अल्बर्ट आइंस्टीन ने , जो सापेक्षता के सिद्धांत को विकसित करने के लिए जाने जाते हैं, कहा है, “किसी भी समस्या को चेतना के उसी स्तर से हल नहीं किया जा सकता है जिसमें वह बनी है।” इस गहन अंतर्दृष्टि में हमारी अधिकांश समस्याओं का समाधान छिपा है, जो हमेशा एक गांठ, उलझन, और मुद्दों-मसलों के बारे में लोगों की गलतफहमियों के रूप में सामने आती हैं।
जब चीजें अप्रत्याशित हो जाती हैं तो आप चिंतित हो उठते हैं – जिस व्यक्ति से अपेक्षा की गई थी वह नहीं आया, जिसकी उम्मीद थी वह नहीं हुआ, आपके प्रयासों का परिणाम निराशाजनक रहा, या इससे भी बदतर, आपको किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा धोखा दिया गया जिस पर आप भरोसा करते रहे। इन समस्याओं को हल करने के लिए वास्तविकता की समझ के उच्च स्तर तक जाना आवश्यक है, जिसका अर्थ है – जो ज्ञात नहीं है उसे जानना। जो हुआ सो हुआ, पर क्यूं हुआ। मगर ऐसा करने के लिए, अज्ञात में घुसना जरूरी है। ऐसा करने से जो चीज हमें रोकती है वह हमारी बुद्धि या क्षमता नहीं है, बल्कि हमारे संदेह हैं।
शेक्सपियर ने संदेहों को गद्दार कहा है। वह अपने नाटक, ‘मेज़र फ़ॉर मेज़र’ में लिखते हैं :
“तुम्हारे शक ही तो तुम्हारे शत्रु हैं,
और हरा देते हैं वहाँ, जहाँ जीत होने वाली थी,
कोशिश करने से कतरा कर।”
प्रयास करने से कभी नहीं डरना चाहिए, क्योंकि प्रतिकूल परिस्थिति में काम चलाते रहना उन चीज़ों को स्वीकार कर लेना है जो वास्तव में हमारी नियति नहीं है। प्रत्येक मनुष्य को स्वतंत्र इच्छा का उपहार दिया गया है; अपना दिमाग लगाकर निर्णय लेने की क्षमता हर इंसान में पैदायशी है। लेकिन फिर भी लोग अपना दिमाग क्यों नहीं लगाते? कंडीशनिंग के कारण। पीड़ित की तरह जीने में एक गुप्त संतुष्टि है – मेरी हालत इस और उस वजह से दयनीय है। मेरी परेशानियों, मेरी समस्याओं, मेरी कठिनाइयों के लिए अमुक व्यक्ति जिम्मेदार है – ऐसा सोचने से सुकून मिलता है।
हममें से अधिकांश लोग या तो स्थिति के आगे झुककर, या तो सताने वाले के सामने आत्मसमर्पण करके, या अपने आसपास अधिक शक्तिशाली दिखने वाले किसी भी व्यक्ति की शरण लेकर, जिम्मेदारी के बोझ से भागने की इस बचकानी सोच से बाहर नहीं निकल पाते हैं। बात अजीब है लेकिन हम ज्यादातर समय यही अजीब हरकत करते हैं – बुरा व्यवहार, बेईमान लेन-देन और शालीनता का खुला उल्लंघन बर्दाश्त किया जाता रहता है – और इससे समाज की समग्र गुणवत्ता में गिरावट आती है।
अपने “मैं” को दुनिया के केंद्र के रूप में देखना बेवकूफी है। “मुझे यह पसंद है” और “मुझे यह पसंद नहीं है” का रवैया ही जीवन में कठिनाइयों का मूल कारण है। आप वास्तविकता को उन भागों में क्यों बाँट रहे हैं जो आपके लिए अनुकूल हैं या जिनसे आप असहमत हैं? वास्तविकता को वैसे ही स्वीकार क्यों न करें जैसी वह है? कठिनाई को एक सबक, विकास का अभ्यास और खुद को बेहतर बनाने का मौका क्यों न मानें? आप जो अच्छा देखते हैं वह दूसरे के लिए बुरा हो सकता है, और इसके विपरीत, जो चीज़ आपको असुविधा का कारण बनती है वह दूसरे को आराम दे रही होती है।
बाहरी विविधताओं के नीचे, हर कोई एक जैसा है। यहां, आपकी चेतना के स्तर को ऊपर उठाने का विचार आता है। यह नजरिया बदलने की बात है – ऊपर उठ कर क्षितिज से परे देखना है। इसमें “मैं और मेरे” से “हम और हमारे” तक विस्तारित होना निहित है। यह सभी दिशाओं में अपनी चेतना का विस्तार करने के बारे में है। आत्मवत् सर्वभूतेषु – सभी प्राणियों को अपनी आत्मा के समान मानो।
क्या हर इंसान एक हवा में सांस नहीं ले रहा? क्या पृथ्वी ग्रह ब्रह्मांड का हिस्सा नहीं है? खुद को इस बड़ी प्रणाली के हिस्से के रूप में जानो। हम जो देख और समझ सकते हैं, हकीकत उससे कहीं और बड़ी है। पानी बड़ा गहरा है। तो, मेरा “मैं”, उसके विचार और भावनाएं बाकियों से अलग कैसे हो सकते हैं? करुणा के दायरे को बढ़ाकर और अपनी वास्तविकता को स्वीकार करके स्वयं-निर्मित जेल से खुद को मुक्त करना ही जीवन का सार है। जिस क्षण आप ऐसा करने लगोगे, उस पल से चीजें बेहतरी के लिए बदलना शुरू हो जाएंगी।