता था।

बहरहाल, प्रेम स्वभाव और स्वाभाविकता का पुष्प है। इसके आयाम न तो हमेशा शास्त्रों से तय हो सकते हैं, न विज्ञान से। प्रेम नित-नूतन होता है, नए रंगों में खिलता है, यह नवीनता ही इसकी पहली खुशबू है। जब ‘प्रेमगीत’ फ़िल्म में इंदीवर के लिखे शब्दों को जगजीत सिंह गाते हैं – ‘ न उम्र की सीमा हो, न जन्म का हो बंधन, जब प्रेम करे कोई तो देखे केवल मन।’ इसी भाव को प्रकट कर रहे होते हैं। और यह भी हमें मानना चाहिए कि मानव सभ्‍यता को बहुत रूपों, आयामों में प्रेम को अभी सीखना ही है, और सही अर्थों में सर्वथा अनकंडीशनल प्रेम तो हमारी मानव सभ्‍यता सीखने में शायद अभी हजार साल और लेगी। तब भी पता नहीं, सीख पाएगी या नहीं!

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