हम सभी जानते हैं कि हमारे पास स्वतंत्र इच्छा है – अपने कार्यों को चुनने की गुंजाइश है। लेकिन ऐसा हमेशा नहीं होता है कि हम जो चाहें चुन सकते हैं। बहुत कुछ दुनिया में हमारी मर्जी के मुताबिक नहीं होता है। लेकिन  हम जो चाहते थे उसे न पाकर हताश महसूस करने के बजाय हम धैर्य रखना चुन सकते हैं। जब कोई हमारी आलोचना करता है, हमारा अपमान करता है या हमें गाली देता है, तो हम गुस्से से प्रतिक्रिया कर सकते हैं, झगड़ा कर सकते हैं, या फिर अपनी शांति बनाए रखने के बाबत इसे जाने भी दे सकते हैं।

मुझे कैसे पता चले कि मेरी इच्छा सही है? मेरे दिमाग में बहुत सारी आवाजें हैं, प्रत्येक मुझसे यह या वह करने के लिए कह रही है। किसकी सुनूं?  श्रीमद् भगवद गीता (16.21) नरक के तीन द्वारों के बारे में चेतावनी देती है:

 

त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मन: |

काम: क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत् ||

 

विनाश की ओर ले जाने वाले नरक के यह तीन द्वार हैं – काम, क्रोध और लोभ। अत: इन तीनों में ना घुसो। काम, क्रोध और लोभ से उत्पन्न इच्छा से किए गए सभी कार्यों से बचना ही उचित है।

हम सब उस चेतना के साथ जन्म लेते हैं जिस पर हमारे पिछले कर्मों के दाग लगे होते हैं – कुछ अच्छे होते हैं, और कई बुरे भी होते हैं। इनके चलते, हमारे अंदर से अच्छे और सराहनीय या बुरे और हानिकारक, दोनों ही तरह के काम करने के लिए सहज प्रेरणा मिलती है। यदि हम अपने मन से उत्पन्न होने वाले आवेगों और प्रेरणाओं के बारे में सतर्क रहें और उन पर सोच समझ कर ही कार्यवाही करें तो बहुत से नुकसान होने से बचा जा सकता है।

यह संसार मोह और विरक्ति के दो धागों से बुना हुआ जाल है। मैं उन सभी की तरफ जाता हूं जो “मुझे पसंद हैं”, और उन सभी से दूर भागता हूं जो “मुझे पसंद नहीं हैं”। लेकिन यह “मैं” कौन है? “मैं” के भाव को मन, बुद्धि, अहंकार और चेतना के रूप में समझा जा सकता है। आगे बढ़ने और उस पर अमल करने से पहले हमें जांच करनी चाहिए कि हम किस “मैं” के साथ व्यवहार कर रहे हैं। मन निश्चय ही चंचल, बलवान, और हठी है (गीता 6.34) :

 

चञ्चलं हि मन: कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम् |

तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ||

 

कठ उपनिषद (1.3.10) समाधान देता है। वस्तुएँ इन्द्रियों को वश में करती हैं, परन्तु मन इन विषयों से श्रेष्ठ है। ज्ञान का संकाय मन पर हावी हो सकता है, लेकिन महान स्व रूपी आत्मा सबसे शक्तिशाली है।

 

इन्द्रियेभ्यः परा ह्यर्था अर्थेभ्यश्च परं मनः।

मनसस्तु परा बुद्धिर्बुद्धेरात्मा महान्परः ॥

 

अपने मन को जानने की सबसे अच्छी तकनीक ध्यान में बैठना है। चुपचाप अकेले बैठें, अपनी आंखें बंद करें और चिमनी से निकलने वाले धुएं की तरह विचारों को उभरते हुए देखें। प्रतिक्रिया ना करें बैठे रहें, बुरे और सबसे भयानक विचारों को भी प्रकट होते हुए बस देखते रहें। यहां तक कि सुखद और वासनापूर्ण विचारों से भी मोहित-उत्तेजित ना हों। सभी विचार जल्द ही बिखर कर धुएं की तरह गायब हो जाएंगे। यह अपनी जन्मजन्मांतर की कंडीशनिंग को दूर करने का सबसे सरल और पक्का तरीका है।

आपकी स्वतंत्र इच्छा अपने आप को पिछले अनुभवों की कंडीशनिंग – जिन्हे संस्कार कहा गया है – से निजात पाने के बारे में है। जन्मजात मानव स्वभाव उदार, संवेदी, और बुद्धिमान होता है। केवल हमारी उपार्जित काम, क्रोध और लोभ ही उसे वैसे ही ढके रहते हैं जैसे धुआँ अग्नि को ढक लेता है, धूल दर्पण को ढक लेती है, और गर्भ भ्रूण को ढक लेता है (गीता 3.38)।

 

धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च |

यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम् ||

 

अपने आध्यात्मिक विकास को आगे बढ़ाने के लिए अपनी इच्छाओं और प्रगति के माध्यम से अपनी सच्चाई की खोज करें। इंसान को स्वतंत्र इच्छा यह जानने के लिए दी गई है कि ईश्वर क्या चाहता है। ताल से ताल मिलाऐं, अपनी बीन न बजाऐं। और एक बार ऐसा हो जाने के बाद, आपको इस दुनिया में सफल होने और फलने-फूलने से भला कौन रोक सकेगा?