कौन था ‘पश्चिम का शंकराचार्य’ ?

आज मेरे एक प्रिय भौतिकशास्त्री का जन्मदिन है, उन्हें मैं ‘पश्चिम का शंकराचार्य’ कहना पसंद करता हूँ। उनका कहना था कि काम यह नहीं है कि तुम वह देखो, जो आज तक किसी ने नहीं देखा। बल्कि काम यह है कि जो सबको दिखता है, उसके बारे में तुम अलग क्या सोचते हो।

 

ऑस्ट्रिया में जन्मे उस आदमी का नाम था : इरविन स्क्रोडिंगर (1887-1961) पहले विश्व युद्ध के समय कुछ समय वे ऑस्ट्रिया सैन्य सेवा में भी रहे थे, इटली के मोर्चे पर लड़कर इसोंजो के युद्ध में वीरता पर प्रशस्ति पत्र भी हासिल किया था।

 

आस्था की दृष्टि से वह नास्तिक थे।

 

उनकी दर्शनशास्त्र में गहन रुचि थी, शोपेनहावर और स्पिनोज़ा उनके प्रिय दार्शनिक थे। मुझे नहीं पता कि वे अपने जीवनकाल में भारत आये थे, या नहीं, पर वे भारतीय दर्शनों में उपनिषद और अद्वैत वेदांत से प्रभावित थे। उन्हें ‘तत्वमसि’ का शब्द प्रिय था, अपनी सैद्धांतिक भौतिकी में इस विचार का इस्तेमाल बार- बार किया था।  शोपेनहावर उपनिषदों को अपने अध्ययन की उपलब्धि मानते थे, जिसने उनका सोचने का नज़रिया बदल दिया। तो उनका असर रहा होगा मेरे प्रिय भौतिकशास्त्री पर।

वह कैसा दुर्लभ वैज्ञानिक रहा होगा जो कहता था – ‘विज्ञान इस बारे में एक शब्द नहीं बता सकता कि क्यों संगीत हमें आह्लादित करता है, और क्यों कैसे इसका एक पुराना गीत हमारी आंखों में आंसू ला देता है।’ ऐसी बात कोई कवि- दार्शनिक ही कह सकता है!

 

वे सत्य तक पहुंचने के लिए पश्चिम और पूर्व के दर्शनों के बीच पुल बनाने के हिमायती थे। वे एक कवि की तरह रंगों से प्रेम करते थे। बिल्ली से प्रेम उन्हें जितना था, शायद ही किसी वैज्ञानिक में मैंने पाया है, उनके एक सिद्धांत को ही बिल्ली का नाम दिया गया है, जिसे अल्बर्ट आइंस्टीन के साथ उनके विमर्श से जन्मा हुआ माना जाता है।

 

उन्होंने अपने प्रिय कुत्ते को नाम दिया था -आत्मन।

 

उनकी आयरिश आर्टिस्ट प्रेमिका शीला माय के साथ अंतरंगता से एक बेटी हुई, जिसे शीला के पति ने अपनी बेटी की तरह पाला, हालांकि शीला ने अपने आयरिश भाषाविद पति डेविड ग्रीन को छोड़ दिया था। शीला माय ने ब्रेकअप के वक़्त पत्र में लिखा था- ‘ मैंने तुम्हारी आँखों मे देखा और पाया कि सारा जीवन इन्हीं में है। वह भाव कि हम दो नहीं, एक ही हैं… तुम मुझे आजीवन प्रेम करोगे, पर अब हम दो हैं, एक नहीं।’

 

उनके बारे में एक कहानी और भी मशहूर है कि 1925 में क्रिसमस से कुछ दिन पहले ढाई हफ्ते की छुट्टी पर अपनी वियना की पुरानी प्रेमिका के साथ अरोसा के स्विस अल्पाइन टाउन के एक विला में पहुंचे तो उनके पास दो मोती थे और एक डी ब्रोगली की थीसिस भी। मोतियों को अपने दोनों कानों में बाहर का शोर कम करने के लिए लगाया, स्त्री प्रेरणा थी ही। जब 9 जनवरी 1926 को उनकी आनंदपूर्ण छुट्टियां पूरी हुई, दुनिया के लिए वेव इक्वेशन थिअरी भी खोज ली गई थी। उनकी वह स्त्रीप्रेरणा आज भी रहस्य है, विज्ञान को उसका योगदान यादगार है ही।

 

वाल्टर मूर ने उनकी जीवनी लिखी है, जिसे 1989 में कैम्ब्रिज ने छापा, उसमें ऐसी दिलचस्प कथाओं का सिलसिला है, जो उनकी व्यक्तिगत और पेशेवर जिंदगी को हमारे सामने खोलकर रख देते हैं, उन्ही में से एक यह भी है कि वे अपनी डायरी में अपने अफेयर्स को दर्ज करते थे। मूर ने जीवनी में उनकी अनेक कविताएं भी शामिल की हैं। नाज़ी शासन की आलोचना के कारण उन्हें बर्लिन छोड़ना पड़ा था। उनका यह जीवनीकार कहता है कि वेदांत का यूनिटी और कंटीन्यूटी का दर्शन सीधे – सीधे वेव मैकेनिक्स में प्रतिबिंबित होता है।

 

द्रष्टा और दृश्य में अभेद की सिद्धि करने वाले क्वांटम फिज़िक्स के जनक (हेंसबर्ग के साथ) कहे जाने वाले इस प्यारे आदमी को 1933 में भौतिकी में नोबल पुरस्कार वैज्ञानिक पॉल डिराक के साथ उस समीकरण के लिए दिया गया था जिसे क्वान्टम फिजिक्स में, न्यूटन के दूसरे नियम का काउंटर पार्ट मानते हैं। पॉल की उम्र केवल 30 साल थी।

 

सन् 1944 में छपी अपनी किताब What is Life : The Physical Aspect of The Living Cell के छठे अध्याय के अंतिम पैराग्राफ में वे उपनिषदों से प्रभावित होकर कहते हैं कि चेतना एक ही है, द्वैत नहीं है। यानी मेरी चेतना और सृष्टि की वृहत चेतना एक ही हैं… (जिसे हमारे शंकराचार्य ‘अहम ब्रह्मास्मि’ कहते हैं )। विज्ञान की दुनिया में कहा जाता है कि उनकी यह किताब 1953 में वाटसन और क्रिक द्वारा DNA की खोज का आधार बनी। तो वे जीव विज्ञान में एक क्रांति के भी प्रेरक थे। यह कोई कम बात है कि वे जेनेटिक कोड का स्पष्ट विचार देने वाले पहले व्यक्ति थे, और उस काम को आखिरकार अंजाम देने वाले 3 वैज्ञानिकों में एक भारतीय भी थे – हरगोविंद खुराना। उनमें ज़रूर शंकराचार्य के जीन रहे होंगे।

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