रह जानी तस्‍वीर, ओ राजा, रंक, फकीर !

अमेज़ॉन प्राइम पर हाल ही आई फ़िल्म फोटो प्रेममराठी फिल्म है पर सकल भारतीयता से ओतप्रोत है और भारतीय जनमानस में छवियों के आकर्षण का एक नया आयाम प्रस्तुत करती है

ईश्वर या देवताओं को भी हमने छवियों में ही देखा और महसूस किया है और पीढ़ी-दर-पीढ़ी ये छवियां ही हमें जोड़े रखती हैं, देवताओं की ही नहीं, हमारे सामान्य पुरखों को भी हम उनकी खास छवियों से याद करते हैं, याद रखते हैं और अगली पीढ़ियों को स्थानांतरित करते हैं और यह मानसिक स्थानांतरण इस छवि रूपक के साथ जुड़ जाता है कि छवि सिनेमा का भी प्रारंभिक रूप है और बांग्ला में तो फ़िल्म को छोबी यानी छवि ही कहा जाता है।

अमेज़ॉन प्राइम पर हाल ही आई फ़िल्म ‘फोटो प्रेम’ मराठी फिल्म है पर सकल भारतीयता से ओतप्रोत है और भारतीय जनमानस में छवियों के आकर्षण का एक नया आयाम प्रस्तुत करती है और एक तरह से सगुण भक्तिधारा का भी एक नया पाठ प्रस्तुत करती है।

नीना कुलकर्णी इस फिल्म में मुख्य भूमिका में है और उनके किरदार को यह एहसास होता है कि मृत्यु के बाद शोक सभा में एक छवि (तस्वीर) के जरिए मृतक को श्रद्धांजलि दी जाती है और उस छवि के आसपास कितना कुछ घटित होता है, उस घटित होने की कल्पना को अपने ऊपर लेती है और कल्पना करती है कि जब उसकी मृत्यु होगी तो उसे किस छवि से याद किया जाएगा। इस कल्पना के साथ उसे यह भी एहसास होता है कि इतनी सुंदर छवि तो उसकी कोई है ही नहीं और इसका परिणाम यह होता है कि ऐसी एक छवि के निर्माण, फोटो खिंचवाने और फोटो को अर्जित करने की प्रक्रिया में जुट जाती है जो उसकी मृत्यु के बाद उसकी छवि के रूप में लोगों के अंतर्मन और आंखों में स्थापित हो पाए, उनके पोतों और अगली पीढ़ियों तक पहुंच पाए। यही इस फिल्म की मुख्य कहानी है परंतु इसके आयाम बहुत विस्तृत हैं।

भारतीय परंपरा में छवि का इतिहास खंगालें तो पुराणों का अवतारवाद सगुण ब्रह्म का आदि प्रयोग है, जो अपने ईष्ट को छवि के साथ देखने-महसूसने-आराधना करने की प्रणाली बनाता है। भारत के दो सबसे लोकप्रिय अवतार रूप राम और कृष्ण इसी सगुण ब्रह्म के उदाहरण हैं। भक्ति भावों का निरूपण है, भाव के लिए छवि एक उपादान है। दूसरे शब्दों में, छवि भाव को धारणा में रूपांतरित करने में  सहायक है, यही भावमूलक उपादेयता देवताओं से इतर सामान्यजनों की देहमृत्यु उपरांत स्मृति और संवेदना में भी महत्वपूर्ण बन जाता है। स्मृति बनकर रहने के लिए छवि का यह  प्रयोग और इसका भावनात्मक आवेग कितना और कैसा रूप ले सकता है, नीना कुलकर्णी का किरदार उन्हीं तानेबाने से बुना गया है।

‘फ़ोटो प्रेम’ में नीना कुलकर्णी

निर्देशक जोड़ी आदित्य राठी-गायत्री पटेल की यह डेब्यू फिल्म है। वे दोनों फ़िल्म के निर्माताओं में भी शामिल हैं। इसकी अवधि 94 मिनट है, थोड़ी कम हो जाती तो और ज़्यादा असरदार होती। फ़िल्म में एक हिंदी गीत है, जिसके शब्द बहुत अच्छे हैं। आदित्य राठी ने पटकथा भी लिखी है। यानी कुलमिलाकर यह इस जोड़ी के कनविक्शन की फ़िल्म है।  ‘फ़ोटो फ्रेम’ को टाइटल के लिए ‘फ़ोटो प्रेम’ में बदल देना सुंदर प्रयोग है।

फ़िल्म की एक सुंदरता यह भी है कि यह आपके भीतर इहलोक और परलोक की बहस को भी जगा सकती है। खास तौर पर ऐसे वक्‍त इस फिल्‍म का आना जब देश दुनिया में मौत का तांडव हो रहा है, हम सब लोग अपने दोस्‍तों, परि‍चि‍तों या परिवारजनों में से किसी न किसी को कोरोना के हाथ खो बैठे हैं, यह स्मृति छवि‍ का चिंतन हो रहा है। आप भी देख रहे होंगे कि पिछले कुछ समय से अखबारों में ट्रिब्‍यूट के पेजों की संख्‍या बढ़ गई है, क्‍लासीफाइड्स के बीच मुश्किल से आधा पेज होता था जो अब कई पेजों तक आ गया है। जन्‍म से पहले और मौत के बाद हमारा जीवन यूं सदियों से मनुष्‍य की जिज्ञासा का विषय रहा है। किसी पारलौकिक जीवन की संभावना और इस जीवन से उसके रिश्‍तों को विज्ञान, दर्शन या धर्म के दायरों में समझने की जिज्ञासा और चेष्‍टा का अवसर पैंडेमिक ने फिर से दिया है। मृत्‍यु के बाद का जीवन पहेली ही है। उसे लेकर सारी अवधारणाएं कई बार मुझे पुराने जमाने के मेधावी लेखकों की ऐसी कहानियां लगती हैं जिनकी तुलना आज के हॉलीवुड के साइंस फिक्‍शन से की जा सके। क्‍योंकि मरकर तो कोई बताने के लिए आज तक लौटा नहीं, कि मरने के बाद क्‍या होता है। देह का निष्‍प्राण हो जाना हमारे इंद्रिय अनुभव का विषय है, उससे आगे के अनुभव असिद्ध ही कहे जा सकते हैं। तो निष्‍प्राण देह की कम या ज्‍यादा कर्मकांडीय विदाई के बाद प्राणयुक्‍त देह की छवि को याद रखने की इंसानी कवायद का कलात्‍मक नाटकीय रूपांतरण ‘फोटो प्रेम’ के रूप में जब हमारे सामने आता है, हम देखते कम हैं, देखते हुए सोचते ज्‍यादा हैं, और यही शायद इसे बनाने वालों का मंतव्‍य भी रहा हो।

कई बार लगता है कि दुनिया में प्रचलित नए पुराने धर्मो में ‘आफ्टर लाइफ’ को लेकर जितने मत वैभिन्‍नय है कि नास्तिकों का इससे संबंधित कोई अवधाराणात्‍मक ज्ञान कोई बेहतर विश्‍वसनीय विचार दे सके। यहां इस संदर्भ में सत्‍यनारायण सोनी की लिखी एक राजस्‍थानी कहानी याद आ रही है जिसमें एक व्‍यक्ति अपने मरने के बाद देख रहा है कि लोग उसकी मौत पर किस-किस तरह से प्रतिक्रिया दे रहे हैं।

डंकन मैकडोगल

21 ग्राम की आत्‍मा की अवधारणा के बारे में आपने सुना ही होगा, अगर नहीं सुना तो संक्षेप में बता दें, 1901 में मैसाचुसेट्स के भौतिक विज्ञानी डंकन ने छ: मरणासन्‍न लोगों पर किए एक शोध में जीवित और मृत देह के वजन में 21 ग्राम का अंतर माना, तो लोगों ने कहा कि आत्‍मा निर्भार नहीं होती और इस 21 ग्राम को आत्‍मा का भार कहा गया। यह एक वैज्ञानिक का ऐसा शोध था जिसे वैज्ञानिकों ने विज्ञान की कसौटी पर स्‍वीकार नहीं किया, और डंकन ने इसे जारी भी नहीं रखा और 1920 में उनकी मौत भी हो गई, फिर शायद ही किसी वैज्ञानिक ने इसे आगे बढ़ाना चाहा। इस प्रयोग के विस्‍तार के लिए गूगल कर लीजिएगा, 2003 में ‘21 ग्राम’ नाम से फिल्‍म भी आई थी। अलजेंड्रो गोंजालेज निर्देशित थी यह फिल्‍म।

न्यूयॉर्क टाइम्स का 11 मार्च 1907 में प्रकाशित लेख

इसे देखते हुए हमें अमीर खुसरो क्यों नहीं याद आएंगे, जब वे कहते हैं :  “अपनी छब बनाय के, जो मैं पी के पास गई, जब छब देखी पीहू की, सो मैं अपनी भूल गई, ओ, छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाय के।” गोया, अमीर खुसरो भी जैसे हमसे कह रहे हैं कि किस छबि को देखकर आप सुधबुध ही खो दें, सब कुछ छिन जाए और सब कुछ पा जाएं।

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