अभी तो शादी को एक साल भी नहीं हुआ कि राहुल और रचना का तलाक हो गया. शर्मा जी के लड़के की नौकरी क्या लगी, पलट कर अपने माता-पिता के पास वापस नहीं आया. रवि की बीवी रोमा और उसकी माँ में बिलकुल नहीं बनती नतीजन शादी के तीन महीने बाद ही रवि को अलग घर लेना पड़ा. पत्नी ने पति से परेशान होकर फांसी लगा ली. घर वालों के न मानने पर एक प्रेमी जोड़े ने खुदखुशी कर ली. इस तरह की कई कहानियां हम आये दिन अपने आसपास सुनते हैं. इन कहानियों के पात्र अलग हो सकते हैं, उनके शहर और पृष्ठभूमि अलग हो सकती है. पर इन कहानियों की उत्पत्ति दूसरे पर नियंत्रण रखने की प्रवृति से होती है.

दूसरे पर नियंत्रण करना मनुष्य के अहंकार को संतुष्ट करता है और ये तुष्टि उसे एक सुख देती है. हम हर चीज अपने नियंत्रण में करना चाहते हैं, लेकिन जब यह बात हम दूसरे इंसानों पर लागू करने लगते हैं – वहीं से शुरू होता है, मनमुटाव, बिखराव. रिश्तों के टूटने का खेल !

इसलिए दूसरों पर नियंत्रण करने का सुख एक नकारात्मक सुख है और हर नकारात्मकता आखिरकार हमारा ख़ुद का ही नुक्सान करती है.

नियंत्रित वही हो सकता है जो या तो बेजान हो या फिर कमज़ोर और मजबूर. किसी भी रिश्ते में चाहे वह माता-पिता हों, बच्चे हों, प्रेमी–प्रेमिका हों, पति-पत्नी हों, दोस्त हों, भाई-बहन हों या जाने-अनजाने लोग जहां पर परस्पर सम्मान और सद्भाव की भावना खत्म होती है और नियंत्रण की भावना शुरू होती है, वहां पर कड़वाहट और एक चिंगारी सुलगती रहती है. अधिकार, ताकत और दबाव से आप किसी को नियंत्रित तो कर सकते हैं, लेकिन उसका प्रेम और सच्चा सम्मान कभी हासिल नहीं कर सकते हैं. प्रेम एक ऐसी अदृश्य बेड़ी है जो बिना किसी को बंधक बनाए बांधे रखती है. दवाब का बंधन तो तब तक ही रहता, जब तक दवाब रहता है.

अक्सर बच्चे जब तक अपने माता-पिता पर निर्भर होते हैं, उनसे जुड़े रहते हैं और आत्मनिर्भर होते ही वे उनसे दूर चले जाते हैं. तो क्या यह माना जाए कि बच्चे स्वार्थी हैं? हो सकता है वह कुछ हद तक स्वार्थी हों लेकिन यह आधा सच है, पूरा सच यह है कि अक्सर माता-पिता की वजह से ही वे ऐसे बन जाते हैं.

ज़्यादातर अभिवावक बचपन से ही अपने बच्चों पर नियंत्रण रखने की कोशिश करते हैं. दोस्त की बजाए उनके मालिक बनकर उनको dominate करते हैं. क्या करना है, क्या पढ़ाई करनी है, जीवन में क्या बनना है, किससे शादी करनी है, कौन सी जाति वाले से दोस्ती करनी है, किससे बचना है, क्या खाना है, क्या पीना है, शादी के बाद कब बच्चे पैदा करने हैं आदि–आदि. छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी चीज़ में वे अपनी राय बच्चे पर थोपते हैं; और उसका नतीजा यही होता है कि उनके बीच का संबंध प्रेम से ज्यादा मास्टर और गुलाम का हो जाता है और जैसे ही बच्चे आत्मनिर्भर होते हैं वह संबंध भी खत्म हो जाता है. क्योंकि इमोशनल और प्रेम का संबंध तो कभी कायम कर ही नहीं पाए थे.

इस प्रेशर और माता- पिता से दोस्ताना सम्बन्ध न होने की वजह से कई बच्चे और किशोर आत्महत्या जैसा कदम तक उठा लेते हैं. बहुत कम माता-पिता ऐसे होते हैं, जो बच्चे को उसकी रूचि के हिसाब से पढ़ने, कोई क्रिएटिव एक्टिविटी सीखने, मनपसंद दोस्त बनाने, मनपसंद जीवनसाथी चुनने की आज़ादी देते हैं. बच्चों को अनुशासन सिखाते हुए उनके दोस्त बनने और उनकी रूचि-अरुचि जानने की ज़रूरत है, न कि उन पर अपने निर्णय थोपने की !

यह बात दोस्तों में, भाई-बहनों में, भाई-भाई में, ऑफिस में या जिस भी क्षेत्र में आप काम करते हैं, उन सभी जगह लागू होती है. जीवन में सबकी तलाश होती है – सुकून, प्रेम और सम्मान.

वह नियंत्रण करने से नहीं बल्कि स्वीकार करने से, स्वतंत्रता देने से, जो जैसा है उसे वैसा ही स्वीकार करने से ही मिलता है. प्रेम वहीँ होगा, जहां स्वतंत्रता होगी, एक दूसरे के प्रति सम्मान और सहयोग का भाव होगा. परस्पर सद्भाव रखते हुए ही सुखी जीवन जिया जा सकता है. वरना रिश्ते, दोस्त आपके हाथ से छूट जाएंगे और जो आपके साथ भी होंगे वह जरूर किसी लालच या मजबूरी में जुड़े होंगे, जिनसे आपको सच्चा अपनापन कभी नहीं मिल पाएगा.

नियंत्रण करना है तो आत्मनियंत्रण कीजिये. आत्मनियंत्रण जीवन की आधी से ज्यादा समस्याओं को हल कर देता है. दूसरे पर कोई भी दवाब बनाने से पहले वो दवाब खुद पर झेल कर देखिये. अगर आप उस दवाब को अपने ऊपर नहीं बर्दाश्त कर पाते, तो दूसरे से कैसे उम्मीद कर सकते हैं? अपने आप का निष्पक्ष भाव से निरीक्षण कीजिये. यदि आप ऐसा कर पाते हैं तो आप सही-गलत का निर्णय विवेकपूर्ण तरीके से ले सकेंगे.

अधिकार के मद में चूर होकर या क्रोध में कई बार ऐसी बातें मुंह से निकल जाती हैं जो सामने वाले के आत्मसम्मान को बुरी तरह से आहत कर सकती हैं. इसलिए इस मद और क्रोध पर आत्मनियंत्रण ज़रूरी है.

दोस्तों, किसी को अपना बनाने की चाबी है- उसको स्वतंत्र कर देना, उसको प्रेम देना, उसका ख्याल रखना और उससे कम से कम उम्मीद करना क्योंकि जब उम्मीद कम होगी तो दुख भी कम होगा. अगर आप इस भ्रम में जीते हैं कि आप किसी को बदल सकते हैं तो यह भ्रम तोड़ डालिए क्योंकि कोई भी बदलता तभी है जब वो खुद बदलना चाहे. और यह बदलाव प्रेम से तो संभव है पर अधिकार, दवाब या नफ़रत से तो कभी नहीं.

प्रकृति ने मनुष्य को स्वतंत्र पैदा किया है इसलिए स्वतंत्र रहना उसकी चेतना में शामिल है. वो घुटन नहीं सह सकता जब तक मजबूर न हो. यकीन मानिए जब आप लोगों के और चीजों के पीछे भागना बंद कर देते हैं, तो वो स्वतः ही आपके पास आने लगती हैं. सदभाव में रहिए, प्रेम में रहिये… नियंत्रित मत कीजिए, स्वीकार कीजिए!

 

Image source : Viraj D. Tak