बच्चे को मशीन नहीं इंसान बनाइये : बच्चे पालना बच्चों का खेल नहीं

जैसे-जैसे वक्त बदला पेरेंट्स और बच्चों का रिलेशनशिप बदलता गया. बचपन में अक्सर पलट कर जवाब देने पर मेरी मां कहतीं थीं- हम तो अपने पेरेंट्स के सामने सिर तक नहीं उठा पाते थे और तुम हमको पलट कर जवाब देती हो. आज के दौर में आलम यह हो गया है कि पेरेंट्स एक बोलते हैं तो बच्चे चार सुनाते हैं, ज़्यादातर पेरेंट्स बच्चों को इतना सिर चढ़ा देते हैं कि बाद में वही बच्चे उनका सबसे बड़ा सिरदर्द बन जाते हैं. बहुत से घरों में बच्चे पेरेंट्स को गुलामों की तरह ट्रीट करने लगे हैं. उनसे हर काम करवाने के लिए पेरेंट्स को रिक्वेस्ट करनी पड़ती है.

 

सीखें बच्चों के साथ

मैंने शुरू से कोशिश करी कि मैं अपने बच्चे की दोस्त बनूँ, उसे डांटने- मारने की जरूरत ना पड़े बल्कि वह इशारे से ही बात को समझे. उसे मुझ पर इतना विश्वास हो कि वह समझ सके, हमारे पेरेंट्स जो कह रहे हैं, सही कह रहे हैं. बच्चे को इतना भरोसा हो कि कोई भी बात दूसरे को बताने से पहले अपने पेरेंट्स को बताएं और उनसे सही सलाह ले सकें. पेरेंटिंग को भारत में कभी बहुत सीरियसली नहीं लिया गया. अक्सर हम सुनते आए कि बच्चे तो यूं ही पल जाते हैं.

बच्चे अपने आप तो ऐसे पल सकते हैं जैसे बारिश में बहुत सारी घास और खरपतवार उग आती है. वह अपने आप ही बड़ी होती रहती है, उसमें ढेर सारे कीड़े-मकोड़े भी पैदा हो जाते हैं. वो दूर से हरी तो दिखती है लेकिन किसी काम की नहीं होती. लेकिन हम जब कोई पौधा लगाते हैं, तो उसकी देखभाल करते हैं, वक्त पर कटाई-छँटाई करते हैं, उसमें खाद और दवाइयां डालते हैं, तब वह पूरी तरह विकसित होता है और अच्छा फल देता है. यही बात बच्चों पर भी लागू होती है. बच्चों को कुछ भी सिखाने से पहले खुद सीखना जरूरी है क्योंकि अगर आप झूठ बोलते हैं तो बच्चे से सच बोलने की उम्मीद कैसे कर सकते हैं? अगर आप आलसी हैं तो बच्चे से कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि वह सुबह 5:00 बजे उठ जाए! आप घर में जोर से चिल्लाते हैं तो बच्चे से कैसे शांत रहने की उम्मीद कर सकते हैं? बच्चों को सिखाने के लिए खुद भी उनके साथ सीखना पड़ता है.

रहे मोबाइल से दूरी

आज के दौर में मोबाइल और लैपटॉप जीवन का अभिन्न अंग हो गए हैं, उनको पूरी तरह अवॉयड नहीं किया जा सकता लेकिन उनके इस्तेमाल को तो सीमित किया जा सकता है. बड़ा अफसोस होता है जब मैं देखती हूं किसी के घर में बच्चे खाने की टेबल पर मोबाइल या लैपटॉप लेकर बैठे हैं. घर में कोई आए-जाए उनको कोई खास फर्क नहीं पड़ता है. वह अपने मोबाइल की दुनिया में गुम हैं, वहीँ खुश हैं तो इसका दोषी किसको माना जाए?

पेरेंट्स एक झटके में कह देते हैं कि ये मेरी बात नहीं सुनता/ सुनती, हर समय मोबाइल में लगा रहता/रहती है. इस बात के लिए बच्चे से पहले पेरेंट्स ज़िम्मेदार हैं, जो अपने को फ्री रखने के चक्कर में बचपन से ही नन्हें हाथों में मोबाइल थमा देते हैं.

बच्चा कुछ बोलना चाहता है, तब भी पैरेंट का आधा ध्यान मोबाइल पर रहता है, जिनको आभासी दुनिया, वास्तविक दुनिया से ज्यादा अच्छी, लुभावनी लगती है. वो बच्चे के पैदा होते ही उसको सेल्फी लेना सिखाने लगते हैं. और जब यही काम बच्चा अपनी इच्छा से करने लगता है, तब पेरेंट्स को बुरा लगता है और उस समय तक काफी देर हो चुकी होती है.

मुंबई में मेरी एक कला प्रदर्शनी में एक कपल आया था, उनके दो बच्चे भी थे दोनों के हाथों में महंगे टैब थे, लड़के की उम्र करीब 11 साल होगी और लड़की 7 या 8 साल की होगी. जितने देर वो वहां रहे उनका पूरा ध्यान अपने मोबाइल पर था, उन्हें कोई मतलब नहीं था कि वह किससे मिलने आए हैं, क्या देखने आए हैं? यह बात बहुत दुःख देती है कि इस पीढ़ी को हम क्या दे रहे हैं, बच्चे वास्तविक दुनिया को महसूस करना भूल ही जाते हैं, उनको लगता है कि हर चीज एक बटन पर है जिसे आप खुद कंट्रोल कर सकते हैं पर ऐसा नहीं है. वास्तविक दुनिया आज भी आभासी दुनिया से अलग है. बच्चों को सिखाइए लोगों से मिलना, उनसे बात करना, महसूस और observe करना.

असल ज़िन्दगी कोई चैट रूम नहीं कि आपको मजा नहीं आ रहा तो आप तुरंत चैट ऑफ करके दूसरे से चैट करने लगे. रियलिटी बहुत अलग है और अगर हम अपने बच्चों को इसका सामना करना नहीं सिखायेंगे तो बड़े होने के बाद उनको काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ेगा.

 

कराएं कुदरत से पहचान

बच्चा स्कूल में जो भी सीख रहा है, उसके अलावा उसका कुदरत से परिचय कराना आपकी जिम्मेदारी है. हफ्ते-दस दिन में उन्हें एक बार किसी खुली जगह पर ले जाइए, जहां पर कुदरत की ज्यादा मेहरबानी हो – जैसे कोई नदी, तालाब, पहाड़, नहर, जंगल आदि. बर्ड वॉचिंग करना सिखाइए, कहानियां सुनाइए, उन्हें मिट्टी की पहचान कराइए, खेतों को दिखाइए, उन्हें अनाजों के नाम बताइए, उन्हें बताइए कि कौन सा मौसम किस चीज के लिए अच्छा है और मौसमों का बदलना क्यों जरूरी है? यह बात उन्हें किताबों की बजाय  कुदरत से खुद मालूम होनी चाहिए.

मिट्टी में पलकर कोई बीमार नहीं होता है बल्कि यह मिट्टी हमें मजबूत करती है, बच्चों को उस मिट्टी में लोटना सिखाइए, उन्हें ग्रास कारपेट पर नहीं बल्कि असली घास पर चलना सिखाइए ताकि वह फिजिकली, मेंटली, इमोशनली स्ट्रांग बन सकें, नेचर से ज्यादा कनेक्ट हो सकें. महंगे फोन, आलीशान घर, डिज़ाइनर कपड़ों के बावजूद बच्चों के चेहरों से सहज हंसीं और मासूमियत अगर गायब है तो ये ज़िम्मेदारी पेरेंट्स की है. उनको बताइए कि जीवन को हरेक क्षण कैसे जिया जाए.

 

सिखाएं तमीज, संस्कार और संवेदनशीलता

बच्चे की काबिलियत केवल इस बात से तय नहीं होती कि वो कितने अच्छे स्कूल में पढ़ता है या कितनी अच्छी अंग्रेजी बोलता है. उसको अपने आप बड़ों से अभिवादन करना आना चाहिए. उसको ये कहना न पड़ता हो – बेटा नमस्ते करो, वो घर के कामों में शेयरिंग करता हो, घर वालों, दोस्तों, पड़ोसियों से लेकर घर में काम करने वाले हेल्पर्स के प्रति संवेदनशील हो. वह कितना खुली हवा में सांस लेता है, कितना जी भर कर हंसता है, आपकी दुख-तकलीफ़ से  उसे कितना फर्क पड़ता है, ये सब उसकी काबिलियत की पहचान हैं.

उसको ये समझ आना चाहिए कि जो उसे मिल रहा है उसके लिए grateful  रहे, उसकी वैल्यू समझें, उसे बताएं कि दुनिया में कुछ भी फ्री नहीं मिलता और उसके लिए कीमत चुकानी पड़ती है. उसको मालूम होना चाहिए कि जिंदगी सिर्फ मोबाइल या कंप्यूटर पर नहीं बल्कि यह उसकी जिंदगी का सिर्फ एक हिस्सा है. उसकी असली जिंदगी घर में, स्कूल में, दोस्तों के साथ, खेल के मैदानों में, माता-पिता के साथ और सपोर्ट में है. इसकी शुरुआत हमें घर से ही करनी होगी, अपने मोबाइल को साइड में रखिए, बच्चों के साथ क्वालिटी टाइम बिताइए, उन्हें ऐसी समझ दीजिए कि वह अच्छे और बुरे का अंतर करना सीख सकें और संवेदनशील रह सकें. आपको दिल से प्यार करते हुए इज्जत देना सीख सकें. वो आपको सिर्फ़ एटीएम मशीन की तरह ट्रीट करने लगें इससे पहले संभल जाइए. बच्चो को स्मार्ट से पहले इंसान बनाइये.

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