3 जून को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने विश्व बाइसिकल दिवस के रूप में अप्रैल 2018 में घोषित किया था। वहीं हर साल 5 जून को मनाए जाने वाले विश्व पर्यावरण दिवस की शुरुआत 1972 में की गई थी। साइकिल हल्की, सस्ती, आसान, सहज, सरल, एनवायरनमेंट फ़्रेंडली सवारी मानी जाती रही है। पिछले कुछ सालों में साइकिल चलाना फैशन की तरह लौट रहा है।
इस वर्ष विश्व पर्यावरण दिवस 2021 की थीम ‘पारिस्थितिकी तंत्र की बहाली (Ecosystem Restoration)’ है। जंगलों को नया जीवन देकर, पेड़-पौधे लगाकर, वाटर हार्वेस्टिंग करके और तालाबों के निर्माण करने से हम पारिस्थितिकी तंत्र को फिर से रिस्टोर कर सकते हैं। वहीं बाइक यानी साइकिल को नियमित तौर पर अपने जीवन में शामिल कर के हम कई तरह के फ़ायदे पा सकते हैं। ये हमारे स्वास्थ्य के साथ-साथ हमारे पर्यावरण के लिए भी जरूरी है, ये किसी भी तरह का प्रदूषण नहीं फैलाती।
साइकिल हल्की, सस्ती, आसान, सहज, सरल, एनवायरनमेंट फ़्रेंडली सवारी मानी जाती रही है। पिछले कुछ सालों में साइकिल चलाना फैशन की तरह लौट रहा है। साइकिल के टूर्नामेंट विशेष वर्ग से निकाल कर आम लोगों के बीच पहुँचने लगे हैं। साइकिल 3 हजार से लेकर लाखों तक मिलती हैं पर ये आपके ऊपर है कि आप किस कीमत को अफोर्ड कर सकते हैं, बाकी हर साइकिल लाभ एक सा ही देती है। हाँ, कीमत के हिसाब से उनके रूप-रंग, चलाने में आसानी जरूर होती है। वैसे, महत्वपूर्ण बात ये है कि हथियार महंगा है या सस्ता से ज्यादा जरूरी है कि हथियार चलाना आना चाहिए।
कुछ अपने किस्से
बचपन में साइकिल से जुड़े बहुत मजेदार किस्से हैं। बचपन में पड़ोसी बच्चे साइकिल किराए पर लाते थे और मैं उससे साइकिल चलाना सीखती थी। मैंने 7 साल की उम्र में साइकिल चलाना सीख लिया था! मेरी पहली साइकिल नौवें जन्मदिन पर तोहफे में मिली थी! उस चमचमाती साइकिल को देख कर मैं बहुत खुश थी, मैंने नई ड्रेस पहनी थी, साइकिल कुछ ज्यादा ही ऊँची थी, मुझे याद है कि जब पहली बार उसको चलाने छोटे से कस्बे की उस कॉलोनी में निकली थी तो फिसल कर गिर गई थी और लोहे की कंटीली तारों से मुझे बहुत चोट लगी थी और ड्रेस भी फट गई थी।
मम्मी के बहुत मना करने पर भी मैंने साइकिल से स्कूल जाने की जिद पकड़ ली थी। तीन-चार महीने बाद ही मैंने साइकिल से स्कूल जाना शुरू करा था, तब मैं छठी क्लास में आई थी। स्कूल मेरे घर से करीब 4 से 5 किलोमीटर दूर था तो साइकिल चलाते-चलाते मेरे करतब जारी रहते। एक बार मैंने देखा कि सुबह-सुबह सड़क पर बहुत भीड़ नहीं है तो मैंने आंखें बंद करके साइकिल चलाना शुरू किया, थोड़ी देर बाद मेरी साइकिल किसी से टकरा गई और मुझे आंखें खोलनी पड़ी… सामने खजूर का पेड़ था। मैं सड़क के किनारे झाड़ियों में थी। सड़क के किनारे खजूर के पेड़ लगे हुए थे। मैंने झेंप कर इधर-उधर देखा कि कोई देख तो नहीं रहा और अपनी साइकिल उठाई, वापस सड़क पर आ गई। उसके बाद मैंने हमेशा आंखें खोलकर ही साइकिल, मोटरसाइकिल और कार चलाई है।
हाथ छोड़कर साइकिल चलाने में तो महारत हासिल कर ली थी, कई बार स्कूल से लौटते वक़्त सड़क किनारे कोई पिल्ला पसंद आ जाता तो उसे एक हाथ से पकड़ कर साइकिल चलाते हुए घर लौटती। मम्मी जब कॉलेज से लौटती तो मुझे पिल्ले या उनमें से एक को चुनने का आप्शन दे देतीं… मजबूरन मुझे पिल्ले को वापस छोड़ कर आना पड़ता।
मेरा घर फर्स्ट फ्लोर पर था तो स्कूल से आने के बाद साइकिल को जीने (सीढ़ी) से ऊपर लाना होता था जिसमें हाथ-पैर फूल जाते थे।
स्कूल के रास्ते में एक रेलवे क्रासिंग पड़ता था, जिसको वहां फाटक या पंखा भी कहते थे, जब वो बंद होता तो कई बार उसके नीचे से साइकिल झुकाकर निकालते थे।
एक और किस्सा मुझे याद आता है, मैं एक बार पूरी रफ्तार से साइकिल दौड़ा रही थी, मेरे आगे एक रिक्शा चल रहा था फाटक बंद हुआ और रिक्शे ने अचानक ब्रेक लगाए तो मैं रिक्शे से टकरा गई रिक्शे में सब्जियां लदी हुई थी तो पांच-सात गोभियाँ, अचानक टक्कर लगने से, रिक्शे से नीचे लुढ़क गयीं. सब्जियों के साथ रिक्शे पर बैठी सब्जी वाली आंटी चिल्लाने लगीं, मैंने दो-चार गोभियाँ उठा कर उनकी तरफ उछाल दीं और बोलीं, बाकी आप खुद उठा लो, फिर अपनी साइकिल उठा कर फाटक के नीचे से निकल गई।
एक बार मेरी साइकिल घर के नीचे से चोरी भी हो गयी थी, जीवन में वो किसी प्रिय वस्तु के खो जाने का पहला अनुभव था। साइकिल चोरी की रिपोर्ट भी करवाई गयी थी पर वो नहीं मिली, फिर मुझे नयी साइकिल दिलवाई गयी। बाद में लोगों द्वारा मेरी चोरी हुई साइकिल को देखे जाने की बातें आती रहीं। इस प्रसंग में मुझे फिल्म ‘बाइसाइकिल थीफ’ याद आती है, जिसमें एक पिता-पुत्र अपनी खोई हुई बाइसिकल की तलाश करते हैं, उनको ये तलाश बहुत ही मार्मिक पड़ावों से गुजारती है। एक बार इस फिल्म को जरूर देखना चाहिए।
छठी क्लास से लेकर ग्यारहवीं क्लास तक मैं साइकिल से स्कूल जाती थी, उसके बाद 12वीं क्लास में मम्मी ने बजाज की सनी स्कूटी दिलवाई थी। वहीं से साइकिल छूट गई उसके बाद मोटरसाइकिल और फिर कार। तब से साइकिल चलाने का नंबर सिर्फ जिम में ही आता है. पर लॉकडाउन में जिम बंद हो जाने से साइकिल वापस चर्चा में आ गई, साइकिल चलाने को भी एक अनुशासन चाहिए, क्यूंकि कोई भी आदत फायदा तब पहुँचाती है, जब उसे नियमित रूप से किया जाए।
कुछ आसपास की, इधर-उधर की
पिछली बार लॉकडाउन में एक 13 साल की लड़की ज्योति पासवान चर्चा में आई थी जो साइकिल से अपने घायल पिता को गुरुग्राम से दरभंगा बिहार लेकर आई थी। ज्योति को देशी-विदेशी मीडिया द्वारा साइकिल गर्ल कहा गया। दुर्भाग्य से पिछले दिनों उसके पिता मोहन पासवान का हृदयगति रुक जाने से निधन हो गया।
मित्र और पेशे से आर्टिस्ट जयपुर की अदिति अग्रवाल बिना गियर वाली साइकिल से भी एक दिन में 72km चलाने का रिकार्ड बना चुकी है। इसी तरह सोशल मीडिया पर जुड़े एक मित्र हैं- साइक्लिस्ट ग्रीनमेन नरपत सिंह जो पूरे देश में साइकिल चलाते हुए वृक्षारोपण कार्यक्रम चला रहे हैं।
बाइसिकल से जुड़ी हजारों, लाखों कहानियाँ हमारे आसपास बिखरी होंगी, आपकी जिंदगी में भी किस्से-कहानियां होंगे, कभी गिरे होंगे, चोट लगी होगी, अपने /अपनी टीनेज क्रश के साथ साइकिल का कोई किस्सा होगा, याद कीजिए, रोमांच से भर जाएंगे। याद करेंगे तो यह भी पाएंगे कि न जाने कितने ही गाने साइकिल पर बने या शूट किए गए।
दो सदी पहले आविष्कृत बाइसिकल रूप बदलती आई है और आज भी लोकप्रिय है। इसको अपनाकर फिर से अपना बचपन और टीनेज जिए जा सकते हैं। क्या पता, अकेलों की जिंदगी की साइकिल को दूसरा टायर मिल जाए या आपका पुराना क्रश भी कहीं साइकिल पर सामने से मिल जाए!