छांदोग्य उपनिषद में एक कहानी है जहां ऋषि उद्दालक अपने पुत्र श्वेतकेतु को सभी के एक सार के बारे में सिखाते हैं। वह श्वेतकेतु को बरगद के पेड़ से फल लाने के लिए कहते हैं। उसे खोलने पर उसके अंदर छोटे-छोटे बीज दिखाते हैं। फिर उद्दालक एक बीज तोड़ने के लिए कहते हैं और पूछते हैं कि उसके भीतर क्या है तो श्वेतकेतु उत्तर देते हैं कि वहाँ तो कुछ नहीं है।

तब पिता अपने पुत्र से कहते हैं कि जिसे तुम कुछ नहीं है, कह रहे हो वही एक सूक्ष्म तत्व है जो दिखाई नहीं दे रहा है, लेकिन उसी के माध्यम से विशाल बरगद का पेड़ बनता है। तुम भी वही सार हो, श्वेतकेतु!

 

स य एषोऽणिमैतदात्म्यमिद सर्वं तत्सत्य स आत्मा तत्त्वमसि … (6.12.3).

जो यह अदृश्य है, वही संपूर्ण सत्य है और तुम भी वही हो।

 

जब आप किसी कार को भागते हुए देखते हैं, तो दरअसल वह सिलेंडर के भीतर ईंधन का दहन होता है जो गतिमान बल पैदा कर कार को चला रहा है। पौधे चुपचाप सूर्य से ऊर्जा और मिट्टी से पोषक तत्व खींच रहे हैं। और आपकी अदृश्य सांसें ही आपको जिंदा रखती हैं। जीवन शक्ति वास्तव में सूक्ष्म है जो स्थूल को बनाये रखती और चलाती-फिराती है।

सबसे आश्चर्यजनक तो विचारों की शक्ति है। विचारों को कभी देखा नहीं जा सकता है और फिर भी वे लोगों से भले और बुरे दोनों तरह के काम करवाते हैं। फिर आपके शरीर में से उठ रहे भाव और आवेग आपको कल्याणकारी और हानिकारक, दोनों तरह के काम करने के लिए प्रेरित करते हैं। इन्हीं में विवेक करने के कौशल को जीवन जीने की कला कहते है।

तैत्तिरीय उपनिषद में मानव को पांच कोशों से आच्छादित ब्रह्म के रूप में बताया गया है। ये हैं १. स्थूल शरीर  – भोजन से बने हुए हड्डी, मांसपेशियां, अंग, आदि; २. ऊर्जा शरीर – सांस, पाचन तंत्र, और तंत्रिका तंत्र; ३. मन शरीर – हमारे विचारों, भावनाओं और भावनाओं की दुनिया; ४. बुद्धि – हमारे कौशल और ज्ञान; और अंत में ५. भावबोध – इन सबको महसूस करना। ये एक-दूसरे के भीतर व्यवस्थित हैं, जिसके केंद्र में चेतना है और प्रत्येक बाहरी आवरण, आंतरिक वाले से अपनी जीवन शक्ति प्राप्त करता है। एक सुन्दर अलंकार वर्णन में इन पाँच कोशों को स्वर्ग का द्वारपाल कहा गया है।

 

ते वा एते पञ्च ब्रह्मपुरुषाः स्वर्गस्य लोकस्य द्वारपाः (3.13.6).

ये पांच ब्रह्म पुरुष स्वर्ग लोक के द्वारपाल हैं।

 

प्रश्न उपनिषद में नींद में भी कौन जागे रहता है, इस प्रश्न के उत्तर में बताया गया है कि जैसे पेड़ पक्षियों को आश्रय देता है उसी तरह सारे स्थूल पदार्थ, सूक्ष्म ब्रह्म पर जी रहे हैं।

 

स यथा सोभ्य वयांसि वसोवृक्षं सम्प्रतिष्ठन्ते । एवं

ह वै तत् सर्वं पर आत्मनि सम्प्रतिष्ठते ॥ (4.7)

 

जैसे पक्षी उस पेड़ की ओर उड़ते हैं जो उन्हें आश्रय देता है, वैसे ही सब कुछ जीने के लिए परम आत्मा की ओर बढ़ता है।

 

जान लें कि सब कुछ, आपको मिलाकर, एक ही सार में से बना है और जी रहा है। यही परम और सबसे महत्वपूर्ण ज्ञान है। जो सब कुछ जानता है, लेकिन यह बात नहीं जानता, मूर्ख की तरह जीता और पशु समान मरता है।

 

परमेवाक्षरं प्रतिपद्यते स यो ह वै तदच्छायमशरीरमलोहितं

शुभ्रमक्षरं वेदयते यस्तु सोम्य । स सर्वज्ञः सर्वो भवति । (4.10)

जो छाया रहित है, बिना शरीर का है, बिना रंग का है, और जो शुद्ध और अविनाशी है, उसे जानने वाला खुद परम और अविनाशी को प्राप्त कर सर्वज्ञ हो जाता है। (4.10)

 

बाइबल में, यीशु कहते हैं, “परमेश्‍वर के राज्य का पता संकेतों से नहीं लगाया जा सकता। आप यह नहीं कह सकेंगे, ‘यह यहाँ है!’ या ‘यह वहाँ पर है!’ क्योंकि परमेश्वर का राज्य पहले से ही आपके भीतर है।” (लूका 17:20-21, न्यू लिविंग ट्रांसलेशन)।

इसलिए कभी भी अपने आप को अकेला, निराश, निस्साह, और कमजोर महसूस न करें। आप पूरे ब्रह्मांड का एक जीवित हिस्सा हैं। धैर्य रखें और कठिन समय को बादल की तरह बिसर जाने दें। जब सब कुछ नियंत्रण से बाहर हो रहा हो तो भी अपनी श्वास पर ध्यान देकर कम से कम जिंदा तो हूँ सोच कर टिके रहें। कुछ ही क्षणों में आप देखेंगे कि कैसे सूक्ष्म स्थूल पर नियंत्रण स्थापित कर लेता है।